डॉ. अम्बेडकर का संघर्ष: स्वप्न और यथार्थ
(1) ‘‘सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं और उन्हें एक अधिकार भी है कि अपने साथ अच्छे व्यवहार की माँग करें।’’
(2) ‘‘जाति संस्था केवल श्रम विभाजन नहीं हैं। वह श्रमिकों का भी विभाजन है। केवल श्रमिकों का भी विभाजन करके ही वह रुकती नहीं अपितु श्रमिकों के एक-एक समूह को वह नीचे से ऊपर की ओर एक दूसरे पर रखती जाती है और सबसे भयंकर बात यह है कि यह क्रमबद्धता जन्म के आधार पर हमेशा के लिए चिपका दी जाती है। विश्व के किसी भी देश में श्रम विभाजन को श्रमिकों के सामाजिक स्तर के साथ चिपकाया नहीं गया है।’’
(3) “मेरा सामाजिक दर्शन केवल तीन शब्दों में रखा जा सकता है। वे शब्द हैं – स्वतन्त्रता, समता और बन्धुभाव। मैंने इस दर्शन को फ्रेंच की राज्य-क्रांति से उधार नहीं लिया है। मेरे दर्शन की जड़ें धर्म में हैं, राजनीति में नहीं। मेरे गुरु बुद्ध के व्यक्तित्व और कृतित्व से मुझे ये तीन मूल्य मिले हैं।’’
ये तीनों उद्धरण डॉ. अम्बेडकर की विचार सम्पदा के अत्यंत ज़रूरी हिस्से हैं। अम्बेडकर अपने आपको प्रमाणित और पुष्ट करने के लिये ज्ञान की और अनुभव की विभिन्न विरोधी सरणियों तक जाते हैं और वहाँ से महत्वपूर्ण तथ्यों की खोजबीन करते हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व बहुआयामी और व्यापकता से युक्त है। डॉ. अम्बेडकर जैसे विचारशील, दूरदर्शी, मर्मज्ञ, चिंतक और महान व्यक्तित्व का प्रभाव धीरे-धीरे समाज में बढ़ रहा है, क्योंकि वे बहुत गहरी पड़ताल और छानबीन करते हैं। उनकी वैचारिकी ने भारत में धीरे-धीरे ही सही लेकिन एक व्यवस्थित एवं क्रांतिकारी परिवर्तन क्रमबद्ध और सुव्यवस्थित किया है। उनके अनुभव ठोस और सटीक हैं। कौन कह सकता है कि 14 अप्रैल 1891 को आज के मध्यप्रदेश के महू में जन्में डॉ. अम्बेडकर ने अपमान और तिरस्कार को झेलते हुये अपना संघर्ष जारी रखा।
उनका व्यक्तित्व जितना प्रभावी है उनका कृतित्व महत्वपूर्ण, मोहक, दूरगामी और विचारोत्तेजक है। डॉ. अम्बेडकर की विचार यात्रा और सृजनात्मकता के साक्ष्य के रूप में उनके द्वारा लिखित अनेक पुस्तकें हैं मसलन- द एवोलुशन ऑफ प्रोविंशियल फायनेंस इन ब्रिटिश इण्डिया (1916), द कास्ट्स इन इण्डिया, देयर मैकेनिज़्म, जनेसिस एण्ड डेवलपमेण्ट (1917), एनिहिलेशन ऑफ कास्ट्स (1937) थाट्स ऑन पाकिस्तान (1940), पाकिस्तान आर दि पार्टीशन ऑफ इण्डिया (1945), मि. गांधी एण्ड दि एमेन्सिपेशन ऑफ अनटचेबल्स (1943), रान डे, गांधी और जिन्ना (1943), कम्युनल डेड लॉक एण्ड ए वे टु साल्व इट (1946), हू वेयर दि शूद्राज (1946), स्टेट्स एण्ड माइनरिटीज (1947), दि अनटचेबल्स (1948), महाराष्ट्र एज ए लिंग्विस्टिक स्टेट (1948), दि राइज एण्ड फॉल ऑफ दि हिन्दू वूमेन (1951), बुद्धिज़्म एण्ड कम्युनिज़्म (1956), द थाट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स बुद्ध एण्ड हिज धम्म (1957)।
