‘जय श्रीराम’ नारा नहीं, हिन्दू समाज को एकता के सूत्र में बाँधने वाला मंत्र
कोरोना काल की दूसरी लहर के दौरान लम्बे समय बाद लम्बे समय के लिए महाराष्ट्र में अपने पुश्तैनी गाँव में रहने का अवसर मिल गया था। पहले शिक्षा-दीक्षा के कारण और बाद में आजीविका की खोज में दर-दर भटकते हुए प्राध्यापकीय नौकरी के साथ-साथ बिना किसी अवकाश के पत्रकारिता (मुद्रित एवं दृश्य-श्रव्य) में बारहमास खाक छानते हुए; फिर हिन्दी भाषा एवं साहित्य में उच्च शिक्षित-दीक्षित होने के बावजूद अंततः जब अंग्रेज़ी के बलबूते पर ही नौकरी हासिल हुई, तो कोल्हू के बैल की भाँति उसी में भ्रमण एवं रमण करने के लिए अभिशप्त होने के कारण लम्बे समय से पीछे छूट चुके आत्मीय स्नेही जन से पुनः यहाँ-वहाँ अनायास ही भेंट हो रही थी। बचपन की स्मृतियों से धीरे-धीरे धुंध हट रही थी। इस तरह स्मृतियाँ पुनः तरोताज़ा हो रही थीं। स्मृतियों को जाग्रत करने वाली ऐसी ही एक अविस्मरणीय भेंट बिलोली तहसील (नांदेड महाराष्ट्र) के संघचालक आदरणीय श्री विश्वनाथ गुंडप्पा दाचावार से उन्हीं के जनरल स्टोर्स पर हुई।
हम बचपन से ही उन्हें ‘दादा’ कहते रहे हैं। सर्वविदित है कि मराठी में बड़े भाई को ‘दादा’ बोला जाता है। ऐसा ही कुछ-कुछ मामला बंगला में भी है। वैसे, विश्वनाथ दादा पिताजी के सहपाठी (वर्गमित्र) रहे हैं परन्तु, सबकी सुना-सुनी हमने भी ‘दादा’ कहना आरम्भ किया था और मन-मस्तिष्क में वही ‘दादा’ पंजीकृत होकर रह गया। आप भलीभाँति जानते हैं, एक बारगी जो आदत पड़ जाती है, आप लाख प्रयास कर लें, आपका मन-मस्तिष्क और जिह्वा सुधार के लिए साथ नहीं ही देते। उस स्वाभाविक धारा में जबरन परिवर्तन औपचारिक के साथ-साथ शुष्क प्रतीत होता है। कहना न होगा कि सम्बन्धों की आर्द्रता जीवन को सुखद, आनंदमयी, सहज और सुलभ बनाती है। उस आर्द्रता से एक प्रकार का संबल मिलता रहता है, सो अलग।
स्मृति के आधार पर कहना अत्युक्तिपूर्ण न होगा कि उन दिनों कुंडलेश्वर महादेव मंदिर के लिए प्रसिद्ध कुंडलवाडी (कस्बा) में सबको ‘जय श्रीराम’ कहने और कहलवाने वाले सबके चिर-परिचित पहले व्यक्ति दादा ही थे। हम बहुत छोटे थे और श्रीराम जन्मभूमि का मामला पूरी गर्माहट के साथ परवान पर था। संयोग ही कहा जा सकता है कि पारिवारिक उठा-पटक के बीच गरीबी में हमारा परिवार उन दिनों कुंडलवाडी के श्रीराम मंदिर से संलग्न श्री हनुमान मंदिर में निवास करने लगा था।
हमारे जीवन का लम्बा समय श्री हनुमान मंदिर परिसर में अत्यंत सहजता से बीता। हमारे जीवन के वे सुनहरे दिन आज भी अत्यंत मधुर और सबसे अच्छे दिन हैं। उन स्मृतियों से आज भी सुखद अनुभूति होती है। उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ का प्रसारण आरम्भ हुआ था। हमारे साथ-साथ उसी मंदिर में गंगा आजी (दादी) रहती थीं। उनके बेटे की हत्या के बाद से वे इसी मंदिर की एक खोली (कमरा) में रहने लग गयी थीं। उस पूरे मोहल्ले में दो-तीन ही टेलीविजन हुआ करते थे। अतः ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के प्रसारण के समय भारी भीड़ हो जाती थी और गंगा आजी और आई (मेरी माँ) उस टेलीविजन के सामने धूप-दीप जला कर कार्यक्रम प्रसारण की प्रतीक्षा किया करते थे। पूरी बानर सेना अर्थात् उस परिसर के सभी बच्चे टीवी के ठीक सामने बैठ जाया करते थे। उन दिनों हम बच्चों को ‘वानर सेना’ ही कहा जाता था। कुलमिलाकर, पूरे वातावरण में ‘सिया राम मय सब जग जानी’ और ‘श्रीकृष्णार्पणमस्तु’ की तरंगें हुआ करती थीं। सबकुछ श्रीराम और श्रीकृष्ण को समर्पित!
