आजाद भारत के असली सितारे – 25
सार्थक सृजन का आदर्श : महाश्वेता देवी
“मेरे लिखने की प्रेरणा वहाँ से आती है जहाँ के लोग शोषित हैं मगर फिर भी हार नहीं मानते। ” महाश्वेता देवी (14.1.1926- 28.7.2016) ने एक प्रश्न के जवाब में यही कहा था।
एक लेखक को क्या लिखना चाहिए? कैसे लिखना चाहिए?किस और कैसी भाषा में लिखना चाहिए? लिखने के लिए कितना त्याग करना चाहिए? इन सभी सवालों का एक जगह और साकार जवाब ढूँढना हो तो उसका उत्तर है महाश्वेता देवी। महाश्वेता देवी के व्यक्तित्व और उनके कृतित्व का अध्ययन कर लीजिए, उक्त सारे प्रश्नों के जवाब मिल जाएँगे।
महाश्वेता देवी का जन्म अविभाजित भारत के ढाका में जिंदाबहार लेन में हुआ था। उनके जन्म के समय माँ धरित्री देवी मायके में थीं। पिता मनीष घटक साहित्यकार के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। माँ की रुचि भी साहित्य की ओर थी। वे समाज सेवा में भी संलग्न रहती थीं। पिता उन्हें ‘तुतुल’ कहते थे बदले में महाश्वेता भी पिता को ‘तुतुल’ ही कहतीं। आजीवन पिता उनके लिए ‘तुतुल’ ही रहे। थोड़ी बड़ी हुईं तो ढाका के इंडेन मांटेसरी स्कूल में भर्ती कराया गया। पिता को नौकरी मिल गई थी। कई बार बदली हुई। तबादले पर उन्हें ढाका, मैंमनसिंह, जलपाईगुड़ी, दिनाजपुर और फरीदपुर जाना पड़ा।
1935 में पिता का तबादला मेदिनीपुर हुआ तो महाश्वेता का वहाँ के मिशन स्कूल में दाखिला कराया गया लेकिन उसके अगले वर्ष उन्हें शांतिनिकेतन भेजने का फैसला किया गया। तब वे दस वर्ष की थीं। उनके सम्पर्क में रहने वाले डॉ. कृपाशंकर चौबे के शब्दों में, “शांतिनिकेतन में महाश्वेता का जल्दी ही मन लग गया। वहाँ उन्हें श्रेष्ठ शिक्षक मिले। बकौल महाश्वेता, ‘आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी पढ़ाते थे। सभी आश्रमवासी उन्हें छोटा पंडित जी कहते थे। 1937 में गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने भी बांग्ला का क्लास लिया था उत्तरायण के बरामदे में। तब सातवीं कक्षा की छात्रा महाश्वेता के लिए यह अविस्मरणीय घटना थी। गुरुदेव ने पाठ परिचय से बलाई पढ़ाया था। इसके पहले 1936 में बंकिम शतवार्षिकी समारोह में रवींद्रनाथ का भाषण सुना था महाश्वेता ने। “
तीन साल बाद अर्थात 1939 में वे कलकत्ता आ गयीं। कलकत्ता के बेलतला बालिका विद्यालय में आठवीं कक्षा में उनका दाखिला हुआ। उसी साल उनके काका ऋत्विक घटक भी घर आकर रहने लगे। वे 1941 तक यहाँ रहे। 1939 में बेलतला स्कूल में महाश्वेता की शिक्षिका थीं अपर्णा सेन। उनके बड़े भाई खगेंद्रनाथ सेन ‘रंगमशाल’ निकालते थे। उन्होंने एक दिन रवींद्रनाथ की पुस्तक ‘छेलेबेला’ देते हुए महाश्वेता से उस पर कुछ लिखकर देने को कहा। महाश्वेता ने लिखा और वह ‘रंगमशाल’ में छपा भी। यह महाश्वेता की पहली रचना थी।
