सामयिकसिनेमा

‘शतरंज’ की बिसात पर सोशल मीडिया ‘के खिलाड़ी’

 

आप सह्रदय समाज से हैं इसलिए मैं निश्चिन्त होकर मान ले रहीं हूँ कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ कहानी से आप परिचित होंगे ही, जिसमें वे नवाबी शौक में डूबे और जनता को ‘डुबाते’ सामंती, जागीरदारों के ‘शतरंज की दलदल’ में गोते लगाते ‘लती’ मित्रों का मनोरंजक चित्र खींचतें हैं। प्रेमचंद की इस कहानी पर सत्यजीत रे ने अपना ‘सत्व’ जोड़, जो सॉलिड फ़िल्म बनायी उसकी भी क्या ही कोई मिसाल है! प्रेमचंद जी ने वाज़िद अली शाह के समयकाल की ‘बिसात’ पर अपना कथानक/ प्लाट सजाया, ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की तर्ज़ पर बुना कथानक अवध के बादशाह वाज़िद अली शाह के सिंहासन से बेदखल होने और उसकी रियाआ विशेषकर सामंतवाद के पतन की दास्ताँ कहता है, “जिनकी सारी अक्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली” वे सामंती समाज की अकर्मण्यता और खोखली शान लेकिन विलासिता का अत्यंत सजीव चित्रण करते हैं, नवाब-जागीरदारों या सामंतों में कबूतरबाजी, तीतर, बटेर, बकरी, भेड़ लड़ाना, शतरंज-गजीफा रईसों के चोंचले ही थे, जिसमें समय और ‘पैसा उड़ाना ही उनका काम था

कहानी में ‘शतरंज’ को सोशल मीडिया के संदर्भ में पढ़ें तो बड़ा ही रोचक तथ्य मेरे सामने आता है, जैसे आज की अकर्मण्यता यानी बेरोज़गारी, और उसकी खोखली शान को सोशल मीडिया में पूरे ‘ठाठ-बाट’ के साथ परोसा जाता है। फेसबुक, ट्विटर, टिक-टाक, यूट्यूब, वीडियो गेमज़ नेटसर्फिंग आदि ‘आभासी दुनिया’ की लत, फ्री डाटा के साथ, भरपूर मनोरंजन और सूचनाओं के नाम पर लगाई जा रही है और फ्री में मिल क्या रहा है- ‘वैचारिक विखण्डन, बौद्धिक शून्यता, सूचनाओं का जंजाल जिसमें फँसकर दिमागी दिवालियापन हमें कब खोखला कर जाता है हमें एहसास तक नहीं होने पाता। यूं कह लीजिये इस बेतार की तकनीक वैश्वीकरण तो किया लेकिन ‘वर्चस्ववादी मानसिकता’ वही ‘ढाक के तीन पात’ विखण्डवादी प्रवृति में इसके नाम-रूप बदल गए हैं बस! वे अपनी चालें फेंक घंटों, दिनों इंतज़ार करते हैं, सामने वाले की प्रतिक्रिया का मज़ा लेते हैं।

प्रेमचंद जी कहतें हैं- “नये-नये नक़्शे हल किये जाते ;, नये नये किले बनाये जाते; नित्य नई व्यूह-रचना होती; कभी कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू मैं-मैं की नौबत आ जाती; पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता, कभी कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती” आज भी तो फेसबुक-वाल पर यह नज़ारा आम है कभी मित्र, कभी शत्रु आरोप लांछन, की बॉल कभी इस वाल कभी उस वाल, फ़ॉलो-अनफ़ॉलो का खेल, कभी ब्लॉक, नये-नये चक्रव्यूह रचे जातें हैं जिसकी डोर किस ‘बेतार’ बादशाह से जुड़ी है नहीं मालूम या अनजान बने हैं, ‘तू-तू मैं-मैं’ भी उसकी कृपा से, तो मित्रता भी उसी के भरोसे, क्योंकि इस अनोखी स्थायी बिसात पर ‘स्थायित्व’ कहीं नहीं, मित्रता शत्रुता भी नहीं।