जाहिर है कि डॉ. अम्बेडकर की सर्जनात्मकता के अनेक रूप हैं। उनका लेखन अपमान, तिरस्कार, उत्पीड़न, दलन और हिकारत की अन्तहीन पीड़ा की दहकती हुई ज्वाला की तरह है। उनके समग्र लेखन में उनके स्वप्न भी हैं और उनका यथार्थ भी। एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा भी था – “मैं पढ़-लिखकर वकील बनूंगा नया क़ानून बनाऊँगा और छुआछूत को ख़त्म करूँगा।” उन्होंने अपने कहे हुए को एक प्रतिज्ञा की तरह निभाया भी।
यूँ तो अम्बेडकर ने अपने जीवनकाल में अनेक ऐसे कार्य किये हैं जिनको हमेशा याद किया जाता है। जैसे- 1920 में अम्बेडकर ने एक मराठी साप्ताहिक निकाला ’मूक नायक’ अर्थात् गूंगे लोग जिसमें बेजुबान लोगों के लिये नई जुबान देने के प्रयत्न शामिल हैं। उन्होंने ’बहिष्कृत भारत’ नामक एक और अख़बार निकाला। कालान्तर में लोकप्रिय पत्र ’जनता’ निकाला। ये सभी अख़बार भारत के लोगों को वाणी देने के साथ ही उनकी जीवन स्थितियों में क्रांतिकारी परिवर्तन के आधार के रूप में चिन्हित होते हैं। उन्होंने अपने चिंतन में मानवीय मूल्यों की पक्षधरता की ही उद्घोषणा की है। उनका चिंतन, दलितों, शोषितों, वंचितों और पीड़ितों के भीतर विद्रोह और क्रांति की उस चिनगारी का नाम है, जिसने ’जाति’ के जहर को पहचाना।
डॉ. अम्बेडकर का मानना है कि ’’जाति की समस्या सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप से एक विकराल समस्या है। यह समस्या जितनी व्यावहारिक रूप से उलझी है, उतना ही इसका सैद्धान्तिक पक्ष इन्द्रजाल है। यह ऐसी व्यवस्था है, जिसके फलितार्थ गहन हैं। होने को तो यह एक स्थानीय समस्या है लेकिन इसके परिणाम विकराल हैं।’’ (अम्बेडकर संचयन -भाग- 1) डॉ. अम्बेडकर भारत में जातिप्रथा के संदर्भ में अनेक कोणों से विचार करते हैं। “यह प्रथा अपनी पूरी दृढ़ता के साथ केवल एक जाति अर्थात् ब्राहमणों में प्रचलित है, जो हिन्दू समाज की संरचना में सर्वोच्च स्थान पर हैं और ग़ैर ब्राहमण जातियों ने इसका केवल अनुसरण किया, जहाँ इसके पालन में न तो उतनी दृढ़ता है और न सम्पूर्णता।” (वही – पृष्ठ- 158)।
हमारे देश में जातिबद्धता की समस्या बहुत बड़ी है। निश्चय ही वह भयावह और जानलेवा समस्या है। मेरे कुछ मित्र हैं जो बहुत कठिनाइयों से बहुत छोटे से दायरे से और जातियों के अजायबघर से आए हैं। अपने जीवन में अनेक ने संघर्ष किए हैं। उन्होंने अपनी अदम्य जिजीविषा से घर बहुत बड़े और सुविधाजनक बनाये लेकिन वे आज भी समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं है। जाति का दंश उन्हें हमेशा डसता है, हमेशा सताता है। प्रायः उनके यहाँ कोई नहीं आता। यह आज के दौर की ज़िंदा हक़ीक़त है और जानलेवा सच्चाई भी।
