जॉकिन अर्पुथम : झोपड़पट्टियों का सम्राट
आजाद भारत के असली सितारे – 54
प्रवीन शेख मुंबई के पूर्वी छोर पर सेवारी में प्लास्टिक और बोरों के टुकड़ो से बने छत वाले घरौंदेनुमा कमरे में फुटपाथ पर पैदा हुईं थीं। सड़क के दूसरे फुटपाथ पर रहने वाले लड़के से उनकी शादी हुई। वह अमूमन मजाक में कहा करती थीं कि, “पूरब फुटपाथ पर जन्म लिया और पश्चिम फुटपाथ पर ब्याही गई।” जब उनकी पहली संतान एक महीने की भी नही हुई थी तभी फुटपाथ पर बना प्लॉस्टिक और बोरियों के टुकड़ों से बना उनका आशियाना उजाड़ने के लिए शहर से बुलडोजर आ गया, सड़क चौड़ी जो होनी थी। उनके अनुसार, “हमारा आशियाना अभी उजड़ना शुरू ही हुआ था कि ‘जॉकिन सर’ के आदमी कोर्ट से स्टे आर्डर लेकर आ गए।”
इसी तरह कान्ता नाम की एक दूसरी महिला, जो ‘महिला मिलन’ तथा ‘सोसाइटी फॉर द प्रमोशन ऑफ एरिया रिसोर्स सेंटर’ (एसपीएआरसी) से जुड़ी हैं, कहती हैं कि “बाथरूम और पानी की कमी के कारण हम कई दिन तक स्नान नहीं कर पाते थे, हमारे शरीर से दुर्गंध आती थी, हमारे बाल उलझे रहते थे, कोई हमारे पास नहीं आता था, लेकिन जॉकिन सर हमारे साथ बैठते थे और साथ में खाना भी खाते थे।”
कान्ता के माता पिता इनके जन्म से पहले ही बिहार से यहाँ रोजी-रोटी की तलाश में आ गए। वे कहती हैं कि यदि गाँव में काम मिलता और रोटी चल सकती तो वे यहाँ क्यों आते ? झुग्गियों में रहने वाले सभी लोग तो बाहर से ही आए हैं।
मुंबई के धारावी सहित विभिन्न झुग्गियों तथा फुटपाथों पर रहने वाले लाखों लोग जॉकिन अर्पुथम (15.08.1947- 13.10.2018) को ‘जॉकिन सर’ कहकर ही संबोधित करते हैं। जॉकिन अर्पुथम नेशनल स्लम ड्वेलर्स फेडरेशन (एनएसडीएफ) के संस्थापक और स्लम ड्वेलर्स इंटरनेशनल (एसडीआई) के अध्यक्ष हैं। उन्होंने भारत ही नहीं, दुनिया भर की झुग्गियों और फुटपाथों पर रहने वालों के भीतर अपने अधिकारों के लिये लड़ने की चेतना जगाई है, उन्होंने उनकी जरूरतों के अनुसार आपस के सहयोग से अनेक संगठन निर्मित किए हैं और इस तरह उनके जीवन स्तर को उन्नत बनाने में अप्रतिम योगदान दिया है।
जॉकिन अर्पुथम कहा करते थे कि धारावी झुग्गी में रहने पर उन्हें गर्व है। अपने जीवन का अधिकांश हिस्सा उन्होंने झुग्गियों में ही बिताया। उनके अनुसार अपर क्लास के लोग सोचते हैं कि झुग्गियों में रहने वाले लोग कामचोर और अपराधी प्रवृति के होते हैं जो शहर के संसाधनों का दोहन करते हैं। यह बिलकुल उल्टी बात है। जॉकिन अर्पुथम के अनुसार, “हम शहर के संसाधनों का दोहन नहीं करते हैं, हम बिजली, पानी, सार्वजनिक परिवहन आदि का सबसे कम इस्तेमाल करते हैं। सच तो यह है कि हम ही शहर के मानव संसाधन हैं। हम सबके लिए घर बनाते हैं, उनके घरों को साफ करते हैं। सबको भोजन पहुँचाते हैं और सबके कपड़े धोते हैं। हमारे बगैर शहर के मध्य वर्ग का काम एक दिन भी नहीं चल सकता। जबकि हम सभी गृहविहीन लोग हैं। हमें 60 प्रतिशत की जरूरत है और मात्र 6 प्रतिशत हिस्से में रह रहे हैं। झुग्गियों में रहने वाले हमारे लोग अपनी पत्नियों के साथ फुटपाथ पर सोने को विवश हैं। उनपर आने-जाने वाले कारों की रोशनी पड़ती रहती है। उनकी प्राइवेसी का कोई अर्थ नहीं है, मानो वे मनुष्य ही नहीं हैं। अपर क्लास के लोग अपनी अनुपयुक्त योजनाओं का दोष हम झुग्गियों में रहने वालों पर थोपते हैं।”