अंग्रेजी की पढ़ाई महाश्वेता ने बेलतला बालिका विद्यालय से ही शुरू की। वहाँ इंग्लिश पढ़ना अनिवार्य था। इस तरह पुस्तक प्रेम बचपन से ही रहा। पिता की भी बड़ी समृद्ध लाइब्रेरी थी। 1942 में घर के सारे कामकाज करते हुए महाश्वेता ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। उस वर्ष ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन ने महाश्वेता के किशोर मन को बहुत उद्वेलित किया। 1943 में अकाल पड़ा। तब महिला आत्मरक्षा समिति के नेतृत्व में उन्होंने राहत और सेवा कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।
अकाल राहत व सेवा कार्यों में महाश्वेता की संगिनी थीं तृप्ति भादुड़ी (मित्र)। ये दोनों सहपाठी थीं। दोनों एक दिन काली घाट में शिरीष के एक पेड़ के नीचे लगे राहत शिविर में गयीं। वहाँ लोगों को मरते हुए देखा। ऐसी कई मौतों की वे प्रत्यक्षदर्शी थीं। इसका उनके जीवन और चिंतन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
1944 में महाश्वेता ने कलकत्ता के आशुतोष कालेज से इंटरमीडिएट किया। पारिवारिक दायित्व से कुछ मुक्ति मिली। यानी वह भार छोटी बहन मितुल ने सँभाला तो महाश्वेता फिर शांतिनिकेतन गयीं कालेज की पढ़ाई करने। वहाँ ‘देश’ के संपादक सागरमय घोष आते-जाते थे। उन्होंने महाश्वेता से ‘देश’ में लिखने को कहा। तब महाश्वेता बीए तृतीय वर्ष में थीं। उस दौरान उनकी तीन कहानियाँ ‘देश’ में छपीं। हर कहानी पर दस रुपये का पारिश्रमिक मिला था। तभी उन्हें बोध हुआ कि लिख-पढ़कर भी गुजारा संभव है। उन्होंने शांतिनिकेतन से 1946 में अंग्रेजी में आनर्स किया।
1947 में प्रख्यात रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से उनका विवाह हुआ। बिजन, ऋत्विक घटक की फिल्मों के लिए काम कर चुके थे और बंगाल में इप्टा के संस्थापकों में से एक थे। खुद एक नाटककार की हैसियत से बिजन का कद बड़ा था और उनसे शादी का निर्णय महाश्वेता का अपना था। महाश्वेता ने उनसे शादी करने के बाद, उनके साथ जीकर अपने लेखकीय जीवन के आयाम खोजे। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि बिजन के प्रभाव से उनमें प्रगतिशीलता, लेखन और आन्दोलनों को लेकर एक समझ पैदा हुई, जिसने दूर तक उनका साथ निभाया।
विजन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। वह समय कम्युनिस्टों के लिए बहुत मुश्किलभरा था। कम्युनिस्टों को अन्न-वस्त्र जुटाने के लिए काम ढूँढ़ने में काफी मुश्किलें पेश आती थीं। उसी वर्ष पुत्र नवारुण भट्टाचार्य का जन्म हुआ। 1949 में महाश्वेता को केन्द्र सरकार के डिप्टी एकाउंटेट जनरल, पोस्ट एंड टेलीग्राफ ऑफिस में अपर डिवीजन क्लर्क की नौकरी मिली। लेकिन एक वर्ष के भीतर ही, चूँकि पति कम्युनिस्ट थे, सो उनकी नौकरी चली गयी। नौकरी जाने के बाद जीवन-संग्राम ज्यादा कठिन हो गया। महाश्वेता ने कपड़ा साफ करने के साबुन की बिक्री से लेकर ट्यूशन करके घर का खर्चा चलाया। यह क्रम 1957 में रमेश मित्र बालिका विद्यालय में मास्टरी मिलने तक चला। विजन भट्टाचार्य से विवाह होने से ही महाश्वेता जीवन संग्राम का यह पक्ष महसूस कर सकीं और एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत परिवार की लड़की होने के बावजूद स्वेच्छा से क्रान्तिकारी जीवन का रास्ता चुन सकीं।