21वीं शताब्दी के सन् 2022 की वास्तिविकता है यह लेकिन डॉ. अम्बेडकर ने जातियों के जहर को उसकी असलियत को बीसवीं शताब्दी में किस तरह भुगता होगा? क्या-क्या अनुभव किया होगा? अपना और छोटी अस्पृश्य जातियों का। बाद के दौर में अच्छे-अच्छे पदों पर रहने वाले लोगों ने उन वास्तविकताओं को किस-किस रूप में देखा होगा। इसकी केवल कल्पना की जा सकती है। ओमप्रकाश वाल्मीक तुलसीराम, मोहनदास, नौमिशराय, कौशिल्या बैसंत्री, सुशीला टाकभौंरे और श्योराज सिंह बेचैन जैसे सैंकड़ों उदाहरण हैं। उन्हीं में से दलित आत्मकथायें और दलितों का सौंदर्यशास्त्र हमारे सामने हैं। मुझे लगता है कि दलित चिन्तन के मूल में उसके विस्तार और प्रभाव में डॉ. अम्बेडकर के संघर्ष हमेशा एक उदाहरण और मिसाल हैं। दलित चिन्तन और उसकी सम्पूर्ण वैचारिकी के केन्द्र में डॉ. अम्बेडकर की सोच प्रणाली है। इसे किसी भी रूप में खारिज नहीं किया जा सकता।
उन्होंने अस्पृश्यता की कलंक-गाथा के घिनौने दंशों से लगातार संघर्ष किया। डॉ. अम्बेडकर की ख़ासियत यह थी कि वे हर तरह की कृत्रिमता के खि़लाफ़ मुस्तैदी से खड़े हुए। भूख-ग़रीबी, लांछन और सामाजिक अन्याय की विभीषिकाओं का उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया और उनका हर स्तर पर सामना किया। अपने समूचे जीवन में दलितों-वंचितों, पीड़ितों और हाशियें के भीतर के समाजों के जिन विराट स्वरूपों को उन्होंने देखा, वे दिल दहला देने वाले विराट अनुभव थे। इन वर्गों को उन्हें हक़ दिलाने के लिए उन्होंने अपने जीवन को आत्मार्पित किया। अस्पृश्य समाज में पैदा होकर उन्होंने जो भोगा, जिस यथार्थ का सामना किया, वह कोई काल्पनिक दुनिया नहीं थी। वह उनके जीवन संघर्षों की ताप और ऊष्मा में हमेशा अनुस्यूत रही है। वही उनकी वैचारिकी की असली ताक़त है।
उन्होंने वर्ण व्यवस्था के भीतर धधकते हुये दहाने देखे। वे भारतीय सामाजिक संरचना की वस्तुगत, हक़ीक़तों को बहुत व्यापक संदर्भों में देखने में सफल हुए, जिनमें अपमान, अवमानना और लांछनों का दावानल है। समाज के भीतर-भीतर और बाहर-बाहर भी घृणा, अन्याय और असमानता की अनंत सुरंगें बिछी हैं। भारतीय समाज व्यवस्था के इस सच को किसी कालीन के नीचे छिपाया भी नहीं जा सकता। इस सामाजिक व्यवस्था के भीतर जातिगत दम्भ, अंहकार एवं घृणाभाव स्थायी रूप से विद्यमान थे। शिक्षा के नवाचारों और प्रजातांत्रिक पद्धतियों के निरन्तर विकास तथा सामाजिक परिवर्तनों की तीव्रगामी प्रक्रिया ने इन्हें बदलने की भरपूर कोशिश की। उसके पारम्पारिक ढांचों में कुछ तब्दीलियाँ हुई हैं और कुछ परिवर्तन की दिशा की ओर अग्रसर हैं; क्योंकि जड़तायें आहिस्ता-आहिस्ता ही टूटती हैं।
