असम्पूर्ण ही रह गई ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’
‘क्रान्ति’ शब्द ध्यान में आते ही सर्वप्रथम आधुनिक काल की सबसे बड़ी क्रान्ति 1789 की फ्रांसीसी क्रान्ति भी ध्यान में आ जाती है जिसने न सिर्फ फ्रांस बल्कि पूरे विश्व में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तनों को सम्भव किया। पर,फ्रांसीसी क्रान्ति ने ‘क्रान्ति’ की अवधारणा और चरित्र को लेकर कई बड़े सबक भी दिये जो आज इक्कीसवीं सदी में भी हमारे सीखने के लिए प्रासंगिक हैं। फ्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत में रोबस्पियरे जैसे ईमानदार नेता ने कमान सँभाली जो एक ‘विज़न’ लेकर चला था, उसने उस काल के धार्मिक रूढ़ियों से ग्रस्त सामंती समाज के लिए ‘द कल्ट आफ सुप्रीम बीइंग’ (परमसत्ता की अवधारणा) जैसा विकल्प दिया पर ज्यों-ज्यों क्रान्ति आगे बढ़ी, तरह-तरह के परस्पर विरोधी हितों वाले समूहों ने हावी होना शुरू कर दिया और फ्रांसीसी क्रान्ति के इस महानायक को अंततः गिलोटीन पर चढ़ाकर मृत्युदंड दे दिया गया।
यही नहीं, शुरू में फ्रांसीसी क्रान्ति की कुछ प्रशंसा करनेवाला नेपोलियन इसी क्रान्ति का ‘चाइल्ड’ (बच्चा, उत्पाद) कहलाया क्योंकि उपजे हुए राजनीतिक शून्य में किसी भी राजवंश से सम्बन्ध न रखनेवाला नेपोलियन फ्रांस का ही नहीं, पूरे विश्व का ही उस दौर का सबसे ताकतवर ‘राजा’ बनकर उभरा, अपने से बड़ी एक राजवंशीय महिला से विवाह कर राजतंत्र के मानस में अब भी कैद दुनिया में अपनी स्वीकार्यता सुनिश्चित करते हुए। यानी, निकम्मे राजतंत्र के खिलाफ शुरू हुई उस ‘जनक्रान्ति’ ने अंततः एक राजवंश (बोरबन) के ध्वंसावशेषों पर दूसरा राजवंश खड़ा करने का काम किया जो नेपोलियन तृतीय की जर्मनी के हाथों पराजय के बाद विलुप्त हुआ। हाँ, इतना ज़रूर हुआ कि फ्रांसीसी क्रान्ति ने सामन्ती समाज की चूलें हिला दीं और वैश्विक स्तर पर कुछ ऐसे मुद्दे उठा दिये जिन्हें अब उपेक्षित कर पाना सम्भव नहीं रहा।
इस पृष्ठभूमि में हम अपनी उस ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के बारे में कुछ कहते हैं जिसने उन्नीस सौ सत्तर के दशक में उत्तर भारत के हजारों छात्रों को उद्वेलित किया था, व्यापक बदलाव की उम्मीदें जगाई थीं; और उन छात्रों में गोरखपुर में इंजीनियरिंग के द्वितीय वर्ष में अध्ययनरत इन पंक्तियों का लेखक भी था।
यह छात्रों का ही आन्दोलन था, तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था से असंतुष्ट छात्रों का। छात्र की अवस्था कम होती है, दुनिया की समझ अभी विकसित ही हो रही होती है; जयप्रकाश नारायण (जेपी) के रूप में उन्हें राह दिखाने वाला अनुभवी और ईमानदार नेता मिला जिसके राजनीतिक दामन पर कोई दाग नहीं था। पर, जेपी सक्रिय राजनीति से दशकों से कटे हुए थे, उन्होंने भूदान और सर्वोदय में ही अपनी ऊर्जा लगायी थी, जिसके परिणाम कोई खास संतोषजनक नहीं थे। अगर जयप्रकाश नारायण ने छात्रों के आक्रोश में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के बीज देखे तो छात्रों ने भी अपनी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के मामले में उनसे बहुत उम्मीद की।
जेपी की परिकल्पना में ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ एक आमूल-चूल परिवर्तन लाने वाली क्रान्ति थी; जातिवादी जकड़, हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार, रोजगार के अवसर में कमी जैसी परेशानियों से समाज को मुक्त कराने वाली।
क्या ऐसा हो पाया?