संघर्ष के इन दिनों ने ही लेखिका महाश्वेता को भी तैयार किया। उस दौरान उन्होंने खूब रचनाएँ पढ़ीं। विश्व के मशहूर लेखकों-चिंतकों की रचनाएँ मसलन्टालस्टाय, गोर्की, चेखव, सोल्झेनित्सिन, मायकोवस्की आदि की पुस्तकें उन्होंने पढ़ीं। उन्होंने दरिद्रता, भूख, बेबसी, शोषण को नजदीक से देखा। उसी समय विजन भट्टाचार्य को एक हिन्दी फिल्म की कहानी लिखने के सिलसिले में मुंबई जाना पड़ा। उनके साथ महाश्वेता भी गयीं। मुंबई में महाश्वेता के बड़े मामा सचिन चौधरी थे। मामा के यहाँ ही महाश्वेता ने पढ़ा – वी.डी. सावरकर, 1857। उससे इतनी प्रभावित हुईं कि उनके मन में भी इसी तरह का कुछ लिखने का विचार आया। तय किया कि झाँसी की रानी पर वे किताब लिखेंगी। उन पर जितनी किताबें थीं, सब जुटाकर पढ़ा।
महाश्वेता ने प्रतुल गुप्त को अपने मन की बात बताई कि वे झाँसी की रानी पर लिखना चाहती हैं। महाश्वेता ने झाँसी की रानी के भतीजे गोविंद चिंतामणि से पत्र व्यवहार शुरू किया। सामग्री जुटाने और पढ़ने के साथ-साथ उत्साहित होकर महाश्वेता ने लिखना भी शुरू कर दिया। फिर उन्हें लगा कि झाँसी की रानी के बारे में और जानना पड़ेगा। झांसी की रानी के भीतर झाँकना पड़ेगा। उस क़िरदार में छिपी एक संपूर्ण नारी और उसके मन को खोजना पड़ेगा। लिहाज़ा उन्होंने स्थानीय लोगों की श्रुति परम्परा में छिपे प्रसंगों को जानने के उद्देश्य से झाँसी की यात्रा करने का निर्णय लिया।
इसके लिए उन्हें कठोर फैसला लेना पड़ा। अपने छह वर्ष के बेटे नवारुण और पति को कलकत्ता में छोड़कर अंततः 1954 मेंवे झाँसी चली गयीं। तब न पति के पास नौकरी थी न उनके पास। उन्होंने अकेले बुंदेलखण्ड के चप्पे-चप्पे को अपने कदमों से नापा। वहाँ के लोकगीतों को कलमबद्ध किया। तब झाँसी की रानी की जीवनी लिखने वाले वृंदावनलाल वर्मा झाँसी कैंटोनमेंट में रहते थे। उनके परामर्श लेकर झाँसी की रानी से जुड़े कई स्थानों का उन्होंने दौरा किया। वहाँ से लौटकर महाश्वेता ने ‘झाँसीर रानी’ लिखी और ‘देश’ नामक प्रसिद्ध पत्रिका में यह रचना धारावाहिक छपने लगी। ‘न्यू एज’ ने इसे पुस्तक के रूप में छापने के लिए महाश्वेता को पाँच सौ रुपये दिये। इस तरह महाश्वेता देवी की पहली किताब 1956 ई.में प्रकशित हुई।
‘झाँसी की रानी’ किताब तो छप गयी किन्तु उनकी पारिवारिक जिन्दगी उससे बहुत प्रभावित हुई। महाश्वेता ने यात्राएँ करना, आन्दोलनों से जुड़ना और यथार्थपरक लेखन को अपनी जीवन-चर्या बना लिया था। उनकी निजी जिन्दगी में उतार-चढ़ाव आते रहे। किन्तु, महाश्वेता ने अपने काम और सामाजिक जीवन से समझौता न करने का निश्चय कर लिया था। नतीजा यह हुआ कि 1962 में बिजन भट्टाचार्य से उन्हें तलाक लेना पड़ा। क्योंकि स्थिति ज्यादा खराब हो चुकी थी। बिजन चाहते थे कि महाश्वेता परिवार की तरफ पूरा ध्यान दें, जबकि महाश्वेता देवी की प्राथमिकताएँ दूसरी थीँ। महाश्वेता ने बहुत कठोर निर्णय लिया। उन्होंने अपने लक्ष्य को तरजीह दी और अपने 14 साल के बेटे को उसके पिता विजन को सुपुर्द कर अपने सफ़र पर आगे बढ़ने का फ़ैसला किया। एक स्त्री के लिए ये सारे फ़ैसले आसान नहीं थे। इस दौरान कई महीनों तक महाश्वेता डिप्रेशन में रहीं। यहाँ तक कि, उन्होंने खुदकशी तक की कोशिश की। लेकिन, फिर जीवन मिला तो उन्होंने इसे नये सिरे से जीने की ठानी। विजन के साथ जब रिश्ता खत्म हो रहा था, महाश्वेता तब प्राइवेट छात्र के तौर पर अंग्रेज़ी में मास्टर डिग्री कर रही थीं क्योंकि शादी से पहले वे ग्रैजुएट हो पाई थीं और शादी के तुरंत बाद तमाम ज़िम्मेदारियों के चलते पोस्ट ग्रेजुएशन नहीं कर सकी थी।