डॉ. अम्बेडकर इन वास्तविकताओं पर बार-बार विचार और पुनर्विचार करते रहे हैं। उनका मानना है कि नीति वाक्यों एवं अपने कथनों में समाज व्यवस्था चाहे जैसी घोषणायें करती रहे, उसके भीतर वर्चस्ववादी स्वरों की प्रधानता से इंकार कर पाना मुश्किल है। डॉ. अम्बेडकर का विचार-दर्शन वर्चस्ववादी मनोविज्ञान का प्रतिरोधी स्वर है, जिसमें नई सामाजिक व्यवस्था का एक गम्भीर विमर्श भी मौजू़द है और अस्मिताओं की संघर्षीशीलता का एक विधिवत प्रारूप और विकल्प भी। डॉ. अम्बेडकर घृणा की इबारत के हमेशा खि़लाफ़ रहे हैं। सामाजिक घृणा के असली चरित्र को उन्होंने अपनी आत्मा के भीतर धधकता हुआ अनुभव किया।
उनके समाज-दर्शन का ’कैनवास’ विस्तृत अथाह और व्यापक है, उसमें सामाजिक समरसता के लिए काफी जगह है। वे दलितों और वंचितों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने के पक्षधर रहें हैं और इस हेतु लगातार प्रयत्नशील भी। इसके लिए वे जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहे, यह एक जीवन्त सच्चाई है। रामजी यादव का मानना है कि -“स्वयं अम्बेडकर कल्पित और झूठे इतिहासों, मिथकों और मंत्रों को भारत के प्राकृतिक इतिहास से परे मानते हैं। इस भूखण्ड का निर्माण कैसे हुआ और यहाँ सभ्यताओं और समाजों का विस्तार कैसे हुआ, इसे वे वास्तविक ढंग से जानने की कोशिश करते हैं। अम्बेडकर के पास इसके बुनियादी स्रोत दो हैं- एक तो हिन्दूग्रंथ तथा दूसरे ग्रामीण और शहरी आबादियों भी बनावट, जिनमें से भी प्रमुख है ग्रामीण समाज में जातिमूलक ढंग से बसाहट अम्बेडकर ने पाया कि अछूतों की बस्तियाँ अखिल भारतीय स्तर पर गाँव के दांई ओर हैं।’’ (अम्बेडकर संचयन -भाग- 2)
उन्नीसवीं शताब्दी समाज सुधार और पुनर्जागरण के लिए पहचानी जाती है। आर्य समाज, थियोसिफिकल सोसायटी, रामकृष्ण मिशन और आज़ादी के लिये सघंर्ष – ये उस दौर की वस्तुगत सच्चाईयाँ थी। भारत हर तरह से जर्जर था; लेकिन उसके पास संकल्प बहुत थे और जूझने का हौसला भी। इस दौर में हम निषेध की बजाय विधेय की ओर बढ़े। आज़ादी के बाद हमारे संघर्ष चौतरफा रहे हैं, हमने हार नहीं मानी और कर्मपथ पर लगातार जुटे रहे। बीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक एवं इक्कीसवीं सदी का वर्तमान दौर वर्चस्ववादी सत्ताओं के विरुद्ध अस्मिताओं के संघर्ष और विमर्श के रूप में ही सामने नहीं आ रहा बल्कि यह दौर उनकी चेतना के निरंतर विस्तार के रूप में पहचाना जा रहा है। इस दौर में केन्द्र और हाशिये के संघर्ष बार-बार चिन्हित हो रहे हैं।
अस्मिताओं का कोई एक रूप नहीं होता। क्षेत्रीय अस्मिताओं के संघर्ष अलग हैं। उसी तरह दलित अस्मितायें, स्त्री अस्मिता, आदिवासी अस्मिता, बच्चों की अस्मिता, वृद्धों एवं अशक्तजनों की अस्मिता के स्वर बार-बार हवा में हस्ताक्षर नहीं कर रहे बल्कि उनकी संघर्षमयी उपस्थिति समाज में विद्यमान है और सामाजिक पर्यावरण में भी उनकी पदचाप लगातार सुनाई पड़ रही है। हाँ, इन पदचापों को सुनने के लिये हमारे पास संवेदनशील कान होने चाहिये तभी ये आवाज़ें सुनी जा सकती हैं और उनकी वास्तविकता से साक्षात्कार किया जा सकता है।
