पूर्वी बंगाल, पूर्वी पाकिस्तान, बाँग्लादेश
हम आज जिस मुल्क को बाँग्लादेश कहते हैं उसका जन्म पाकिस्तान आन्दोलन से शुरू हुआ था या कम से कम जुड़ा हुआ था या नहीं इसपर विचार करने की जरूरत है। इस कठिन प्रश्न के उत्तर देने से बचने के लिए एक खास किस्म का इतिहास सामने रखा जाता है जिसमें इस बात को भुलाने की कोशिश होती है कि बंगाल के मुस्लिम राजनीतिक उभार से बंगाल की राजनीति का साम्प्रदायिकीकरण उसी समय हो रहा था जिस समय बंगाल में राष्ट्रीय आन्दोलन चल रहा था। इस इतिहास को छुपाने के कारण लोगों की स्मृति में यह बात धुंधली हो गयी है कि हावड़ा स्टेशन से ढाका के लिए ट्रेन वैसे ही चलती थी जैसे हावड़ा से पटना के लिए खुलती थी।
यह कैसा इतिहास है जिसमें साक्ष्य हैं, यहाँ तक कि ऐसे लोगों को भी हम देखे सुने हैं जो उस समय के के साक्षी रहे हैं जिसमें बाँग्ला को दो देशों में बांट दिया। आज विडंबनापूर्ण स्थिति हो गयी है कि जिस गीत को गाते हुए मुसलमान विद्यार्थियों ने इतना बड़ा परिवर्तन करा दिया उसकी धुन तैयार करने वाले हिन्दू संगीतकार का घर उनके बहुमूल्य और दुर्लभ वाद्य यंत्रों समेत जला दिया गया! और यह सब बंगाली राष्ट्रीयता के नाम पर हो रहा है! यह कैसी बंगाली जातीयता है जो हिन्दू और मुसलमानों को राजनीतिक कारणों से इतना अलग कर देती है।
याद किया जा सकता है कि बाँग्ला के सबसे लोकप्रिय उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने एक जगह लिखा था कि उन्होंने बंगाली और मुसलमानों के बीच एक मैच देखा! इस बात को उद्धृत करके कई विद्वान इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे हैं कि महान लेखक साम्प्रदायिक दृष्टिकोण रखते थे। उपन्यासकार सच कह रहे थे या अपनी वैचारिक सीमा को उजागर कर रहे थे। दरअसल साहित्यकार समय के सच को सामने रखते हैं और वे वही लिखते हैं जो समाज में उन्हें दिखलाई पड़ता है। शरत भी यही कर रहे थे।
जिस मुल्क को हम आज बाँग्लादेश कहते हैं उसका जन्म पाकिस्तान आन्दोलन के कारण हुआ ऐसा कहा जा सकता है। हालांकि इसका अर्थ यह नहीं लिया जा सकता कि सभी मुसलमान एक थे। उनमें भी कई आपसी द्वंद्व थे, दल थे जैसे कि हिन्दुओं में थे। लेकिन राजनीतिक कारणों से धार्मिक आधार पर मुसलमान राजनीतिज्ञ हिन्दू नेतृत्व के सामने एकजुट हो जाते थे यह कुछ विशेष संदर्भ में सच थे, इसमें संदेह नहीं।
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि बँटवारे के बाद की परिस्थिति में बंगाल का बंटवारा मुस्लिम नेतृत्व ने मान तो लिया पर उन्हें लगा कि इससे उनको नुकसान हुआ। वे इस उम्मीद को छोडने को तैयार नहीं थे कि बंगाल सूबे का इतना बड़ा हिस्सा जिसमें कलकत्ता महानगर भी था उनके नियन्त्रण से निकल जाए। उन्होने इस आशा को शाद जिलाए रखने के लिए ही इस सूबे को पूर्वी बंगाल कहा। बाद में (1955 के बाद) ही इसे पूर्वी पाकिस्तान कहा गया।
बंगाल एक राज्य था और यह देश बना 1947 में, पाकिस्तान के साथ। पाकिस्तान का यह हिस्सा था लेकिन अपने भौगोलिक स्थिति के कारण इसकी राजनीतिक सत्ता पर पश्चिमी पाकिस्तान का नियन्त्रण आधा अधूरा सा ही रहा।