एक-दूसरे से संलग्न दोनों मंदिर अत्यंत जाज्वल्यमान थे। प्रातःकाल से ही पूजा-पाठ आरम्भ हो जाता था। गंगा आजी वर्षा एवं शीतकाल में भी भोर में उठ कर बावड़ी के ठंडे पानी से नहाती थीं। पूजा की पवित्रता की दृष्टि से धुली हुई सफेद साड़ी (लुगडे – नऊवारी साड़ी) पहन कर पूजा आरम्भ करती थीं। मराठी में इस पवित्र पूजा विधि को ‘सोवळ्यात पूजा करणे’ कहा जाता है। कहते हैं, ऐसा करने से पूजारी नकारात्मक ऊर्जा से सुरक्षित रहते हैं। अतः पूजा की पवित्रता भी बनी रहती है। मन विषय, विकार एवं वासनाओं से नहीं जुड़ता और पूजा में पूर्णतः एकाग्र हो जाता है। कुलमिलाकर, पूरे परिसर में अत्यंत धार्मिक एवं उच्च कोटि का आध्यात्मिक वातावरण था। स्वाभाविक है कि वे दिन सदैव अच्छे लगते रहे हैं।
ऐसे वातावरण में निवास करने के कारण हम पर दादा के ‘जय श्रीराम’ का सहज ही प्रभाव पड़ता गया। प्रभाव पड़ा भी, तो अत्यंत गहरा। हम भी स्नातक की शिक्षा के दिनों तक अष्टगंध का टीका-तिलक लगाते रहे परन्तु, यह जानने-समझने की नितांत आवश्यकता है कि उस पूरे क्षेत्र में यत्र-तत्र-सर्वत्र ‘जय श्रीराम’ नारा नहीं, अपितु सर्वस्वीकृत अभिवादन बन गया था। हम सभी दादा को देखते ही ‘जय श्रीराम दादा’ बोला करते थे। इस कोरोना काल में मिलना हुआ तो उसी भाव मुद्रा में जय श्रीराम का अभिवादन हुआ।
दादा की अत्यंत सौम्य छवि थी – माथे पर अष्टगंध का तिलक, तिस पर स्मित मधुर मुस्कान। श्री विष्णु भगवान के अवतार श्री विट्ठल (विठोबा, पांडुरंग) का जीवंत रूप रेखांकन! ‘जय श्रीराम’ कहते हुए उनका विनयावत झुकना, दोनों हाथ जोड़ना इत्यादि दादा को अतिविशिष्ट बना देता था। उनमें आज भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। जैसे थे, ठीक-ठाक वैसे ही हैं। लम्बे अंतराल के बाद उनसे मिला, तो बचपन के वे वर्ष चलचित्र के दृश्यों की भाँति धड़ाधड़ मानस पटल पर दौड़ गये और जीवंत हो उठे। आज भी लगता है कि बचपन के वे दिन सबसे अच्छे दिन थे। हम क्योंकर बड़े हो गए? इस प्रकार बड़ा होना अत्यंत दुखद प्रतीत होता है। काश! समय ठहर जाता परन्तु, समय किसी की सुनता है भला?
इस बार दादा से भेंट हुई, तो उन्होंने एक रोचक और अत्यंत नवीन प्रसंग छेड़ दिया। पूछा कि “‘जय श्रीराम’ अभिवादन के रूप में कैसे उभरा और निखर कर आया पता है?” हमें अबूझ देख कर स्वयं ही बोलते गये कि 90 के दशक में वे संघ कार्य हेतु जब गाँव-गाँव जाते थे, तो उन दिनों जाति-विशेष द्वारा चयनित-निर्णीत अभिवादनों का उपयोग हुआ करता था। आज भी होता है, अपितु अब तो कुछ अधिक ही होता है। संघ सबको साथ लाकर-लेकर ‘अखण्ड भारत’ का बृहत्तर दर्शन लेकर विकसित हुआ है और सामाजिक जीवन में सामाजिक एवं सांस्कृतिक उद्धार की दृष्टि से कार्यरत है। अतः संघ प्रचारक एवं स्वयंसेवक प्रायः सबके लिए समान व सर्वमान्य अभिवादन का प्रयोग करते हैं – नमस्ते अथवा नमस्कार!