डॉ. अम्बेडकर के समाज-दर्शन में जातिवादी समाज की संरचनाओं और उसके मूल मर्म को समझने-पहचानने और विश्लेषित करने की अकूत क्षमता है। वे शूद्रों की स्थिति पर विचार करते हुए लिखते हैं – ‘‘मेरी व्याख्या यह है कि भारतीय आर्य समुदाय के शूद्रों को कालांतर में ब्राह्मणवादी व्यवस्थाओं की कठोरताओं ने इतना हेय बना डाला कि समाज में उनका स्थान वास्तव में निम्नतर हो गया। उसके दो परिणाम हुए। एक परिणति यह हुई की शूद्र शब्द के गुणार्थ ही बदल गए। एक वर्ग विशेष के रूप में शूद्र शब्द के मूल अर्थ में परिवर्तन हो गया और निम्न जातियों का सामान्य नाम बनकर रह गया, जिसकी कोई सभ्यता नहीं,संस्कृति नहीं, कोई मान-सम्मान और हैसियत नहीं। दूसरा परिणाम यह हुआ कि शूद्र की परिधि बढ़ जाने से विधि-विधानों का दायरा भी बढ़ गया ’’ (बाबा साहब अम्बेडकर- सम्पूर्ण वांग्मय-16, पृष्ठ-6)।
डॉ. अम्बेडकर ने दलित, अस्पृश्य और वंचितों के समाज की सामाजिकी के प्रश्न भर नहीं उठाए, उनकी आर्थिक पराधीनता, सामाजिक पराधीनता, सांस्कृतिक पराधीनता और शैक्षिक पराधीनता को भी बार-बार चिन्हित किया है। वे सामाजिक व्यवस्था में शूद्र, दलित और अन्य जातियों में मनुष्य की हैसियत के प्रश्न को बहुत शिद्दत के साथ और अनेक आयामों के साथ उठाते हैं। डॉ. अम्बेडकर एक ऐसा लोकतांत्रिक समाज रचना और देखना चाहते थे, जिसमें समानता, स्वतन्त्रता और भाईचारा का विचार-दर्शन हो और ऐसा दर्शन और व्यवहारशास्त्र कोई ’यूटोपिया’ नहीं है। वह हमारी धरती में है, आकाश में नहीं।
उनके समूचे वैचारिक चिंतन का केन्द्रीय तत्व समानता है और उसी समानता के बलबूते ही सही अर्थों में वे वास्तविक लोकतन्त्र और बंधुत्व की बात करते हैं, जो उनकी नज़र में फ्रांस की राज्य क्रांति के पहले से भगवान बुद्ध में उन्हें दिखाई पड़ा। वे ऐसा समाज रचना चाहते थे, जिसमें आम जनता का शोषण न हो। जाति और मजहब के ज़हर नहीं हों। लूट-खसोट, उत्पीड़न और ग़ैरबराबरी से समाज पूरी तरह मुक्त हो। डॉ. अम्बेडकर बीसवीं शताब्दी के उन थोड़े से चिंतकों में से एक हैं जो भारतीय जनगण की मुक्ति में अपनी मुक्ति तलाशते हैं। मुक्तिबोध ने लिखा – ‘‘मुक्ति अकेले की नहीं हेाती यदि वह है तो सबके ही साथ में।’’
