शख्सियत

आदिवासी समाज के क्रान्तिकारी नायक बिरसा मुंडा 

 

 

भारत के इतिहास में बिरसा मुंडा (15 नवम्बर 1875 – 9 जून 1900) एक ऐसे आदिवासी नायक हैं जिन्होंने झारखण्ड में अपने क्रान्तिकारी विचारों से उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आदिवासी समाज की दिशा बदलकर नवीन सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया। अँग्रेजों द्वारा थोपे गये काले कानूनों को चुनौती देकर बर्बर ब्रिटिश साम्राज्य को सांसत में डाल दिया। बिरसा मुंडा ने महसूस किया कि आचरण के धरातल पर आदिवासी समाज अन्धविश्वासों की आंधियों में तिनके-सा उड़ रहा है तथा आस्था के मामले में भटका हुआ है। यह भी अनुभव किया कि सामाजिक कुरीतियों के कोहरे ने आदिवासी समाज को ज्ञान के प्रकाश से वंचित कर दिया है।

बिरसा जानते थे कि आदिवासी समाज में शिक्षा का अभाव है, गरीबी है, अन्धविश्वास है। बलि प्रथा पर भरोसा है, हड़िया कमजोरी है, मांस-मछली पसन्द करते हैं। समाज बंटा है, लोगों के  झांसे में आ जाते हैं। धर्म के बिंदु पर आदिवासी कभी मिशनरियों के प्रलोभन में आ जाते हैं, तो कभी ढकोसलों को ही ईश्वर मान लेते हैं। इन समस्याओं के समाधान के बिना आदिवासी समाज का भला नहीं हो सकता इसलिए उन्होंने एक बेहतर नायक  और समाज सुधारक की भूमिका अदा की। अँग्रेजों और शोषकों के खिलाफ संघर्ष भी जारी रखा। उन्हें पता था कि बिना धर्म के सबको साथ लेकर चलना आसान नहीं होगा। इसलिए बिरसा ने सभी धर्मो की अच्छाइयों से कुछ न कुछ निकाला और अपने अनुयायियों को उसका पालन करने के लिए प्रेरित किया। 

भारतीय जमींदारों और जागीरदारों तथा ब्रिटिश शासकों के शोषण की भट्टी में आदिवासी समाज झुलस रहा था। 1 अक्टूबर 1894 को नौजवान नेता के रूप में सभी मुंडाओं को एकत्र कर बिरसा ने अँग्रेजो से लगान माफी के लिये आन्दोलन चलाया। 1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। लेकिन बिरसा और उसके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी  उन्हें उस इलाके के लोगों द्वारा “धरती आबा” के नाम से पुकारा और पूजा जाता था। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।

1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अँग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अँग्रेजों की नाक में दम कर रखा था। अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूँटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अँग्रेज सेनाओं से हुई जिसमें पहले तो अँग्रेजी सेना हार गयी लेकिन बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियाँ हुईं। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण की नाटकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा। पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अन्धविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखण्ड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने ने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। सहयोग और सरकार का रास्ता दिखाया।

सामाजिक स्तर पर आदिवासियों के इस जागरण से जमींदार-जागीरदार और तत्कालीन ब्रिटिश शासन तो बौखलाया ही, पाखंडी झाड़-फूंक करने वालों की दुकानदारी भी ठप हो गयी। ये सब बिरसा मुंडा के खिलाफ हो गये। उन्होंने बिरसा को साजिश रचकर फंसाने की काली करतूतें प्रारम्भ की। यह तो था सामाजिक स्तर पर बिरसा का प्रभाव। दूसरा था आर्थिक स्तर पर सुधार ताकि आदिवासी समाज को जमींदारों और जागीरदारों क आर्थिक शोषण से मुक्त किया जा सके। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली।

आदिवासियों ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आन्दोलन किया। परिणामस्वरूप जमींदारों और जागीरदारों के घरों तथा खेतों और वन की भूमि पर कार्य रुक गया। तीसरा था राजनीतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित करना। चूंकि उन्होंने सामाजिक और आर्थिक स्तर पर आदिवासियों में चेतना की चिंगारी सुलगा दी थी, अतः राजनीतिक स्तर पर इसे आग बनने में देर नहीं लगी। आदिवासी अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग हुए। जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था जिसमें बहुत से औरतें और बच्चे मारे गये थे। उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। बाद में बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारियाँ भी हुईं।


यह भी पढ़ें – स्वाधीनता आन्दोलन की पूर्वपीठिका ‘संथाल हूल विद्रोह’


अन्त में स्वयं बिरसा भी 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में गिरफ़्तार कर लिये गये। ब्रिटिश हुकूमत ने इसे खतरे का संकेत समझकर बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। वहाँ अँग्रेजों ने उन्हें धीमा जहर दिया था। जिस कारण 9 जून 1900 को बिरसा की मृत्यु हो गयी। जिस समय महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी सरकार के खिलाफ लोगों को एकजुट कर रहे थे, लगभग उसी समय भारत में बिरसा मुंडा अंगरेजों-शोषकों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ चुके थे। गाँधी से लगभग छह साल छोटे बिरसा मुंडा का जीवन सिर्फ 25 साल का रहा।

उनका संघर्ष काल भी सिर्फ पांच साल का रहा। लेकिन इसी अवधि में उन्होंने अंगरेजों-शोषकों के खिलाफ जो संघर्ष किया, जिस बिरसावाद को जन्म दिया, उसने बिरसा को अमर कर दिया। आज झारखण्ड की जो स्थिति है, आदिवासी समाज की समस्याएं हैं, उसे बिरसा ने सौ-सवा सौ साल पहले भांप लिया था। यह बताता है कि बिरसा कितने दूरदर्शी थे। इसलिए उन्हें भगवान बिरसा कहा जाता है।

.

Show More

शैलेन्द्र चौहान

लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क +917838897877, shailendrachauhan@hotmail.com
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x