अविभाजित बंगाल में मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से अधिक थी। लेकिन बंगाल के हिन्दू औपनिवेशिक काल में बहुत प्रभावशाली थे और उन्नीसवीं शताब्दी के नवजागरण ने उन्हें बहुत बढ़त की स्थिति में ला खड़ा किया था। बंगाल के पूर्वी इलाके सबसे उपजाऊ थे और वहाँ मुसलमानों की संख्या अधिक थे। अधिकतर किसान मुसलमान थे और वहाँ के जमींदारों में हिन्दू अधिक थे, पर मुस्लिम जमींदार भी थे। हिन्दुओं के इस वर्चस्व को बहुधा इतिहासकारों ने वर्गीय आधार पर देखने की कोशिश में इस बात को बहुत महत्त्व देकर कहा है कि गरीब किसान मुसलमान थे और जमींदार हिन्दू इसलिए हिन्दू मुसलमानों के झगड़े को साम्प्रदायिक न कह कर वर्गीय आधार पर देखा जाए। यह भ्रामक है।
बंगाल में हिन्दू मुसलमानों के बीच सामाजिक स्तर पर गहरा विभेद था और उन्नीसवीं शताब्दी के द्वितीयर्ध में (खासकर 1880 के बाद) यह सामाजिक धरातल पर बहुत स्पष्ट रूप से था। उस समय तक जो बंगाल के मुसलमानों के सुधार आन्दोलन हुए थे उसने मुसलमानों के बीच एक सामुदायिक भावना को मजबूत किया। उस समय उत्तर भारत के धार्मिक विद्वानों का बंगाल में आना जाना था और वे बंगाल के ग्रामीण मुसलमानों के बीच सामुदायिक पहचान को मजबूत कर रहे थे। सैयद अहमद की बातें भी अमीर अली जैसे लोगों के कारण बंगाल में पहुँच रही थीं।
बंगाल विभाजन के बाद एक नयी बात यह आ जुड़ी कि अब बंगाल के मुसलमानों के हित की बात करने के लिए मुस्लिम लीग आ गयी। यह साम्प्रदायिक राजनीति की शुरुआत थी। 1909 के साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिनिधित्व की बात मानने के बाद साम्प्रदायिक राजनीति के लिए जमीन पूरी तरह से तैयार हो गयी।
यहाँ से आगे खिलाफत तक के समय में हिन्दू और मुसलमान के बीच के अंतर रहे लेकिन कोई बड़ा मुसलमानों का संगठन नहीं था जो काँग्रेस के मुकाबले में आकर अलग से मुसलमान हितों की बात कर सके। मुसलमान हित राष्ट्रीय हित में समाया हुआ दिखता रहा, लेकिन वास्तविक स्थिति ऐसी थी नहीं।
राजनीतिक धरातल पर कुछ मुसलमान नेताओं ने चितरंजन दास के सानिध्य में राजनीति का ककहरा सीखा था। इस नए वातावरण में वे अपनी साख मुसलमानों के बीच बढ़ाने लगे। ऐसे ही एक नेता थे सुहरावर्दी। पहले से बंगाल में फजलूल हक एक बड़े नेता मुसलमानों में बड़ी हैसियत रखते थे।
बंगाल में मुसलमान नेताओं को सीधी सीधे मुसलमान नेता नहीं कहा जाता था। उनको किसान या मजदूर नेता के रूप में सम्मान दिया जाता था। नीचे के लोगों के लिए लेकिन वे अपनी कौम के ही नेता थे। यहाँ तक कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को भी बहुत सारे काँग्रेस के लोग साम्प्रदायिक नेता ही मानते थे जो जब भी असली समय आता था मुसलमान के पक्ष में ही खड़ा पाते थे। हिंदी के एक नामचीन लेखक और अनुवादक छविनाथ पाण्डेय ने अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग में बहुत कठोर टिप्पणियाँ की हैं। वे काँग्रेस से कैसे हिन्दू महासभा तक जा पहुंचे उसकी दिलचस्प कथा है।
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि बीस के दशक में बंगाल में राजनीति हिन्दू और मुसलमानों के बीच बंट चुकी थी और तीस के दशक में यह स्थिति हो गयी कि हिन्दू नेताओं को यह भय सताने लगा कि बंगाल की राजनीति मुसलमान नेताओं के हाथों में चली जाएगी। कितना चकित करने वाला यह प्रसंग है कि चालीस के दशक में हिन्दू दिग्गजों ने अँग्रेजी सरकार को एक प्रतिवेदन दिया था कि चूंकि हिन्दू अल्पसंख्यक हैं बंगाल में इसलिए उनके हितों की रक्षा करने का दायित्व सरकार के ऊपर है। इस आवेदन पर सबसे पहला हस्ताक्षर रवीन्द्रनाथ टैगोर का है!