अम्बेडकर का समूचा लेखन और चिंतन एक गहरी यातना से उपजा है, जिसमें सामजिक अभिशापों की लम्बी श्रृखंला है और अन्याय अत्याचार और गै़रबराबरी के ख़िलाफ़ एक सतत् विद्रेाह है। इस अग्निपथ पर चलते हुए वे सामाजिक मुक्ति के साथ राजनीतिक एवं आर्थिक मुक्ति का सपना देखते हैं। संविधान में मार्गदर्शक तत्वों के बारे में उनका मानना था कि – ‘‘मेरी दृष्टि में मार्गदर्शक तत्वों का अत्यधिक महत्व है। हमारा लक्ष्य आर्थिक जनतन्त्र है, इसे इन तत्वों में स्पष्ट किया गया है। केवल संसदीय प्रणाली की सरकार स्थापित करना उसे एक निश्चित आर्थिक दिशा देना यहाँ तक ही हमारा लक्ष्य सीमित नहीं है। इसे स्पष्ट करने के लिए ही इन तत्वों का समावेश हमने संविधान में किया है।’’
सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ पूर्व में ही यह बात रख चुके थे कि -“गहन है यह अंधकारा/स्वार्थ के अबगुण्ठनों में हुआ लुंठन हमारा/ “अम्बेडकर ने निराला की वैचारिकी का विस्तार शिद्दत के साथ किया। डॉ. अम्बेडकर ने अपने संघर्षपूर्ण जीवन से बहुत कुछ सीखा है। उनके वैचारिक संघर्ष का मूल तत्व उनका जीवन है, जिसमें अपमान, अन्याय और असमानता की गहरी प्रेतछायायें हैं। मनुष्य को मनुष्य के रूप में न पहचाने जाने की घोर वेदना उसके साथ है। वे अपने जीवन पर्यन्त संघर्ष ही करते रहे, कभी रुके नहीं, कभी थके नहीं, कभी झुके नहीं, कभी मुड़े नहीं। यह अनथक जीवन-संघर्ष ही है जो उनकी वैचारिकता को नई ऊष्मा से भर देता है।
उनकी चिंतनशीलता में क्षुद्रताओं और संकीर्णताओं के लिए लगभग कोई स्थान नहीं है। वे व्यापक ‘कन्सर्न’ के बुद्धिजीवी, विचारक और चिंतक रहे हैं। वे विशेष अर्थ में समाज वैज्ञानिक, अनुसंधानकर्ता और अपनी भारतीय परम्पराओं के विशिष्ट ज्ञाता, भाष्यकार और भविष्यकार भी रहे हैं। समाज के विकास के लिये अपनी परम्परा से टकराने, उससे मुठभेड़ करने, उसकी धज्जियाँ उड़ाने में उन्होंने कभी कोई बाधा, कभी कोई दिक्कत कभी कोई हिचक महसूस नहीं की। वे मनुष्य की प्रतिष्ठा के समर्थक थे। वे पद दलितों के उद्धारकर्ता थे। वे मनुष्यों द्वारा निर्मित बेड़ियों की श्रृंखला तोड़ने वाले व्यक्ति भी थे। -“उनका सम्पूर्ण जीवन मानवाधिकार की प्रत्याभूति एवं सामाजिक न्याय की स्थापना तथा दलित मानवता के त्राण के लिये संघर्ष में बीता। वे भारत में जाति समाज के लोक समाज में संक्रमण के प्रमुख वाहक हैं।’’
डॉ. अम्बेडकर हमेशा इस बात पर बल देते रहे कि, समूची मानवजाति को सामाजिक न्याय हासिल हो। सभी को बराबरी का हक़ हासिल हो। इतने लम्बे अरसे बाद भी ऐसा जनतन्त्र हम विकसित नहीं कर पाये। वे भारतीय संविधान के प्रस्तावक तो हैं ही, उन्होंने इसका मसविदा तैयार करने से लेकर उसे अंतिम प्रारूप देने में दुनिया के सभी संविधानों की सैद्धांतकी की और व्यावहारिकी से कठिनतम साक्षात्कार किया। संसदीय कार्य प्रणालियों, लोक परम्पराओं को गहराई से जाना और भारतीय जीवन एवं संस्कृति की ज़रूरतों के अनुरूप आने वाले समय में उसके उपयोग की सम्भावनाओं पर व्यापक विचार किया। ज्ञान और संवेदना की अनंत गहराईयों तक पैठकर मानवीय मुक्ति के सपनों और वास्तविकताओं का साक्षात्कार किया और सभी के लिये एक सुलभ रास्ते की खोज की, जिसमें सभी की मुक्ति की दुर्लभ आकांक्षा विद्यमान थी।