थोड़ा कहना; ज्यादा समझना’ सोशल मीडिया का प्रमुख लक्षण है, लेकिन ये जो डिजिटल cloud है न, जिसमें असंख्य सैलानी ज्ञान के काले बादल उड़ा रहे हैं, हवाएं इन्हें बुलबुलों के सामान झटके में भटका कर, कहाँ से कहाँ उड़ा ले जाती है और फोड़ भी देती है, कई बार अवशेष तक नहीं बचते। लेकिन काली घटा का घमंड ना घटा, नित नये बादल उमड़ते-घुमड़तें हैं, पल भर को सुहाते हैं, फुर्र हो जातें हैं। हाँ, ‘ज्ञान राशि के संचित कोष’ ‘जलद’ भी यहाँ आतें हैं लेकिन सैर करने को नहीं! ‘जलद’ जो जल्दबाजी में नहीं बनते, आपको भी सराबोर कर, भिगोकर सृजन के निशां छोड़ जातें हैं, समझने वाले अंतर समझ ही जाते हैं जो न समझे मेरी नजर में वे अनाड़ी तो हरगिज नहीं, ‘बाप रे बाप’ इनकी समझदारी का पुलिंदा चारों ओर तीव्रगति से यों प्रसारित होता है कि हवा भी मात खा जाए।

सोशल मीडिया भी समाज ही की बेतार कड़ी है, जिससे आज सभी बंधे हैं। कहानी पर लौटते हैं, समाज में मिरजा और मीर जैसे कुछ लोगों को कई लाभ और सुविधाएँ जन्मजात प्राप्त होती है, जबकि सामाजिक इकाई के रूप में आम ‘मनुष्य’ आज भी विषमताओं से दो चार हाथ कर रहें हैं। लेकिन सामाजिक दायित्व के नाम पर रईस या उच्च वर्ग आज भी सिर्फ अपना पेट भरने और शौक पूरा करने सुख-सुविधाओं हेतु आनंद-मग्न रहतें हैं, शासन व्यवस्था से जब ऐसे लोग जुड़ जातें हैं तो जनता और देश दोनों बर्बाद हो जाते हैं। शासक वर्ग की ‘विलासिता का कीड़ा’ धीरे धीरे जनता के भीतर उतर आता है और संक्रामक रोग की तरह फैल जाता है फिर ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’।

सत्यजीत रे का वाजिद अली शाह कहता है‘पहले ही तख़्त पर बैठने से इनकार कर देते तो बेहतर था लेकिन हीरे जवाहरात की चमक-दमक, शाही शानों-शौकत, हमारा मन लुभा गये’ मानव प्रकृति बदलती हैं कहीं? नहीं न !! चमक-दमक और सत्ता के मद में कोई भी शासक लापरवाह हो, राज-काज के अलावा सब काम करता है, वाजिद अली शाह और उनके नवाब-जागीरदारों को भी अपनी गरीब जनता की कोई फ़िक्र नहीं थी, इसलिए देश को गुलाम होने से कोई नहीं बचा सका। तत्कालीन शासक वर्ग की कर्तव्यहीनता का चरम तब देखने को मिलता है जब बादशाह वाजिदअली शाह को अँग्रेज कैद कर लेते हैं लेकिन उनके जागीरदार, आज के प्रशासकीय वर्ग की भाँति ‘कोऊ नृप को हमको का हानी’ का मखौल उड़ाते दुःख या भय से त्रस्त नहीं दिखाई देते बल्कि उनका उपाहास उड़ाते है।

वाजिद अली शाह के जागीरदार मिरजा और मीर, शाही ठाठ-बाट में ‘बादशाहों-सी विलासिता के रंग में डूबे, आजीविका की कोई चिंता नहीं, पैतृक सम्पति के ‘नगर-पोते’ आलसी, कामचोर ‘शतरंज की बिसात’ पर हाथी-घोड़े हाँकने वाले। वही ‘बिसात’ रूप बदल आज हमारी हथेली पर विराजमान है, जिस पर हमारी उँगलियाँ बेनागा ‘दिमागी’ घोड़े दौड़ा रही हैं, कोई एकाध समय ही ऐसा होता है जबकि हम इससे दूर होते हैं। मज़े की बात यह कि इस बिसात पर सभी खुद को खिलाड़ी समझे बैठें हैं!! धुरुन्धरखिलाड़ी!!!