असीत गुप्त से उन्होंने दूसरा विवाह किया। किंतु उनसे भी 1975 में विवाह-विच्छेद हो गया। उसके बाद उन्होंने लेखन और आदिवासियों के बीच रहकर हमेशा सृजनात्मक कार्यों में अपने को व्यस्त रखा। यह भी गौर करने योग्य है कि महाश्वेता कभी कर्तव्य से च्युत नहीं हुईं। घर में बेटी, दीदी, पत्नी, माँ और दादी माँ की भूमिका उन्होंने बखूबी निभाई। तीसरी पीढ़ी के बच्चे भी महाश्वेता के घर आकर ज्यादा आजादी व आनंद का अनुभव करते थे। भाई बहन के बच्चों के साथ महाश्वेता का व्यवहार भी बहुत ही आत्मीय और अनौपचारिक रहता था। दो-दो बार विवाह-विच्छेद होने के बावजूद उनके सम्मान पर कोई आँच नहीं आई। उनके तलाकसुदा पति भी उनका बहुत सम्मान करते थे। इसलिए विवाह-विच्छेद के बाद भी विजन या असीत ने महाश्वेता के विरुद्ध या महाश्वेता ने उन दोनों के विरुद्ध कभी कुछ नहीं कहा। विजन की मुत्यु के बाद महाश्वेता दिन भर वहाँ रहीं। वहाँ महाश्वेता की उपस्थिति को बहुत सम्मान दिया गया।
‘हजार चौरासी की माँ’, ‘रुदाली’, ‘आक्लांत कौरव’, ‘अग्निगर्भ’, ‘अमृत संचय’, ‘आदिवासी कथा’, ‘ईंट के ऊपर ईंट’,’ उन्तीसवीं धारा का आरोपी’, ‘उम्रकैद’, ‘कृष्ण द्वादशी’, ‘ग्राम बांग्ला’, ‘घहराती घटाएँ’, ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’, ‘जंगल के दावेदार’, ‘जकड़न’, ‘जली थी अग्निशिखा’, ’झाँसी की रानी’, ‘टेरोडैक्टिल’, ‘नटी’, ‘बनिया बहू’, ‘मर्डरर की माँ’, ‘मातृछवि’,’मास्टर साब’, ‘मीलू के लिए’,’रिपोर्टर’, ‘श्री श्री गणेश महिमा’, ‘स्त्री पर्व’, ‘स्वाहा’ आदि उनकी बाँग्ला से हिन्दी में अनूदित कृतियाँ है। इनमें उपन्यास, कहानियाँ, लघुकथाएं, आत्मकथा, निबन्ध, यात्रा-संस्मरण, नाटक आदि सबकुछ है। महाश्वेता देवी की एक सौ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं।
1979 में महाश्वेता देवी को उनके उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। इस उपन्यास में आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की गाथा है। जब इस किताब पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो आदिवासियों ने जगह-जगह ढाक बजा-बजाकर उत्सव मनाया था। तब मुंडा नाम से ही उनमें असीम गौरव बोध जगा था। मुंडाओं ने महाश्वेता देवी का अभिनंदन करने के लिए उन्हें अपने यहाँ (मेदिनीपुर में) बुलाया। उस सभा में आदिवासी वक्ताओं ने कहा था – ‘मुख्यधारा ने हमें कभी स्वीकृति नहीं दी। हम इतिहास में नहीं थे। तुम्हारे लिखने से हमें स्वीकृति मिली। ‘ साहित्य अकादमी पाने पर महाश्वेता को जितनी खुशी नहीं हुई, उससे ज्यादा इन आदिवासियों की प्रसन्नता से हुई।