डॉ. अम्बेडकर का व्यक्तित्व फ़ौलादी है। उनकी वैचारिकी में मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा का योग है। उनके चिंतन से आप सहमत, असहमत हो सकते हैं; लेकिन उसमें सच्चाई का जो खनिज बहता है, उसकी क़द्र ज़रूर करना चाहेंगे। वे सामाजिक न्याय की पक्षधरता के अप्रतिम योद्धा के रूप में पहचान बनाने में कामयाब हुए। आज के दौर में जातिगत जहर उसका उम्मूलन करने के प्रयास, अस्पृश्यता, असमानता, अपमान का दंश और ग़ैरबराबरी से लहूलुहान भारतीय समाज को एक समता मूलक समाज बनवाने में उनकी अग्रणी भूमिका रही है। उन्हीं की वैचारिक ऊर्जा के कारण इनका विमर्श हाशियों से केन्द्र में आया। वे दलितों, वंचितों के प्रस्थानक विचारक हैं।
डॉ. अम्बेडकर ने स्वाधीनता आंदोलन में श्रमिकों के महत्व और सामाजिक न्याय को अपनी वैचारिकी की आधार भूमि स्वीकार किया। रामजी यादव ने ठीक ही लिखा है कि – ‘‘भारत में लोकतन्त्र की अवधारणा का विकास करने का श्रेय सच्चे अर्थों में डॉ. अम्बेडकर को है। उन्होंने विचारों और आदर्शों की परम्परा का गम्भीर विश्लेषण किया और सामाजिक संरचना के मूल आधारों के रूप में ‘जाति’ को देखा। उनके चिंतन और लेखन में ‘जाति’ की केन्द्रीय भूमिका सम्भवतः इसीलिए है; क्योंकि भारत की राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना और व्यवहारों में श्रम की भूमिका को वे जाति से द्वितीयक मानते थे।’’ (डॉ. अम्बेडकर संचयन, भाग – 1 की भूमिका)।
डॉ. अम्बेडकर जानते थे कि भीख मांगने से अधिकार नहीं मिलते। उन्होंने कहा- “उन असहाय और बेजुबान लोगों के लिये हम भीख नहीं चाहते, हम बराबरी चाहते हैं। हमें खैरात की दरकार नहीं हैं, बल्कि खैरियत (कल्याण) चाहिये।’’
मै जब भी डॉ. अम्बेडकर के बारे में सोचता विचारता हूँ। मुझे गांधी जी स्मरण आते हैं हालाँकि अम्बेडकर ने जिन परिस्थितियों वस्तुस्थितियों और दलित जीवन के हाहाकार को देखा समझा और भोगा था। वह नायाब था लेकिन गांधी अपने भारत के सपने को सहेजते हैं। वह कम विचारणीय नहीं है। उसमें भी भारतीय यथार्थ के आवश्यक और जीवंत पहलू हैं। “मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा जिसमें ग़रीब से ग़रीब आदमी भी यह महसूस करे कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसकी आवाज़ का महत्व है। मैं ऐसे भारत के लिये कोशिश करूँगा जिसमें ऊँच-नीच का कोई भेद न हो। जातियाँ मिल-जुल कर रहती हों। ऐसे भारत में अस्पृश्यता व शराब तथा नशीली चीज़ों के अनिष्टों के लिये कोई स्थान न होगा। उसमें स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार मिलेंगे। सारी दुनिया से हमारा सम्बन्ध शांति और भाईचारे का होगा।’’