गौर फरमाइए, “वाजिदअली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, गरीब-अमीर सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफीम की पीनक ही में मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी। राजकर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था”

आइये अब आज के डिजिटल युग जनित सोशल मीडिया से उद्भूत माहौल पर नज़र डालतें हैं- ग्लोबलाइजेशन में देशकाल को इग्नोर करने का लाभ लिया जा सकता है ‘आज सभी सोशल मीडिया के रंग में डूबे हुए हैं आश्चर्य हो सकता है, बेतार की इस तकनीक से विविध जाति-धर्म सम्प्रदाय के, छोटे, बड़े, स्त्री-पुरुष, अमीर, गरीब ‘एक साथ एक मंच पर कैसे तो जुड़ गये! टिक-टाक पर कोई नृत्य गान की मज़लिस सजाता है तो कोई यूट्यूब पर अपने विडियो अपलोड करके अपने शौक पूरे कर रहा है, जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य है, व्ट्सअप पर सुबह से लेकर शाम तक हँसी का माहौल चुटकुलों के रूप में अग्रसरित फॉरवर्ड हो रहा है चुटकुलों का केंद्र समाज का कमजोर वर्ग ही होता है लेकिन फॉरवर्ड करने में हम अचानक ताकतवर हो जाते हैं यही तो ख़ूबी है सोशल मीडिया की, क्या शासन, प्रशासन, राजनीति, धर्म, साहित्य सभी क्षेत्रों में, सामाजिक अवस्था में, कला-कौशल उद्द्योग धन्धों में आहार-व्यवहार में सर्वत्र सभी ट्विटर, फेसबुक, कुहू आदि पर अपनी-अपनी बाज़ी खेल रहे हैं।

सभी की आँखों में ‘स्क्रीन का मद छाया’ हुआ है। प्रेमचंद जी गंभीरता से मनोरंजन का यथार्थ लिखतें हैं संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है”। इस मामले में, हम भी कम गंभीर नहीं-संसार-भर की सूचनाओं के दाने तो डिजिटल युग में खूब बिखेरे जाते हैं, ये अलग बात है कि हम ‘चुग’ कितना पाते हैं फिर पंछी का ‘पेट’(मन में अक्ल पढ़ें) होता ही कितना बड़ा है, चुग कर वहीँ बीट बिखेर, सिर्फ गन्दगी मचातें हैं।

हाँ, घर-संसार में क्या चल रहा है, इसकी किसी को खबर नहीं होती पर ट्विटर पर लड़ाई चल रही है, लाइक, शेयर, फॉरवर्ड के लिए हर दांव-पेंच खेले जा रहें हैं क्योंकि महोब्बत और जंग में सब जायज़ है। और तो और राजा से लेकर रंक तक इसी धुन की धुनि रमायें हैं, यहाँ तक कि “फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते”।

आज लोकतन्त्र का प्रत्येक ‘जन-मन-मस्तिष्क’ या कहें ‘लोकतन्त्र’ ही ‘डिजिटल एडिक्शन’ की लत में फंस चुका है , क्या मंतरी क्या संतरी! मंतरियों के शोहदे साइबर सेल में व्यस्त हैं तो संतरी भी अपने मस्त, दुरुस्त वीडियो शेयर करने से चूकते नहीं। यहाँ तक कि फकीरों (तथाकथित परमपूज्य ‘महाराज’ साधु-संत) राजा-महाराजाओं सा जीवन लेकिन साधू-संत ये भारत में ही संभव है जी!! उनको भी भिक्षा (चंदा) मिलती रहे इसलिए तो वे दिन-रात अपने सोशल मीडिया के अकाउंट पर (अकाउंट की डिटेल के साथ) ऑनलाइन मिल जाते हैं।

इनके फालोवर की संख्या भी लाखों में मिल जाएगी है। उस युग में यदि “शतरंज, ताश, गंजीफ़ा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेंचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है। ये दलीलें ज़ोरों के साथ पेश की जाती थीं (इस सम्प्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है)तब भला आप और हम, मुंशी जी के कथन से क्यों न सहमत होंगे, दुनिया आज भी बिलकुल न बदली ज़नाब ! सोशल मीडिया में कौन तीरंदाज़ बैठें हैं, वहाँ पर भी तो वैचारिकी और बौद्धिक-चिंतन कीजंग छिड़ी हुई है सभी अपने हिसाब से ‘दायें-बाएं’ कर रहें हैं जी। यह ‘धारणा घर कर दी गई’ है कि फेसबुक , यूट्यूब , ट्विटर आदि सोशल मीडिया से जुड़े रहने पर हमारी बुद्धि तीव्र होती है।