फजलूल हक की कृषक प्रजा पार्टी बंगाल में शक्तिशाली हो गयी थी जिसके साथ मुसलमानों का जुड़ाव बहुत सघन था। फजलूल हक बंगाल के निर्विवाद रूप से सबसे बड़े मुसलमान नेता थे। उन्होने आशुतोष मुखर्जी के सहायक के रूप में वकालत की शुरुआत की थी लेकिन बाद में उनकी टक्कर उनके पुत्र श्यामाप्रसाद मुकर्जी से हुई। दोनों में से एक मुसलमानों का नेता था और दूसरा हिन्दू बंगाली का नेता!
पहले हक ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के सम्बन्ध में एक बिल लाकर इसपर हिन्दू प्रभाव को कम करने का प्रयास किया लेकिन उनको सफलता नहीं मिली थी। 1937 से लेकर 1943 तक वे बंगाल के प्रधानमन्त्री रहे। इसी दौरान उन्होंने पाकिस्तान प्रस्ताव 1940 में पेश किया। 1941 में वे वाइसराय के डिफेंस काउंसिल में जाने के प्रश्न पर जिन्ना के विरोध के कारण लीग के समर्थन से वंचित हुए और तब उन्होने हिन्दू महासभा के समर्थन से अपनी सरकार बनायी। ख्वाजा नज़ीमुद्दीन विपक्ष में लीग के नेता के रूप में रहे। 1943 में हक की सरकार गिरी और ख्वाजा नजीमुद्दीन की मुस्लिम लीग की सरकार बनी। वे कुछ दिनों बाद आलोकप्रिय हो गये और एक साल तक गवर्नर का शासन रहा। लीग तबतक मुसलमानों की पार्टी पूरी तरह से बन चुकी थी। 1946 के चुनाव में मुस्लिम लीग ने लगभग सभी मुसलिम सीटें जीती।
अधिकतर लोगों को इस दौर के बंगाल की राजनीतिक हालत के बारे में ठीक से नहीं बतलाया गया है। दरअसल तीस के दशक में मुसलमान नेताओं का दबदबा बंगाल में स्थापित हो चुका था। 1937 के चुनाव में ऊपरी तौर पर यह कहा जाता है कि सबसे बड़ी पार्टी के रूप में काँग्रेस उभरी। लेकिन तथ्य कुछ और ही बयां करते हैं।
सुहरावर्दी को बंगाल को पाकिस्तान में लाने का जिम्मा जिन्ना ने सौंपा। वे कलकत्ता के भीषण दंगे के समय हिन्दुओं में बहुत ही अलोकप्रिय हो गये। पर सुहरावर्दी ने शरत बोस के साथ मिलकर बंगाली राष्ट्रवाद के आधार पर अखण्ड बंगाल बनाने का प्रयास किया। इसे जिन्ना का भी समर्थन मिला। ऐसे में काँग्रेस और माउण्टबेटन ने इस प्रस्ताव को नहीं माना और बंगाल के हिन्दू नेताओं को भी यह समझ में आ गया कि इस प्रयास का असली उद्देशय पूरे बंगाल को बाद में पाकिस्तान में मिलाने का ही है। एक बड़ी सभा हुई जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने की। हिन्दु नेताओं ने श्यामा प्रसाद नेतृत्व के बंगाल विभाजन के सिद्धान्त को मान लिया और सरदार पटेल ने भी इसे पूरा समर्थन दे दिया। बंगाल दो हिस्सों में बाँट दिया गया। एक हिस्सा पश्चिम बंगाल (जो हिन्दू बंगाल था) और एक पूर्वी बंगाल (जो मुस्लिम बहुल बंगाल था) 1947 में इसी आधार पर बंटवारा हुआ।
बंगाल के बंगाली मुसलमान नेताओं के लिए भारत का विभाजन का अर्थ था कि वे अब भारत छोड़ कर दूसरी जगह जाएँ और वहाँ नए बंगाल (पाकिस्तानी बंगाल) का नेतृत्व करें। ये किसी भी हाल में बंगाल के किसी हिस्से को छोडना नहीं चाहते थे। विभाजन के बाद फजलुल हक जो शेरे बंगाल कहलाते थे कैसे पाँच बरस अटॉर्नी जनरल बन कर संतुष्ट रह सकते थे? वे रातों रात अपनी बनाई हुई पार्टी कृषक प्रजा पार्टी (1929-1946) को छोडकर मुस्लिम लीग के एक नेता के रूप में कैसे संतुष्ट रह सकते थे!वे मुस्लिम लीग से निकले और मौलाना भसानी के साथ मिल गये।
मौलाना भसानी कौन थे ?