जॉकिन अर्पुथम का जन्म बैंगलौर के समीप कोलार गोल्ड फील्ड में हुआ था। वे अपने माता-पिता की आठवीं संतान थे। उनके माता-पिता कैथोलिक विचारधारा को मानने वाले थे। जिस समय जॉकिन का जन्म हुआ उनके पिता कोलार गोल्ड फील्ड में फोरमैन के पद पर कार्यरत थे। वे वहाँ की पंचायत के भी प्रेसिडेंट थे और काफी प्रतिष्ठित थे। उनका राजनैतिक प्रभाव भी था। इंडियन कैथोलिक के पादरियों द्वारा संचालित कोलार गोल्ड फील्ड स्कूल में भी जॉकिन का बड़ा रुतबा था। स्कूल जाते समय उनके स्कूल का बैग, पानी का बोतल आदि लेकर नौकर उन्हें पहुँचाने जाते थे। यद्यपि स्कूल उनके घर के समीप ही था। जॉकिन की शिक्षा अभी सातवीं कक्षा तक ही हुई थी कि भाग्य ने पलटा खाया और जॉकिन के पिता अचानक जमीन पर आ गए।
जॉकिन के पिता की जमीन दूसरों के पास लीज पर थी। शराबखोरी तथा ताकत के नशे में चूर जॉकिन के पिता के साथ लोगों ने धोखा किया और उनकी सारी सम्पत्ति उनके हाथ से निकल गई। जॉकिन के पिता बदहाल हो गए। उनके लिए परिवार का पालन-पोषण कठिन हो गया। जॉकिन के मन में भी अपने पिता की बुरी आदतों और गलत निर्णयों के कारण आक्रोश था। जॉकिन का खुद भी कैथोलिक मान्यताओं में अधिक विश्वास नहीं था। ऐसी दशा में उन्होंने घर से दस रुपए चुराए और बिना टिकट गाड़ी में बैठकर बंगलौर चले गए। उस समय उनकी उम्र सोलह वर्ष की थी और वे कक्षा सात में पढ़ रहे थे।
बंगलौर में जॉकिन के मामा का घर था। जॉकिन ने उनके यहाँ शरण ली। जॉकिन के मामा का फर्नीचर के निर्माण का कारोबार था। जॉकिन भी उनके यहाँ बढ़ईगिरी का काम करने लगे। जॉकिन को उनके यहाँ अपेक्षित मजदूरी नहीं मिलती थी। कुछ दूसरे कारणों से भी जॉकिन ने अपने मामा का घर भी छोड़ दिया। कुछ दिन तक उन्होंने शहर में दूसरों के यहाँ काम किय़ा किन्तु दो साल बीतते-बीतते उन्होंने बंगलौर शहर छोड़ दिया और 1963 में मुंबई चले गए। मुंबई पहुँचकर मनखुर्द जनता कॉलोनी में उन्होंने डेरा जमाया। यह एक अवैध झुग्गी बस्ती थी जिसमें लगभग 70,000 लोग रहते थे। इसके समीप स्थित भाभा एनर्जी रिसर्च सेंटर में नए रिएक्टर पर काम हो रहा था। आरंभ में उन्होंने सफाई कर्मी के रूप में काम किया, बाद में कूड़े की सफाई के लिए एक कंपनी बना ली और श्रमिकों को जोड़ लिया। इससे स्लम में रहने वालों के बीच जॉकिन की जान पहचान बढ़ गई। वे अपनी कॉलोनी के बच्चों के लिए अमूमन मिठाइयाँ व दूसरी खाने-पीने की चीजें ले आते थे और इस तरह बच्चों में भी बहुत लोकप्रिय हो गए। बच्चों से उन्होंने समवेत रूप से गीत गाने को कहा। बच्चे गाने लगे। इस तरह वहाँ गीत-संगीत के कार्यक्रम नियमित रूप से होने लगे। इन लड़कों के साथ मिलकर उन्होंने एक बैण्ड पार्टी भी बनाई, जिसमें ढपली के अलावा डालडे के डिब्बों आदि को वाद्य-यंत्रों के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। इस तरह ये लोग गा-बजा कर कुछ कमाई भी कर लेते थे।