दादा बोल रहे थे और मैं सोच रहा था कि भारतीय समाज (हिन्दू) में विभाजन के कितने ही आयाम जोड़ दिए गए हैं। प्रत्येक जाति का समाज अपना एक विशिष्ट अभिवादन भी रच-गढ़ चुका है। हर किसी ने अपनी स्वतंत्र और हर दूसरे से पृथक् अस्मिता खड़ी कर दी है। हरकोई एक-दूसरे से किस प्रकार अलग है, बताने-जताने का प्रयास अभिवादनों से भी होता है। उदाहरणार्थ, महाराष्ट्र में मराठा, अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जनजाति के लोग राम-राम ; अनुसूचित जाति के लोग जय भीम और लिंगायत समाज के लोग शरणार्थ या शिवशरणार्थ इत्यादि अभिवादनों का प्रयोग करते हैं। अभिवादनों से कुछ-कुछ ऐसा ही अस्मिताबोधक प्रचलन आरम्भ हो चुका था। कालांतर में, हर समाज की अपनी सभाएँ और संगठन बने, तो अभिवादन रूप में अस्मितामूलक बोध से उपजी उग्रता के मिश्रण के कारण वही अभिवादन नारे में परिवर्तित होते गये।
अस्तु, तो दादा बता रहे थे – “एक बार की बात है, दादा एक गाँव में गए, तो दूर से ही सबसे पहले जिनसे नज़रें मिलीं, उनको ‘शिवशरणार्थ’ कह कर अभिवादन किया।” सड़क से गुज़रते हुए कुछ ग्रामवासी उनसे निकटस्थ थे परन्तु दादा की नज़रें उनसे नहीं मिली थीं। अतः उनसे अभिवादन नहीं हो पाया था और वे इस बात का बुरी तरह बुरा मान गए। बोले कि “आपने पहले उन्हें ही अभिवादन क्यों किया?” मामला थोड़ा गर्म और गंभीर होता देख दादा ने उनको भी ‘शिवशरणार्थ’ कह कर अभिवादन किया, जो कि उस गाँव में सहज ही प्रचलित था परन्तु उधर से फौरन आपत्ति हुई। फिर, दादा ने ‘नमस्ते’ कह कर अभिवादन किया। उस पर भी उधर से घोर आपत्ति हुई। तब, दादा ने ‘राम-राम’ का अभिवादन किया। आश्चर्य देखिए कि उस पर भी आपत्ति हो गई। आपद स्थिति देख-भांप कर दादा ने अपना एक नया ही अभिवादन रचा-गढ़ा – ‘जय श्रीराम’!
दादा ने पूछा, “जय श्रीराम चलेगा क्या?” उन मान्यवर ने तुरंत कहा कि “यह चलेगा।” और देखिए कि चल भी गया। मज़ेदार बात यह है कि ‘जय श्रीराम’ सबको सहज ही स्वीकार्य हुआ। सबमें समानता की भावना की स्थापना हेतु ‘जय श्रीराम’ का प्रयोग हुआ परन्तु, इधर कुछ विचित्र क़िस्म के लोगों को जय श्रीराम से चिढ़ होने लगी है। स्वयं को जन नेता घोषित करने वाली एक घमंडी एवं तानाशाह नेता ने तो ‘जय श्रीराम’ सुन कर चिढ़चिढ़ेपन में अपना पैर तुड़वा लिया। प्रभु श्रीराम की महिमा भी अपरंपार है। उनसे द्वेष और ईर्ष्या करने वालों को भी उन्होंने सफलता ही दी।
जो हो, उपरोक्त संदर्भ से यह स्पष्ट हुआ कि सबमें समानता की स्थापना की दृष्टि से दादा ‘जय श्रीराम’ का प्रयोग करते चले गये। इससे उनकी एक अलग, लोकव्यापी और लोकप्रिय छवि बनी। ‘जय श्रीराम’ अभिवादन ने दादा की फैन फॉलोइंग भी बढ़ा दी। श्रीराम जन्मभूमि के लिए जब घर-घर से ईंटें रवाना हुईं, तो संपूर्ण हिन्दू समाज प्रचारित-प्रसारित जातिगत सीमाओं को ध्वस्त कर ‘जय श्रीराम’ के गगनभेदी उद्घोष के साथ एकजुट हुआ।
दादा का ‘जय श्रीराम’ आज जन-जन में स्वीकृत हो चुका है। यद्यपि यह चल पड़ा है और लोकवाणी का अभिन्न भाग हो चुका है, ‘राम नाम का मरम है आना’ में निहित व्यापक बोध को अब भी जानने-समझने की नितांत आवश्यकता है। ‘हिन्दुत्व बनाम हिन्दू’ के अनर्गल अलाप के मध्य इस बोध की पूरी प्रखरता के साथ आवश्यकता है। ‘जय श्रीराम!’ नारा नहीं, लोक मन को एकाग्र, धैर्य और जीवन की गंभीरता सिखाने वाला मंत्र है।