डॉ. अम्बेडकर की वैचारिकी के अनेक आयाम और सोपान हैं। उनकी ज्ञान-धारा में भारतीय धर्म और दर्शन की उपनिषदों, पुराणों आरण्यकों, गाथाओं और संहिताओं की ज्ञान-धारा का समूह है। इन सभी के साथ भारतीय जीवन सभ्यता संस्कृति और हमारा कटु यथार्थ है। डॉ. अम्बेडकर ने इनका केवल पारायण भर नहीं किया, बल्कि इनकी ख़ूबियों और ख़ामियों का रेखांकन भी किया। इन ज्ञानधाराओं के खि़लाफ़ अपनी असहमतियाँ भी दर्ज़ कीं। इसी के साथ भारतीय जनजीवन की प्रवहमान धारा में अपने समय के घमासानों सामाजिक गतिशील यथार्थ के विविध रूपों की परिस्थितिकी का भी गहन विश्लेषण किया।
डॉ. अम्बेडकर के शब्द हैं -‘‘कार्य करने की वास्तविक स्वतन्त्रता केवल वहीं पर होती है, जहाँ शोषण का समूल नाश कर दिया गया है। जहाँ एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग पर अत्याचार नहीं किया जाता, जहाँ बेरोजगारी नहीं है, जहाँ ग़रीबी नहीं है, जहाँ किसी व्यक्ति को अपने धन्धे के हाथ से निकल जाने का भय नहीं है। अपने कार्यों के परिणाम स्वरूप जहाँ व्यक्ति अपने धन्धे की हानि तथा रोज़ी-रोटी की हानि के भय से मुक्त है।’’ अपने मत की स्थापना में डॉ. अम्बेडकर अडिग, अविचल और निर्द्वन्द्व रहे हैं। सामाजिक यर्थाथ की अन्तर्भूत विचार-सरणि के पीछे वे युगों के सन्ताप और संत्रास की अन्तर्वर्ती धारा को देखने में कामयाब हुए। उनकी विचार सत्ता के समानान्तर जनसत्ता है और इस जनसत्ता को वे कभी ओझल नहीं होने देते। डॉ. अम्बेडकर आने वाले समय और परिस्थिति की धड़कन को पहचानते हैं, इसलिए उन्होंने नवाचारों को अपनी वैचारिकी में पर्याप्त स्थान दिया है और विकास के समाजशास्त्र को अहमियत दी है।
डॉ. अम्बेडकर की खूबियों के बारे में जितना भी कहा गया वह कम है। उनकी विचार सम्पदा का सबसे बड़ा गुण यह है कि उन्होंने अपने जीवन संघर्ष से ही क्रांति, प्रतिरोध और विद्रोह सीखा। वे अपनी बातें डंके की चोट कहते रहे। के.के. खुल्लर का यह कहना सही है कि “वह एक ऐसे युग पुरुष थे, जिन्होंने एक दबे-कुचले हुए राष्ट्र में नई चेतना का संचार किया, उसे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया, आहत सभ्यता को नई पहचान दी और निर्जीवों को नवजीवन दिया। उन्होंने दलितों को सम्मान के साथ जीना और सम्मान के साथ मरना सिखाया। “डॉ. अम्बेडकर को इस देश में कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। दलितों, कुचले हुए लोगों और दबाए गए लोगों की वे धधकती हुई प्रचण्ड ज्वाला की तरह हैं। उनका समूचा जीवन और लेखन मुठभेड़ का जलता हुआ दस्तावेज़ है। भारतीय समाजों को इस वैचारिक योद्धा ने शान के साथ जीना सिखाया। अपनी वास्तविकता, जनपक्षधरता और प्रतिबद्धता से सीना तान कर चलना सिखाया। यह देश उनको कभी भुला नहीं सकेगा।