मौलाना भसानी बहुत कम जाने जाते हैं। वे एक ही जन्म में खिलाफती, महान किसान नेता, वामपन्थी और भी कई रूपों में रहे हैं, लेकिन हर रूप में वे मौलाना ही रहे। यहाँ तक कि उनके वामपन्थी होने को उनके लाल मौलाना भी कहा गया। वे कट्टर खिलाफत के समर्थक थे। उसके बाद वे सुर्खियों में तब रहे जब सिल्हट को पाकिस्तान में मिलाने के लिए उन्होने मुसलमानों के बीच बहुत बड़ी भूमिका का पालन किया।
बँटवारे के बाद पूर्वी बंगाल का नाम ही चलता रहा। 1955 में इसे पाकिस्तान का हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान का नाम मिला। उसके पहले शायद यह लगता हो कि वे दोनों बंगाल को मिला लेंगे। लेकिन भाषा आन्दोलन के समय एक नया मुद्दा खड़ा हो गया। ढाका विश्वविद्यालय की सभा में जिन्ना ने एक भाषण दिया कि पाकिस्तान की भाषा उर्दू होगी। यह एक राजनीतिक वक्तव्य था। न तो उर्दू पश्चिमी पाकिस्तान की सबसे बड़ी भाषा थी (पंजाबी थी) और न ही बंगाल में थी (यहाँ बाँग्ला थी)। यह बात यहाँ कही जा सकती है कि जब इस बात को जिन्ना ने कहा तो सभा में तालियाँ बजी थीं! बाद में इस मुद्दे पर एक नयी राजनीति पूर्वी बंगाल में शुरू हुई और भाषा के इर्द गिर्द एक नयी राजनीति का जन्म मौलाना भसानी के नेतृत्व में हुआ। उन्होने अवामी मुस्लिम पार्टी बनाई। इस नयी पार्टी में वामपंथ, भाषाई पहचान, सेक्युलरिज़्म और लोकतान्त्रिक विचारों को प्रभावी ढंग से मिला दिया गया और इसने पूर्वी बंगाल में मुस्लिम लीग का सफाया कर दिया। इस नए गठबन्धन ने फजलूल हक मुस्लिम लीग को छोडकर इससे आ मिले और मुख्यमन्त्री बन गये। भसानी दिलचस्प व्यक्ति हैं जिसके सहारे पूर्वी बंगाल के राजनीतिक इतिहास के बहुत कम जाने गये हिस्सों को जाना जा सकता है। कई विद्वान यह मानते हैं कि 1969 का जो जन आन्दोलन हुआ उसी के कारण जनरल अय्यूब सरकार का पतन हुआ और बाँग्लादेश के बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ उस आन्दोलन के नेता 89 साल के भसानी ही थे। उनके कारण ही मुजीबुर रहमान रिहा हुए।
भासानी ने 1970 के पाकिस्तान के चुनाव का बहिष्कार किया और इसी कारण से मुजीबुर्रहमान को खुला मैदान मिल गया और वे 162 में से 160 सीटों पर जीत गये। राजनीतिक रूप से भसानी मुजीबुर्रहमान के विरोध में थे लेकिन उनके प्रति उनका बहुत स्नेह भी था। 1975 में उनकी हत्या से उन्हें बहुत धक्का लगा था। हत्या के पूर्व भसानी ने मुजीबुर्रहमान को जोरदार तरीके से देश में बढ़ते भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता को नियंत्रित करने की सलाह दी थी।
इन दोनों पर बात करने के साथ ही सुहरावर्दी पर भी विचार होना चाहिए। सुहरावर्दी को समझे बिना बंगाल की राजनीति के भीतरी सवालों को समझना असंभव है।जो सुहरावर्दी कलकत्ता के दंगों और नोआखाली के दंगों के दौर में हिन्दुओं के लिए एक विलेन ही था वही आज़ादी के बाद बंगाली राष्ट्रीयता का अग्रदूत भी था और गाँधी के आश्रम में आ आकर उनका आशीर्वाद भी पा रहा था!