सबसे पहले तो यह समझें कि किसी भी क्रान्ति का चरित्र ही ऐसा होता है कि शामिल होते जा रहे हर व्यक्ति का ‘चरित्र प्रमाणपत्र’ देखकर ही शामिल कर पाना सम्भव नहीं होता। नतीजतन, तमाम तरह के महत्त्वाकांक्षी और अवसरवादी तत्त्वों के अलावा, ऐसी जनता भी इसमें शामिल होती जाती है जो ‘लुम्पेन एलीमेन्ट’ (निठल्ले किस्म के लोग) होती है। फ्रांसीसी क्रान्ति के उत्तरार्ध में भी सेन्ट जस्ट जैसे नेताओं के आते-आते वह क्रान्ति व्यक्तिगत हिसाब चुकानेवाले तत्त्वों से भर गई थी। काफी हद तक ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के बारे में भी यह कहा जा सकता है कि अपना व्यक्तिगत स्वार्थ साधने के लिए इससे जुड़े कुछ तत्त्व बाद में चलकर इसके वांछित मुकाम तक न पहुँच पाने के पीछे एक बड़ा कारण रहे, निष्ठावान और उद्देश्यों के प्रति समर्पित हजारों छात्रों की सारी मेहनत पर पानी फेरते हुए।
जेपी आदर्शवादी राजनीति के हिमायती थे पर राजनीति की त्रासदी यह है कि जमीनी स्तर पर अपने नेताओं से जनता, स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर की, जो अपेक्षाएं रखती है वह आदर्शवादी राजनीति मात्र से पूरी नहीं की जा सकती हैं। छात्र आंदोलन के चलते निरंकुशता को झटका तो लगा, कुछ शाश्वत मुद्दे तो केंद्र में आये पर अराजकता को रोकने के लिए एक चुनी हुई सरकार जरूरी है। एक पार्टी की सरकार उखाड़ फेंकने के बाद जो विपरीत विचारों और प्रवृत्तियों के नेताओं की कामचलाऊ जमावड़ा टाइप सरकार अस्तित्व में आई वह शुरू से ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त रही।
जनता सोचती रही कि कि ये तो उसके सपनों को साकार करने वाली सरकार है और सरकार की अंदरूनी स्थिति यह रही कि हितों के टकराव के चलते सामान्य मुद्दों पर भी आपसी सहमति नहीं बनती रही। मोरारजी देसाई ने प्रधानमंत्री बनकर अपनी दशकों से दबी हुई महत्वाकांक्षा तो पूरी कर ली पर वे भूल गये कि वे एक जमावड़े की सरकार चला रहे हैं जिसमें उनके कई प्रभावशाली मंत्री उनसे कई गुना ज्यादा जन-समर्थन रखते हैं। मोरारजी देसाई और चरण सिंह दोनों ही बेहद पढ़े-लिखे और प्रबुद्ध इन्सान थे पर अपनी महत्वाकांक्षाओं के टकराव में वे दोनों यह भूल गये कि सम्पूर्ण क्रान्ति के आह्वान पर जेपी के निस्वार्थ योगदान तथा छात्रों के आक्रोश पर ही सवार होकर उन्हें सत्ता मिली है। सत्ता किस कदर पतन करवाती है इसका उदाहरण था मंत्री राजनारायण का पिछले दरवाज़े से (अब जग-जाहिर) कांग्रेस के नेताओं के घर में घुसकर अपनी ही सरकार के खिलाफ मदद माँगना। कांग्रेस के घुटे हुए नेता यह मंजर देख रहे थे और धैर्य से मौका ताड़ रहे थे। अंततः अगले चुनाव में उस कामचलाऊ जमावड़े के परखच्चे उड़ गए और वही नेता कई गुना दम के साथ सत्ता पर काबिज हो गये जिन्हें सत्त्ता से च्युत करने के लिए ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ उत्प्रेरक बनी थी। मेरे विचार में यह थी ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की राजनीतिक असफलता।
‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का एक प्रमुख उद्देश्य था जाति की जकड़ से समाज को मुक्त करना। यह एक भयावह सामाजिक-राजनीतिक त्रासदी है कि इस आन्दोलन की बदौलत राजनीति में आये और फले-फूले कुछ राजनेता जातिवादी राजनीति के ‘प्रतिमान’ उदाहरण बन गये। सबका उत्थान घोषणापत्र और नारों तक सीमित रह गया, जाति विशेष का वोट थोक में साधने के लिए वे जाति पर ही केंद्रित रहे। जिनके परिवार में एक बीघा जमीन तक नहीं थी वे महानगरों में इतनी संपत्तियाँ खरीद कर बैठ गए जितनी खानदानी और बड़े से बड़े भूमिधर भी नहीं खरीद सकते थे। ‘समाजवादी’ मुखौटे के पीछे छिपे विकट जातिवादी नेताओं का उभार और लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज हो जाना, निश्चय ही, ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ आन्दोलन का एक बेहद दुर्भाग्यपूर्ण ‘बाई प्रॉडक्ट’ था। इन पंक्तियों के लेखक ने उत्तर प्रदेश के अपने छात्र जीवन में वह दौर देखा है जब ‘समाजवादी युवजन सभा’ का छात्रसंघों में बोलबाला हुआ करता था। समाजवादियों की राजनीतिक त्रासदी यह रही है कि उन्हें सत्ता को उखाड़ फेंकना तो रुचता था पर सत्ता में आते ही वे सरकार चलाने के लिए वांछित बुनियादी बातों को भी नजरअंदाज करते जाते थे।। ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की बदौलत काबिज हुई जनता पार्टी की सरकार में भी कई ऐसे ‘समाजवादी’ थे जो अंततः उसके टूट जाने के उत्प्रेरक बने।
‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ की आधी शताब्दी बीत जाने के बाद आज हम इक्कीसवीं सदी के ‘नये भारत’ में हैं, बेहतर हो चली आर्थिक स्थिति और बढ़ती जा रही आकांक्षाओं वाला ‘नया भारत’। नये भारत में ‘जाति’ सामाजिक से लेकर राजनीतिक परिदृश्य में अपनी पूरी नकारात्मकता के साथ बरकरार है। जहाँ तक भ्रष्टाचार का सवाल है, उस मुद्दे पर लोग चौंकना भी बंद कर चुके हैं- इसकी व्याप्ति और और निरन्तरता के प्रमाण दर प्रमाण देखकर। ‘नये भारत’ का नवीनतम समाचार यह है कि बिहार से ही अलग होकर बने झारखण्ड प्रदेश के एक मंत्री के पी ए के नौकर के घर से तीस करोड़ रुपये से ज्यादा की नकदी बरामद हुई है। आज एक बच्चा भी बता सकता है कि यह कैसा पैसा है और किसका पैसा है। यह उसी धरती पर हो रहा है जहाँ सम्पूर्ण क्रान्ति का बिगुल बजा था।
कोई भी क्रान्ति पूरी तरह असफल नहीं कही जा सकती, न फ्रांसीसी क्रान्ति और न ही ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’। कम से कम फ्रांसीसी क्रान्ति ने सामन्तवादी समाज की चूलें हिलाकर आगे हुए राजनीतिक-सामाजिक बदलावों के लिए उत्प्रेरक का काम किया और सम्पूर्ण क्रान्ति के आह्वान के चलते ऐसे कई मुद्दे प्रकाश में आये जिनके बारे में पहले कम ही लोग गम्भीरता से सोचा करते थे। पर, सम्पूर्ण क्रान्ति अपने उद्देश्यों में संतोषजनक रूप से सफल हो गई होती तो आज इस देश का चेहरा ही कुछ और होता। यही अफसोस, आधी शताब्दी बीत जाने के बाद, कचोट रहा है कि असम्पूर्ण ही रह गई ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’!