अब यह फैशन जोरों पर है –‘गूगल बाबा के झरोखें’ में लगातार ताक-झाँक करो, आपकी ज्ञानशक्ति (वैचारिक नहीं) का विकास होगा, लाइक, कमेंट शेयर करने भर से पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है। कोरोना ने इस पर मोहर भी लगा दी, जब ये दलीलें रोज़ ही विद्यालय-विश्वविद्यालयों और वेबिनारों में ऑनलाइन शिक्षण के संदर्भ में भी जोरों के साथ पेश की जाती है ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ के परिप्रेक्ष्य में सर्वाधिक मज़बूत औजार या स्तम्भ भी  मान सकते है, जनता जनार्दन इस औजार का कैसे इस्तेमाल करेगी ये वो जाने!

एक स्थान पर प्रेमचंद जी ने लिखा है “जितनी अक्ल आपकी जिव्हा/जीभ में है उतनी मस्तिष्क में भी होती तो क्या बात होती” भला हो सोशल मीडिया का जहाँ पर अक्ल बाँटी जा रही है फिर नाम चाहे सज्जाद हो चाहे सच्चिदानंद, चाहे रोशन अली हो अथवा ऋत्विक रोशन, सभी अपना अधिकांश समय सोशल मीडिया में व्यतीत करें भी तो किसी विचारशील व्यक्ति को क्या आपत्ति हो सकती है। इन ‘सायबर सेल के शोहदों’ को कमी किस बात की, सरकारी नौकर जो ठहरे!! न कहीं जाना-आना, घर बैठे ‘फेसबुक, ट्विटर कूह किसी पर भी ‘डिवाइस-बिसात’ बिछाई, इधर-उधर (आग) लगाई (बुझाई नहीं), और अच्छी खासी रकम खाते में आई। ज़रा भी तो श्रम नहीं, देश वैसे भी अब ‘कृषि प्रधान’ नहीं रहा बल्कि ‘चुनाव प्रधान’ हो चुका है श्रम को कौन पूछेगा, लेकिन काम-धंधे की कमी तो है नहीं, ‘जुमले उछालो’!!

इस खेल में अब ‘तन्त्र’ में फँसा ‘लोक’ भी एक्सपर्ट हो चुका है, क्या कैच करना है, कहाँ बाज़ी पलटनी है प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सभी के तार जुड़े हैं इस बेतार-तन्त्र से, जय हो सोशल मीडिया!! सबको खिलाड़ी बना रहा है, लेकिन समस्या तब आती है जब हम भूल जाते हैं कि सामने वाला भी ‘खेल’ खेल रहा है-सोशल मीडिया में ‘खेल’ के आनंद को बड़े-बूढ़े, माताएँ कितना ही कह लें “बड़ा मनहूस खेल है घर को तबाह कर देता है खुदा न करे किसी को इसकी चाट पड़े दुनिया किसी काम की नहीं रहती, न घर का न घाट का। बुरा रोग है” मगर कानों में तो हमारे ईयरफ़ोन लगे हैं जूं रेंगेंगी कहाँ? बेचारी!! उधर मिरजा की बेग़म लताड़ा करती थी “तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज, कोई तुम-जैसा आदमी हो”

आज इधर देखो तो, घर में माँ परेशान, स्कूल में टीचर दुखी, प्रोफाइल का स्टेटस देख प्रेमी-प्रेमिका की अलग जवाबदेही बनी रहती है, लेकिन ‘लत वाले को लताड़’ समझ कहाँ आती है! घर फूंक तमाशा देख…। झटका तो तब लगता है, जब लाइक न मिले, शेयर न हो, सबस्क्राइबर न बढ़े!!! जब अक्ल की भैंस आभासी घास चरती है तो तो सोशल के अंधे को कुछ नहीं सूझता, भूले भटके जब अक्ल के पत्थर पर झटके लगते हैं तब तक, घास चिड़िया चुग जाती है।