इसके बाद महाश्वेता को लगा, आदिवासियों के बारे में उनका दायित्व और बढ़ गया है। उन्होंने आदिवासियों के लिए यथासंभवकाम करते रहने और उनके बारे में और भी अधिक जानने की कोशिश जारी रखा। वे मुंडा-विद्रोह और खेड़िया-विद्रोह पढ़कर ही बैठ नहीं गयीं। जहाँ जो भी मिलता, पढ़तीं। जितना बन पड़ता, काम करतीं। आदिवासी इलाकों में जातीं, उनके सुख-दुख में शरीक होतीं। उनका लेखन शोषित शासित आदिवासी समाज और उत्पीड़ित दलितों में केन्द्रित हो गया। न्यूनतम मजदूरी, मानवीय गरिमा, सड़क, पेयजल, अस्पताल, स्कूल की सुविधा से वंचित भूमिहीन होने को अभिशप्त इन आदिवासियों और दलितों के जीवन को महाश्वेता देवी ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।
महाश्वेता देवी के सम्पर्क में रहने वाले और उनपर विस्तार से लिखने वाले डॉ. कृपाशंकर चौबे लिखते हैं,
“महाश्वेता की रचनाएँ अन्याय के विरुद्ध इन्सान के संघर्ष की महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। उनकी कृतियों को पढ़ना इतिहास में भिन्न-भिन्न कालखण्ड की समाज व्यवस्था और तब व्यवहार होनेवाली जनभाषा और शोषक व शोषितों के बीच संघर्ष के सभी पहलुओं से वाकिफ होना है। उदाहरण के लिए महाश्वेता की शवदाह और मृत्यु पर कई कथाकृतियाँ हैं लेकिन उनमें भिन्न समाजों, भिन्न तबकों में भिन्न तरीके के लोकाचार हैं। बिरसा मुंडा ने मृतदेह का पैसा लेकर खाद खरीदा था क्योंकि पैसा तो मृतदेह के काम आएगा नहीं। वह तो जीवन के ही काम आएगा। जीवित व्यक्ति के लिए ही तो अन्न की आवश्यकता है। इसी अपराध में वह अपने समाज से बहिष्कृत होता है और जंगल में चला जाता है जहाँ उसे लगता है कि आदिवासियों को शिक्षित करने की जरूरत है। जल, जंगल और जमीन पर उनके अधिकार का आदिवासियों में बोध कराने के लिए संग्राम चलाने का वह फैसला करता है। अपने उपन्यास ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) में महाश्वेता समाज में व्याप्त मानवीय शोषण और उसके विरुद्ध उबलते विद्रोह को उम्दा तरीके से रखांकित करती हैं। ‘अरण्येर अधिकार’ में उस बिरसा मुंडा की कथा है जिसने सदी के मोड़ पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनजातीय विद्रोह का बिगुल बजाया। मुंडा जनजाति में समानता, न्याय और आजादी के आन्दोलन का सूत्रपात बिरसा भगवान ने अंग्रेजों के खिलाफ किया था। असफलता हाथ लगी लेकिन आन्दोलन के पतन से सपनों का अंत नहीं होता। सपने निरन्तर कुलबुलाते हैं। “
महाश्वेता देवी लिखती हैं, “जल, जंगल, जमीन. महज एक नारा नहीं, एक युग है। संघर्ष, बलिदान, जूझने की आदत से भरा-पूरा, सच्चा वाला, अहंकार से परे, दुनियावी झमेलों से कोसों दूर। इसके आगोश में सुकून है, जो खरीदा नहीं जा सकता। किसी भी कीमत पर। अंग्रेज, क्या लेकर आए थे और क्या देकर चले गये। ‘लालच’। अंग्रेज हुकूमत करने के शौक़ीन थे। संभव की हद से पार जाकर भी। उनकी हुकूमत खत्म हुई मगर उनके निशाँ बँचे रह गये। स्वदेशी हुकूमत की शक्ल में। ”
पलामू के बँधुआ मजदूरों के बीच काम करते हुए महाश्वेता देवी ने बहुत सी सामग्री एकत्रित किया था जिसका इस्तेमाल करते हुए उन्होंने निर्मल घोष के साथ मिलकर ‘भारत के बँधुआ मजदूर’ नामक पुस्तक लिखी। इसी तरह ‘डस्ट ऑन रोड’ पुस्तक में आदिवासियों के सुख –दुख के बारे में समय- समय पर लिखे गये लेख संकलित हैं। इसका संपादन महाश्वेता देवी के छोटे भाई मैत्रेई घटक ने किया है।