दिलचस्प है कि सुहरावर्दी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत चित्तरंजन दास के विश्वस्त अनुचर के रूप में की थी। उनकी मजदूरों में लोकप्रियता एक जुझारू नेता की थी तो दूसरी ओर वे प्रजा कृषक पार्टी और मुस्लिम लीग के बीच की लड़ाई में सबसे बड़े बंगाल के नेता बन गये। जिन्ना से उनके मतभेद थे पर जिन्ना उनकी राजनीतिक ताकत को समझते थे। 1946 में उनको बंगाल का दायित्व देना इसका सबूत था। लेकिन बँटवारे के बाद जिन्ना ने बंगाल की बागडोर नजीमुद्दीन को सौंपी। बाद में सुहरावर्दी को पाकिस्तान का प्रधान मन्त्री का पद भी मिला लेकिन बंगाल को छोडने के बाद उनकी राजनीतिक हैसियत वह नहीं रही जो पहले थी। वे एक साल के करीब प्रधानमन्त्री बने थे लेकिन उसके बाद उनको हटना पड़ा। बाद में उनको कैद भी कर लिया गया। सुहरावर्दी के जीवन के बारे में इतिहासकारों की दिलचस्पी इतनी कम क्यों रही यह भी आश्चर्य की बात है। वे कम से कम दस वर्षों (चालीस के दशक के मध्य से पचास के दशक के मध्य तक) बंगाल की राजनीति के सबसे महत्त्वपूर्ण राजनेता थे। उस समय फजलूल हक जीवित थे और नजीमुद्दीन जैसे नेता भी थे लेकिन उनके प्रधानमंत्रित्व काल का इतिहास सबसे महत्त्वपूर्ण है। हालांकि उनका राजनीतिक जीवन बीस के दशक से ही महत्त्वपूर्ण रहा था लेकिन इस दशक में तो वे बंगाल के भाग्य के निर्धारक राजनीतिक व्यक्तित्व थे। सुहरावर्दी फजलूल हक के पीछे चलने वाले बंगाली मुसलमान राजनेता थे और उन्होने फजलूल हक की जगह ली। मुजीबुर्रहमान सुहरावर्दी के पीछे चल कर बड़े राजनेता बने थे और उन्होने सुहरावर्दी की जगह ली। इन सबके बीच में भसानी सबसे अधिक वामपन्थी थे। इतने वामपन्थी थे कि जब सुहरावर्दी ने अमरीका से साँठ-गाँठ बढ़ाई तो भसानी ने उनसे किनारा कर लिया। 1971 के समय भसानी ने चीन की सरकार से मदद की गुहार लगाई जिसे चीन के यथार्थवादी कम्युनिस्ट नेतृत्व ने अनसुना कर दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि बंगाल के इतिहास के सौ वर्षों में ऐसा बहुत कुछ छुपा हुआ है जिसे टटोलने पर ऐसा लगता है कि इसे अधिक ध्यान से लोगों के सामने रखा जाना चाहिए था। बगैर औपनिवेशिक काल में बंगाल की मुसलमानों की राजनीति को समझे बिना हम पूर्वी बंगाल और पूर्वी पाकिस्तान के राजनीतिक यथार्थ की सही समझ विकसित कर ही नहीं सकते। 1971 के बाँग्लादेश के जन्म के इतिहास को उस क्षेत्र के राजनीतिक इतिहास की शुरुआत मानने में कठिनाई है। अगर इस क्षेत्र के राजनीतिक इतिहास को समझना है तो पिछले सौ सालों के इतिहास में जाना ही पड़ेगा। तभी समझा जा सकेगा कि बंगाली राष्ट्रीयता में हिन्दू और मुसलमानों के बीच का असली समीकरण क्या है।