जॉकिन रात में समय बचाकर स्लम के अनपढ़ बच्चों को पढ़ाने भी लगे। धीरे-धीरे शिक्षण के इस काम में उन्हें दूसरे लोग भी साथ देने लगे। झुग्गी-वासियों ने इस काम में उनका भरपूर साथ दिया। इस तरह जॉकिन का जनाधार बढ़ता गया, बहुत से लोग उन्हें जानने और उनसे घुलने-मिलने लगे।
मनखुर्द जनता कॉलोनी बहुत ही उपेक्षित और गन्दी बस्ती थी। उस क्षेत्र की सफाई की ओर किसी का ध्यान नहीं था। गंदगी के कारण यहाँ मच्छरों का भयंकर प्रकोप होता था। किन्तु वहाँ के लोगों में इस विषय को लेकर कोई जागरुकता नहीं थी। वे ऐसे ही वातावरण में रहने के अभ्यस्त थे। जॉकिन को यह सब देखा नहीं गया। उन्होंने एक दिन स्लम के बच्चों को एकत्रित किया और 3000 बच्चों को लेकर अपनी कॉलोनी की सफाई की, सारा कूड़ा- कचरा इकट्ठा किया और उसे एक जूलूस के साथ ले जाकर कार्यालय खुलने से पहले ही मुंबई म्युनिसिपल कारपोरेशन के भवन के सामने जमा कर दिया। बाद में कॉरपोरेशन के लोग पुलिस के साथ जॉकिन को पकड़ने लिए आए। जॉकिन अपने साथी लड़कों के साथ उनकी राह देख रहे थे। उन्होंने अपनी बस्ती की गंदगी का हवाला दिया और क़ॉरपोरेशन की जिम्मेदारी की भी याद दिलाई। उन्होंने यह भी कहा कि वे लोग स्वयं अपनी कॉलोनी की सफाई कर लेंगे किन्तु कचरा उठाने की जिम्मेदारी कॉरपोरेशन को लेनी होगी। जॉकिन के हठ के आगे मुंबई म्युनिसिपल कॉरपोरेशन को झुकना पड़ा। जॉकिन के लिए यह पहली बड़ी सफलता थी जिससे उन्हें संगठन की शक्ति का अहसास हुआ। अब उनके मन में अपनी बस्ती को सुधारने और उसे रहने लायक बनाने के लिए बड़ी-बड़ी संकल्पनाएं उमड़ने लगीं।
वर्ष 1969 में जॉकिन ने मुंबई में एसडीएफ (स्लम ड्वैलर्स फेडरेशन) का गठन किया और यह निर्णय लिया कि वे इस संस्था के रजिस्ट्रेशन वगैरह के झंझट में नहीं पड़ेंगे, बस सिर्फ काम करेंगे। 1974 में यह संगठन विकसित होकर एनएसडीएफ (नेशनल स्लम ड्वैलर्स फेडरेशन) हो गया।
जॉकिन के इस अभियान में 1970 में तब एक महत्त्वपूर्ण मोड़ आया, जब भाभा एटमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) के विस्तार के लिए मनखुर्द जनता कॉलोनी को उजाड़ने की नोटिस मिली। स्वाभाविक रूप से जॉकिन ने इसका विरोध किया। उन्होंने “नो एविक्सन विदाउट ऑल्टरनेटिव” का नारा दिया। इस लड़ाई में धीरे-धीरे उनके साथ मुंबई की सभी झुग्गी बस्तियों के लोग आ गए। इस आन्दोलन को वे 1975 में दिल्ली तक ले गए। वहाँ उन्होंने विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं से मिलकर समर्थन लेने की कोशिश की। उन्होंने संसद भवन के सामने 18 दिन तक धरना दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी उनकी बातें सुनने को विवश हुईं। उन्होंने कॉलोनी खाली न करने का आश्वासन भी दिया। लेकिन मुंबई लौटने के बाद 17 मई 1976 को जॉकिन गिरफ्तार कर लिए गए। इसी दिन 12000 पुलिस की फौज ने झुग्गियों में घुसकर एक ही रात में सभी 70,000 लोगों को उजाड़ दिया और वहाँ से चार किलोमीटर दूर उन्हें चीता कैंप स्लम में भेज दिया। मनखुर्द जनता क़ॉलोनी की उस खाली की हुई भूमि पर बीएआरसी के 3000 कर्मचारियों के लिए आवास बनाए गए।