1980 में उन्होंने ‘वर्तिका’ नामक पत्रिका का संपादन शुरू किया। इस पत्रिका का संपादन इसके पहले उनके पिता मनीष घटक करते थे। बतौर कृपाशंकर चौबे महाश्वेता ने पत्रिका का चरित्र ही बदल डाला। उनके संरक्षण में ‘वर्तिका’ एक ऐसा मंच बन गया जिसमें छोटे किसान, खेत मजदूर, आदिवासी, करखानों में काम करने वाले मजदूर, रिक्शा चालक आदि अपनी समस्याओं के बारे में लिखते थे। इसमें मेदिनीपुर के लोधा और पुरुलिया के खेड़िया शबर आदिवासियों ने खूब लिखा। इस तरह ‘वर्तिका’ के जरिए महाश्वेता ने बांग्ला में वैकल्पिक साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नवीन कार्य किया। उन्होंने बँधुआ मजदूर, किसान, फैक्टरी मजदूर, ईंट भट्ठा मजदूर, आदिवासियों को जमीन से बेदखल किये जाने के सवाल तथा बंगाल के हर एक आदिवासी समुदाय पर ‘वर्तिका’ के विशेष अंक निकाले। उन्होंने बांगलादेश और अमेरिका के आदिवासियों पर भी विशेषांक निकाले।
महाश्वेता देवी की कई रचनाओं पर फिल्में बन चुकी हैं। ‘रुदाली ‘ नामक उपन्यास पर कल्पना लाज़मी ने ‘रुदाली’ तथा ‘हजार चौरासी की माँ’ पर इसी नाम से 1998 में फिल्मकार गोविन्द निहलानी ने फ़िल्म बनाई। ‘लायली असमानेर आयना’ पर ‘संघर्ष’ नाम से भी फिल्म बनी। महाश्वेता देवी को1986 में‘पद्मश्री’ तथा 1997 में भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित किया गया। उन्हें 2006 में ‘पद्मविभूषण’ तथा 2011 में ‘बंग विभूषण’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हें नेल्सन मंडेला के हाथों प्रदान किया गया था। इस पुरस्कार में मिले 5 लाख रुपये इन्होंने बंगाल के पुरुलिया आदिवासी समिति को दे दिया था। वर्ष 1997 में महाश्वेता देवी को रेमन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बंगाल का भद्र समाज अपनी प्रिय लेखिका का बहुत सम्मान करता था। बंगाल में तीन दशक से भी ज्यादा समय से कायम रहने वाली वामफ्रंट सरकार की औद्योगिक नीति जब जनविरोधी होने लगी तथा सिंगूर और नंदीग्राम जैसी घटनाएं हुईं तो वामपंथी विचारों वाली महाश्वेता देवी नें वामफ्रंट सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए मोर्चा सँभाल लिया। 2011 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले ‘परिवर्तन’ की अपील करते हुए उन्होंने तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो का समर्थन किया था। वे चुनाव के दौरान ममता बनर्जी के साथ मंच साझा करने लगीँ। जनता पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ा और वामफ्रंट हार गया। किन्तु कुछ वर्ष बाद ही ममता बनर्जी की जनविरोधी नीतियों के कारण वे उनके भी खिलाफ बोलने लगीँ। सच है, एक ईमानदार साहित्यकार का चरित्र हमेशा सत्ता–विरोधी होता है।