कहने वाले कहा करें, ‘चीनी’ वायरस ने बिना युद्ध, लाखों बेकसूरों को निगल लिया, काम धंधे छीन लिए, लेकिन प्रतिदिन लाखों कमाने वाला सोशल मीडिया का उद्गम देश! उफ़ तक न की उसने!! कैसे इन विषम परिस्थितयों का भी सम आँकड़ा बना लिया, आपकी नेट सर्फिंग सेसेकेंड्स की पाई-पाई का हिसाब रखा और अपना सिक्का जमाया हुआ है।

हाल ही में सोशल मीडिया से ही एक ज्ञान प्राप्त हुआ हैं कि ‘मन से ज्यादा उपजाऊ कोई जगह नहीं क्योंकि वहाँ जो कुछ बोया जाये, बढ़ता ज़रूर है, चाहे वह ‘विचार’ हो, ‘नफरत’हो या फिर ‘प्यार’। लेकिन यह सुंदर और टिकाऊ बात आज के यथार्थ में कहीं लागू होती हैं तो हीरे-सी कठोर लेकिन चमकदार आभासी माने जाने वाली सोशल-दुनिया में, बस एक ट्वीट भर कर दो, कंक्रीट के जंगलों में सेकंड्स में आग की तरह फैल जाती है।

हाँ, प्यार, विचार भले ही कुछेक ग्रुप्स में सिमट कर रह जाए लेकिन नफरत की चिंगारी तमाम सीमायें लांघ जाती है। मिरजानी क्या खूब कहतीं हैं– “इतनी लौ खुदा से लगाते, तो वली हो जाते ! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फ़िक्र में सर खपाऊं”ये समां भी कहाँ बदला है, ‘चूल्हा-चौका आज भी ‘स्त्रियों की जागीर’ है, और ‘हमारे महाशय’ भी इसी बात पर अडिग हैं कि “घर का इंतजाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें (स्त्री) क्या सरोकार?” बताइए भला!!! बना लीजिये – स्त्री-विमर्श के कितने ही ‘पेज या ग्रुप’, पर इसी ग्रुपबाजी ने विमर्शों की बैंड बजा रखी है, क्यों न हो, ‘अपनी-अपनी ढफली अपने-अपने गाल! बजाओ या थपथपाओ’ एक के विमर्श में दूसरा अब्दुल्ला क्यों बने जी, हम ठहरे ‘चिन्तक’ दीवाने क्यों कहलायें। सब अपनी मजलिस सजाये बैंठें हैं-

अपनी-अपनी मजलिस;

अपनी-अपनी बिसात, या कहो वाल,

रंग बिरंगे मोहरे, अपनी-अपनी चाल।

जहाँ तक ऊपरवाले से‘लौ लगाने’ की बात है तो वहाँ भी तो मज़हब और धर्म के नाम पर ‘सौदाई-सौदागरों’ कहीं कमी नहीं, बल्कि इजाफा ही हो रहा है। गठजोड़ की राजनीति ने सबसे ज्यादा ‘धागे’ यहीं तो बांधें’ हैं, और उनकी मन्नतें पूरी भी हो रहीं हैं। लोकतन्त्र में ‘राज-धर्म’ का ‘तन्त्र’ तो है, पर ‘लोक’ के पास ‘बंधने के लिए बेतार का नेटवर्क’ का हवाई पिटारा भर है पर लोकतन्त्र में बाँधने के लिए ‘धागे’ !!वे नदारद हैं। ‘बिसात’ जिस पर मंत्री, संतरी, ऊँट घोड़े हाथी सभी सवार हैं लेकिन धरतीपुत्र!!

वो तो चाल भर देख खुश हो लेता है। प्रेमचंद जी ने तो कह ही दिया था “जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफ़िज़ है, यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी, आसार बुरे है” आसार तो आज भी भले नहीं देश के, जाने कौन ‘मालिक’ है “चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था, (है) प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी (है) कोई फ़रियाद सुनने वाला न था (है) देहातों से सारी दौलत लखनऊ खिचीं आती थी (सह्रदय, आप वैश्वीकरण का लाभ लेते हुए अपनी सुविधानुसार कोई भी शहर नाम दे दें) और वह वेश्याओं में, भांडों में और विलासिता के अन्य अंगों की पूर्ति में उड़ जाती थी (है)” आज पोर्न की मार्केट आपकी टिप्स पर बैठी है क्लिक करने भर की देर है सामने हाज़िर! शैक्षणिक साईट तो और भी गुलज़ार है आप भी गये ही होंगे, बगल में कोई भी अश्लील विज्ञापन दिख ही जाया करता है , नवयुवक-युवती-विद्यार्थियों की जिज्ञासा और ज़रूरतों को ये साईटस अभिभावक से ज्यादा समझते हैं, क्या कीजियेगा? बेतार में इस ‘रैकेट का तार’ कहाँ से ढूँढ कर लाईयेगा।

