जॉर्ज ऑरवेल जन्मस्थली और उनके पाँव की गवाह आँगन को संभालने की जरूरत
चंपारण के भूमि पर जन्मे ब्रितानी लेखक जॉर्ज ऑरवेल जो दुनिया के महानतम साहित्यकारों में से एक रहे हैं। जिनका जन्म 25 जून 1903 को बिहार के मोतिहारी में हुआ था। जहाँ उनके पिता रिचर्ड डब्ल्यू ब्लेयर ब्रिटिश हुकूमत के भारतीय सिविल सेवा अधिकारी थे। आरवेल के जन्म के कुछ वर्ष बाद ही रिचर्ड सेवा से सेवानिवृत्त हो गये। जिसके बाद वह वापस इंग्लैंड लौट आए। लेकिन जार्ज आरवेल के जन्म स्थान व उनकी बचपन की याद भारत में रह ही गया। उन्हें प्राथमिक शिक्षा इंग्लैंड में मिली और उनकी प्रसिद्धि दुनिया भर में मिलती रही है। तभी तो टाइम मैगजीन ने 2014 में 1945 के बाद 50 सबसे महत्वपूर्ण ब्रितानी लेखक की सूची तैयार की थी जिसमें आरवेल को दूसरे नम्बर पर रखा था।
बीते 21 जनवरी को उनकी पुण्यतिथि मात्र स्थानीय स्तर पर मनायी गयी जबकि उनके पुण्यतिथि के ठीक दस दिन पहले कुछ शरारती तत्वों ने उनके मूर्ति के साथ छेड़छाड़ की और फिर उन्हें तोड़कर बगल के कुएं में डाल दिया था जिसे स्थानीय प्रशासन को सूचना मिलते ही हरकत में आया और जल्द ही मूर्ति को कुएं से बरामद कर पुनर्स्थापित किया गया। इस तरह की लापरवाही और ऐतिहासिक स्थलों से छेड़छाड़ अनेकों सवाल खड़ा करता है? जबकि आरवेल की मूर्ति को अभी तक अपने मूल स्थान पर स्थापित नहीं की जा सकी है।
आइए उनके भारतीय जीवन व लेखन प्रसंग पर नजर दौड़ाने की कोशिश करते हैं..
बीसवीं सदी के महान अँग्रेजी उपन्यासकार व साहित्यकार जॉर्ज ऑरवेल को कभी कालजयी साहित्यकारों की सूची में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त था। उनकी प्रसिद्ध उपन्यास ‘एनिमल फार्म’ जिसका प्रकाशन 1945 में हुआ था। यह उपन्यास 1917 की रूसी क्रांति के बाद की घटनाओं का एक राजनीतिक चित्रण है, जिसमें लेनिन के बाद स्टालिन ने सोवियत संघ के सत्ता हासिल की थी। उन्होंने जोसेफ स्टालिन और लियोन त्रोटस्की को सूअरों के रूप में दर्शाया है। इसके साथ ही उन्होंने स्टालिन पर तंज कसा है। इस उपन्यास में उन्होंने सूअरों के राज वाले एक देश की बात की है। यह सूअर इंसानों से नफरत करते हैं। जो बाद में सूअर और इंसान दोनों को एक होते हुए दिखाया गया है।
वहीं दूसरी किताब ‘1984’ भी काफी चर्चित रही है। क्योंकि इस किताब को उन्होंने 1948 में ही लिखी थी जबकि किताब का शीर्षक ‘1984’ रखा गया था। जिसमें वह अपने समय से आगे जाकर एक समय की कल्पना करते हैं जिसमें राज सत्ता अपने नागरिकों पर नजर रखती है और उन्हें बुनियादी आजादी देने के पक्ष में भी नहीं है। उन्होंने आगे लिखा है कि वह सत्ता के खिलाफ उठने वाली आवाज को हमेशा के लिए खामोश कर देना चाहता है। विद्रोहियों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है। इस किताब में वे तकनीक से घिरे उस दुनिया की बात करते हैं जहाँ आदमी के निजता का कोई मायने नहीं रखता है।
आरवेल की इस दूरदर्शी सोच व उनकी लेखन शैली ही है, जिसमें वह राजनीति को केन्द्र में रखकर साहित्य रचने वाले दुनिया के चुनिंदा लेखकों में से एक थे। जो फासीवाद, नाजीवाद एवं स्टालिनवाद को समान रूप से देखते थे और दोनों को ही मानवता का संकट भी मानते थे। दुनिया के इस महान साहित्यकार के बारे में पहली बार एक अँग्रेज पत्रकार इयान जैक ने 1983 में दुनिया को बताया कि जॉर्ज ऑरवेल का जन्म बिहार राज्य के मोतिहारी शहर में हुआ था तब पहली बार आरवेल को भारत से जोड़कर देखा गया। और आरवेल के जन्मस्थली को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 2015 में भ्रमण कर संरक्षित करने व संग्रहालय बनाने की घोषणा कर चुके हैं।
लेकिन अभी भी ‘आरवेल हाउस’ विकास को तरस रहा है। जबकि मोतिहारी (चंपारण) जो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की कर्मस्थली रही है। यह संयोग ही है कि दो महान व्यक्तित्व की भूमि चंपारण में ही है जहाँ एक ओर गाँधी के कर्मभूमि को साल 2017 में ‘चंपारण सत्याग्रह शताब्दी’ वर्ष के रूप में खूब धूमधाम से मनाया गया। वहीं आरवेल की जन्मस्थली अब भी उपेक्षित है जो अभी भी स्थानीय लोगों की नजर में अनजान है।
वर्तमान समय में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने देश के अलग-अलग राज्यों में सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी प्राचीन स्मारक, पुरातन स्थल विभिन्न अवशेष एवं पौराणिक मूर्ति को संरक्षण प्रदान करने को लेकर विशेष काम कर रहा है। लेकिन दूसरी ओर ऑरवेल हाउस को अभी भी संरक्षण प्रदान करने वाली संस्था की इंतजार है जो उन्हें अपने सराहनीय प्रयास से ‘आरवेल हाउस’ के उनके बचपन के नन्हें थिरकते पाँव की गवाह आँगन को संजोकर रख सके ताकि भविष्य में हमारी आने वाली पीढ़ी भी आरवेल को उनके कालजयी उपन्यासों से याद कर सच्चा श्रृद्धांजलि अर्पित कर खुद को गौरवान्वित महसूस कर सकें।
स्रोत संदर्भ – हिंदी समय डॉटकॉम
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