‘अपनी भाषा’ संस्था से उनका गहरा लगाव था। पहली बार संभवत: 2003 में ‘अपनी भाषा’ की एक संगोष्ठी में आमंत्रित करने के लिए मैं उनके घर गया था। उस समय वे बहुत प्रतिष्ठित हो चुकी थीँ। लेकिन उनकी सादगी और उनका रहन सहन देखकर मैं चकित था। आर्थिक अभाव उन्हें नहीं था। पुस्तकों की रायल्टी तथा पुरस्कारों के रूप में उन्हें पर्याप्त धन मिलता था किन्तु वह सारा रूपया वे आदिवासियों के लिए खर्च कर देती थीं। मैंने देखा, वे दो कमरे के एक छोटे से फ्लैट में रहती थी। वहाँ अतिथियों को बैठने के लिए प्लास्टिक की तीन-चार कुर्सियाँ रखी हुई थीं। उन्होंने बड़े प्यार से चाय पिलाई थी और हमारे आमंत्रण को स्वीकार करके आयोजन में उपस्थित हुई थीं। इसके बाद 12 नवम्बर 2006 को ‘अपनी भाषा’ की ओर से भारतीय भाषा परिषद में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में भी वे आई थीं और समारोह का उद्घाटन किया था। इसबार भी उन्होंने बहुत यादगार व्याख्यान दिया था।
वरिष्ठ पत्रकार प्रिय दर्शन ने उनके बारे में ठीक कहा है कि,“बुढ़ापा जैसे उनसे दूर छिटकता था। वे हमेशा जैसे किसी मोर्चे पर दिखती थीं – चौकन्नी या तैयार नहीं, बल्कि बेफ़िक्र, जैसे लड़ना उनके लिए जीने के सहज अभ्यास का हिस्सा हो। मेरी एक मुलाकात उस दिन की थी जब एक छोटी सी लड़ाई वे हार चुकी थीं। 2003 में साहित्य अकादेमी के अघ्यक्ष पद के चुनाव में गोपीचंद नारंग ने उन्हें हरा दिया था। लेकिन इस हार का कोई मलाल उनके चेहरे पर नहीं था। मैंने उनकी प्रतिक्रिया पूछी तो उन्होंने कहा कि जीतने वाला हमेशा सही नहीं होता। “
28 जुलाई 2016 को 90 बरस की उम्र में उन्होंने आखिरी सांस ली। 22 मई को कोलकाता के बेल व्यू नर्सिंग होम में उन्हें भर्ती कराया गया था। पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री उन्हें देखने अस्पताल गयी थीं। उनके शरीर के कई महत्वपूर्ण अंगों ने काम करना बन्द कर दिया था। बाद में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
उनके 92वें जन्मदिन के अवसर पर समाज के प्रति उनके योगदान को स्मरण करते हुए गूगल ने उनके ऊपर डूडल बनाकर उन्हें याद किया।
और अंत में महाश्वेता देवी की एक कविता-
“आ गये तुम,
द्वार खुला है अंदर आओ…!
पर तनिक ठहरो,
ड्योढ़ी पर पड़े पायदान पर
अपना अहं झाड़ आना…!
मधुमालती लिपटी हुई है मुंडेर से,
अपनी नाराज़गी वहीं
उंडेल आना…!
तुलसी के क्यारी में,
मन की चटकन चढ़ा आना…!
अपनी व्यस्तताएँ,
बाहर खूँटी पर ही टाँग आना.
जूतों संग हर नकारात्मकता
उतार आना…!
बाहर किलोलते बच्चों से
थोड़ी शरारत माँग लाना…!
वो गुलाब के गमले में मुस्कान लगी है,
तोड़ कर पहन आना…!
लाओ अपनी उलझनें
मुझे थमा दो,
तुम्हारी थकान पर
मनुहारों का पंखा झुला दूँ…!
देखो शाम बिछाई है मैंने,
सूरज क्षितिज पर बाँधा है,
लाली छिड़की है नभ पर…!
प्रेम और विश्वास की मद्धम आँच पर
चाय चढ़ाई है,
घूँट घूँट पीना,
सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं है जीना…!”
हम महाश्वेता देवी के 95 वें जन्मदिन पर उनके द्वारा किये गये साहित्यिक व सामाजिक योगदान का स्मरण करते हैं और उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
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