बचपन में कहीं पढ़ा था नहीं मालूम किसी शायरा का है या शायर का-
उदासियों का उस की सब हिसाब कर दूँगी,
हँसा-हँसा के उस को गुलाब कर दूंगी,
देखने को मिल जाए कहीं अब के वह,
पढ़ूंगी इतना कि चेहरा किताब कर दूँगी”

किताब और चेहरे पर आपको बहुत-सी शायरी मिल जाती है पर किसी ने सोचा न होगा कि चेहरा को किताब बनाने वाला एक इतना बड़ा प्लेटफार्म तैयार हो जाएगा फेसबुक! आज फेसबुक पर अक्षरों का ज़जीरा है, हालाँकि ‘भीतर का चेहरा’ नदारद है। नाम ! नाम में रखा क्या है जी? नाम गुम जायेगा, चेहरा भी बदल जाएगा, तेरी वाल ही पहचान है। ज्ञान का अम्बार “क्लाउड” पर तैर रहा है, चिंतन-विमर्श के बादल समेटे नहीं सिमटते, न हम तुम्हें, न तुम हमें समझते’।

खैर, शतरंज खेलते-खेलते कहानी के विलासी वीर वास्तविक बादशाह और उसकी बादशाहत के लिए तो नहीं लेकिन व्यक्तिगत वीरता का प्रदर्शन करते हुए ‘शतरंज के वजीर/रानी’ की रक्षा में प्राण दे देते हैं’ हालाँकि फ़िल्म में सत्यजीत रे के समय से उपजा यथार्थ और भी पैना हो जाता है जब दोनों में पुन: बिसात बिछाकर नई बाज़ी शुरू करतें हैं। उनका सूत्रधार फिल्म के आरम्भ में ही कहता है बादशाह गया तो खेल ख़तम लेकिन अंत आते आते दोनों नये सिरे से बिसात बिछातें हैं, पुराने मोहरों से ‘नई चाल का खेल’ शुरू करते हैं। पहले ही लिख आई हूँ मेरा देश अब कृषि प्रधान नहीं रहा, इसका किसी को अफ़सोस नहीं जंक फ़ूड जिंदाबाद! सोशल मीडिया आबाद रहे !!

आज की आभासी दुनियां से नाना प्रकार के बीज टपककर जब यथार्थ की धरती से टकराते हैं तो सृजन नहीं, विध्वंस होता है। नेताकिस्म के चिंतक, विद्वान, मनमर्जी की फसल तैयार कर रहें हैं, किसानों को तो आन्दोलनों में उलझा दिया जब वे (संभवत: निराश) लौटेंगे तो वहाँ शॉपिंग मॉल, ऊँची बिल्डिंगें, और तारकोल की सड़कें मिलेंगी जिसपर जब बूँदे गिरती हैं, तो हमें भले ही टिप-टिप अच्छी लगे लेकिन वे बूंदों के दर्द से उपजी आवाज़ होती है, धीरे धीरे बूँदे अपना मार्ग बदल कहीं ओर चली जाती हैं, जहाँ नरम मिट्टी उन्हें अपने भीतर समां लेती हैं और उनका गिरना भी सार्थक हो जाता है

बहरहाल, ‘बिसात’ शतरंज की हो या सोशल मीडिया की, देश के ‘साहिब’ वाजिद अली शाह हों या नाम में क्या रक्खा है…हमारे खिलाड़ी खेल में मग्न हैं, रोटी और सर्कस में हमारे ‘खिलाडियों’ ने सर्कस का चुनाव किया सभी जोकर बने या टिक-टाक कर रहें हैं, तोते बने ट्विटर पर टें-टें कर चहक रहें हैं, फेस-बुक की वाल पर मन बहला रहें हैं जिस खेल में आपका मन रम जाये आप भी शामिल हो जाइए इस ठोस आभासी दुनिया में क्योंकि इसके बिना अब गुज़ारा नहीं जी।

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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