जॉकिन ने अब आन्दोलन की अपनी रणनीति बदल दी। उन्होंने शहरी गुरिल्ला शैली अपनाई। वे कोर्ट से स्टे आर्डर ले आते थे और उसे वे पुलिस को अन्तिम समय में दिखाते थे ताकि पुलिस और अधिकारियों के सामने अधिक से अधिक असुविधाएं उपस्थित की जा सकें। उन्हें परेशान करने के लिए वे मैली कुचैली महिलाओं को समूहों में वार्ता के लिए भेजते थे जिनसे जितनी जल्दी हो अधिकारी छुटकारा पा लेना चाहते थे। उनके साथ की महिलाएं पुलिस को चकमा देकर कुछ ही देर में शहर को जाम कर सकती थीं। वे कहा करते थे कि, “मैं बाम्बे शहर को ठप कर सकता हूँ किन्तु मैं हिंसा नहीं चाहता। लेकिन मैंने जनता को समझा दिया कि उपद्रव कैसे किया जाता है।”
मनखुर्द जनता कालोनी के निवासियों के आन्दोलन का प्रभाव भारत के बाहर तक जा पहुँचा। लोग शहरों की प्लानिंग के समय झुग्गियों में रहने वालों का खास ख्याल रखने लगे। 1975 में जॉकिन ने एनएसडीएफ (नेशनल स्लम ड्वेलर्स फेडरेशन) के माध्यम से झुग्गियों तथा फुटपाथों पर रहने वालों के अधिकारों की लड़ाई को विस्तार दिया। इसका व्यापक असर हुआ। अस्सी के दशक में सरकार की नीति में परिवर्तन हुआ। अब शहरों के विकास और प्लानिंग के समय झुग्गियों में शौचालय, पानी और बिजली का प्रावधान जरूरी हो गया। झुग्गियों को हटाने से पहले उनके लिए आवास की सुविधा उपलब्ध कराना भी जरूरी हो गया। एसपीएआरसी जैसे संगठन, शहरों में स्लम तथा फुटपाथों पर रहने वालों का सर्वे कराने लगे। उनकी गरीबी और उनकी जरूरतों का आकलन होने लगा। यह देखा जाने लगा कि झुग्गियों, फुटपाथों, रेलवे लाइनों के किनारे कितने लोग कितने दिनों से रह रहे हैं और उनके पुनर्वास के लिए क्या-क्या बुनियादी जरूरतें हैं।
आपात काल के दौरान गिरफ्तारी से बचने के लिए जॉकिन को देश छोड़ना पड़ा था। वे वर्ल्ड काउंसिल ऑफ चर्च की मदद से 1977 में फिलीपींस चले गए। वहाँ भी मनीला में उन्होंने स्लम प्रबन्धन की ट्रेनिंग ली। उन्होंने फिलीपींस इक्यूमीनिकल काउंसिल फॉर कम्युनिटी आर्गेनाइजेशन से भी जानकारी हासिल की। वहाँ उन्हें हर तीन महीने में वीजा का नवीनीकरण कराना पड़ता था जिसके लिए उन्हें वह देश छोड़ना पड़ता था। इसी क्रम में वे जापान, मलेशिया और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में भी गए।
भारत लौटने के बाद 1980 के दशक में जॉकिन के स्लम सुधार कार्यक्रम का और विस्तार हुआ और एनएसडीएफ की साझेदारी ‘सोसायटी फॉर द प्रोमोशन ऑफ एरिया रिसोर्स सेंटर (एसपीएआरसी) तथा ‘महिला मिलन’ जैसी संस्थाओं से हुई। इन्हीं दिनों एनएसडीएफ के साथ दूसरे अनेक गैरसरकारी संगठनों से संबंध जुड़े जिससे जॉकिन की शक्ति में विस्तार हुआ और उनका आत्मविश्वास भी बढ़ा।
1995 में जॉकिन ने एसडीआई (स्लम ड्वेलर्स इंटरनेशनल) की स्थापना की और वे इसके प्रेसीडेंट बने। इस संगठन के माध्यम से एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन देशों की शहरी गरीब आबादी एक साथ जुड़ गई और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगी। आज दुनिया के 33 देशों में झुग्गियों में रहने वाली 90 प्रतिशत आबादी एसडीआई से जुड़ी हुई है।
1973 में, सत्ताईस वर्ष की उम्र में जॉकिन का विवाह हुआ था। उनका वैवाहिक जीवन उनके लिए सार्वजनिक जिम्मेदारी के बाद ही अपना स्थान रखता था। उनकी पत्नी नाताल डी सूजा ने आजीवन उनका साथ दिया। एक बार तो उन्हें जॉकिन के काम के लिए अपनी साड़ी भी बेचनी पड़ी थी। जॉकिन ने स्वयं अपना टाइपराइटर उन्हीं दिनों गिरवी रखा था। इसके बावजूद वे कभी किसी के सामने झुके नहीं और न लालच में पड़े। सुविधा उपलब्ध होने के बावजूद वे स्लम में ही रहे। उनके सामने राजनीति में उतरने का प्रस्ताव भी आया जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। हाँ एक बार जरूर उनका आत्मविश्वास डिग गया था जब मुंबई मामले के पहले उन्होंने बंगलौर में आत्महत्या करने की असफल कोशिश की थी।
जॉकिन अर्पुथम को 60 से अधिक बार गिरफ्तार किया गया किन्तु ज्यादातर वह कागजी कार्यवाही के रूप में ही हुआ। पुलिस दूसरे आन्दोलनों से बचने के लिए आदेश का अनुपालन करके काम चला लेना चाहती थी।
जॉकिन ने मुंबई में पुलिस के साथ मिलकर कई बस्तियों में “पुलिस पंचायत” स्थापित करने का भी काम किया। पुणे के पूर्व पुलिस कमिश्नर अनामि नारायण रॉय ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई थी।
स्लम ड्वैलर्स इंटरनेशनल के अनुसार दूसरे संगठनों से जुड़कर उनके संगठन ने 15,000 झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले दस लाख से अधिक लोगों की मदद की। उन्होंने 128,000 परिवारों के लिए भूमि अधिकार हासिल किया, 20,000 से अधिक शौचालय और 100,000 घर बनाए। नेशनल स्लम ड्वैलर्स फेडरेशन के अनुसार उनके प्रयास से अकेले मुंबई में 60,000 से अधिक परिवारों के जीवन स्तर में सुधार हुआ।
जॉकिन ने एक लम्बा संघर्षमय जीवन जिया। उन्होंने लगभग 40 साल तक बिना थके लगातार काम किया। उनके प्रयास से भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के झुग्गियों और फुटपाथों पर रहने वालों के जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार आया। उन्होंने अपने संगठन के माध्यम से दुनिया भर के स्लमों में रहने वालों को एक साथ जोड़ दिया और इस क्षेत्र में सारी दुनिया के लोगों का ध्यान आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने लोगों में स्वयं काम करने की प्रवृत्ति जगायी।
वर्ष 2000 में जॉकिन अर्पुथम को रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें और भी बहुत से पुरस्कार और सम्मान मिले। उन्होंने पुरस्कार में प्राप्त अपना सारा धन झुग्गियों में रहने वालों के कल्याण के लिय़े समर्पित अपने संगठन को दान दे दिया। प्रवीण कहती हैं कि उनकी आखों में हमेशा सपने तैरते रहते थे। लगता था कि वे सोते ही नहीं है। उन्हें बार-बार आराम करने के लिए कहना पड़ता था। जॉकिन अर्पुथम को 2014 में नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था।
13 अक्टूबर 2018 को जॉकिन अर्पुथम का निधन हुआ। धारावी, जहाँ वे रहते थे, उन्हें ‘स्लम किंग’ के रूप में स्मरण करते हुए बड़े-बड़े पोस्टर लगाकर लोगों ने उन्हें याद किया।
आज आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए हमें स्वतन्त्रता दिवस के दिन ही जन्म लेने वाले जॉकिन अर्पुथम् शिद्दत से याद आ रहे हैं जिन्होंने भारत ही नहीं, दुनिया भर के फुटपाथों पर रहने वाले करोड़ों लोगों को सच्ची आजादी का अहसास कराया।