क्यों अड़ गये हैं किसान
मई, 2019 में पहले से कहीं अधिक बहुमत से सत्ता में आने वाली मोदी सरकार (क्योंकि अब यह एनडीए या भाजपा सरकार से कहीं अधिक इसी रूप में जानी जाती है) को अंदाजा नहीं रहा होगा कि उसने जो तीन नए कृषि विधेयक आनन-फानन में संसद में पारित करवाए थे, उसकी परिणति राजधानी दिल्ली की ‘घेराबन्दी’ के रूप में होगी। 22 दिसम्बर को इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कड़कड़ाती ठंड में राजधानी दिल्ली में प्रवेश के तीन प्रमुख मार्गों सिंघु बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर में हजारों किसान हाईवे और उसके आसपास डेरा डाले हुए हैं और सरकार के साथ कोई सुलह होती नहीं दिख रही है।
यह महज इत्तफाक नहीं है कि किसान संगठनों ने इन कानूनों के विरोध में ‘दिल्ली कूच’ करने के लिए 26 नवम्बर का दिन चुना था। 1949 को इसी दिन संविधान को मंजूरी मिली थी। प्रतीकों को अपनी राजनीति का अहम हिस्सा बनाने वाली मोदी सरकार ने संविधान निर्माता भीमराव आंबेडकर की 125 वीं जयंती वर्ष पर 26 नवम्बर, 2015 को संविधान दिवस घोषित किया था और अब हर साल यह दिन इसी रूप में मनाया भी जाता है। शायद किसानों ने यह सोचा होगा कि दिल्ली कूच के लिए और सरकार को संदेश देने के लिए 26 नवम्बर से बेहतर कोई और दिन नहीं हो सकता।
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी, गृह मन्त्री अमित शाह, कृषि मन्त्री नरेंद्र सिंह तोमर, सहित अनेक वरिष्ठ मन्त्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमन्त्री और यहाँ तक कि 1991 में नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद से विकास के नए मॉडल के पैरोकार बनकर उभरे विशेषज्ञ, आर्थिक विश्लेषक और स्तम्भकार इन कानूनों को किसानों और कृषि के हक में सबसे बड़ा सुधार बताते नहीं थक रहे हैं, मगर यह आन्दोलन कहीं से कमजोर पड़ता नहीं दिख रहा है। आखिर सरकार पर किसानों का एक बड़ा वर्ग भरोसा क्यों नहीं कर पा रहा है? क्या वाकई ये तीन कृषि कानून क्रांतिकारी सुधार लाने वाले हैं? किसानों को ऐसा क्यों लग रहा है कि ये कानून आखिरकार कॉरपोरेट को ही फायदा पहुंचाएंगे? इन सवालों के जवाब तलाशें, तो पता चलेगा कि स्वतन्त्र भारत के इतिहास में देश वाकई एक बड़े बदलाव से गुजर रहा है, मगर जिस रफ्तार से और जिस आक्रामकता के साथ यह बदलाव लाने की कोशिश है, वह संदेह पैदा करती है।
कोविड-19 के कारण जब देश में लॉकडाउन लागू था और संसद स्थगित थी, केंद्र सरकार ने जून के पहले हफ्ते में कृषि सुधार के नाम पर तीन अध्यादेश लागू किए थे, और उसी समय से पंजाब और हरियाणा में किसानों ने इनका विरोध शुरू कर दिया था।
बाद में इन्हीं अध्यादेशों से सम्बन्धित विधेयकों को सरकार ने संसद से मंजूरी दिलवाईः पहला, कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम; दूसरा, मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण एवं सशक्तीकरण) समझौता और कृषि सेवा अधिनियम; तीसरा, आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम। बहुत सरल शब्दों में कहें, तो आन्दोलनकारी किसानों को इन कानूनों और सरकार की नीयत पर भरोसा नहीं है। उन्हें मोटे तौर पर जो आपत्तियां हैं, वे यह हैं कि इन कानूनों से एपीएमसी मंडियां और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था ही खत्म हो जाएगी और कालांतर में उनकी जमीन कॉरपोरेट के हाथों में चली जाएगी। किसान चाहते हैं कि ये तीनों कानून निरस्त किए जाएं और एमएसपी अनिवार्य करने के लिए नया कानून लाया जाए। सरकार इन कानूनों में संशोधन की बात कर रही है, मगर इनके प्रावधान के मुताबिक किसान अपनी लड़ाई को अदालत तक भी नहीं ले जा सकेंगे! वाकई स्वतन्त्र भारत के ये अनूठे कानून हैं, जिनमें उसके नागरिकों को न्याय पाने के सांविधानिक अधिकार से ही वंचित करने का प्रावधान किया गया है।
दरअसल मई, 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह सरकार प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी को एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत करती आई है, मानो उनसे कोई गलती हो ही नहीं सकती और जिनके फैसलों और नीतियों पर सवाल नहीं किए जा सकते। सरकार दिखाना चाहती है कि वह किसी दबाव में आकर अपना कोई फैसला या कानून नहीं बदलेगी। वह यह मानने को तैयार नहीं है कि उसके फैसलों से आम लोगों को किसी तरह की तकलीफ हो सकती है। आठ नवम्बर, 2016 को रात आठ बजे राष्ट्रीय संबोधन के जरिये प्रधानमन्त्री मोदी द्वारा पाँच सौ और हजार रुपये के नोटों को अचानक अवैधानिक करार देने की घोषणा ऐसा ही फैसला था, जिसने लाखों लोगों को कतार में खड़ा कर दिया था। इसी साल मार्च के दूसरे हफ्ते में कोरोना वायरस के संक्रमण के मामले बढ़ने पर प्रधानमन्त्री मोदी ने जब कुछ घंटे के नोटिस पर 24-25 मार्च मध्य रात्रि से पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा की तो अंदाजा नहीं था कि उसकी प्रतिक्रिया लाखों प्रवासी मजदूरों की घर वापसी के रूप में होगी। फिर भी सरकार मानने को तैयार नहीं कि संक्रमण को रोकने के लिए इस फैसले को कुछ बेहतर तैयारियों के साथ लागू किया जा सकता था। हजारों लोग बदहवासी में जिस तरह से पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांव-घर की ओर लौट रहे थे, वे दृश्य अब हमारी सामूहिक चेतना में देश के विभाजन से उपजी शरणार्थी त्रासदी के बाद दूसरी बड़ी मानवीय त्रासदी के रूप में दर्ज हो चुके हैं। नए कृषि कानून मोदी सरकार का ऐसा ही तीसरा फैसला है, जिसमें लोकतांत्रिक और संसदीय कायदों को दरकिनार कर दिया गया।
नोटबन्दी, लॉकडाउन और नए कृषि कानून, इन तीनों में यों तो कोई सीधा सम्बन्ध नजर नहीं आता, लेकिन ये तीनों देश के आम आदमी से सीधे जुड़े कदम हैं, जिन्होंने आर्थिक आधार पर बढ़ती खाई को और गहराई से रेखांकित किया है। इनमें एक बड़ा फर्क यह है कि नोटबन्दी और लॉकडाउन से उपजी परिस्थितियों को लोगों ने खामोशी से सह लिया। इन फैसलों के विरोध में कोई सामूहिक प्रतिक्रिया नजर नहीं आई। मगर नए कृषि कानूनों को लेकर जिस तरह से किसान संगठन लम्बे समय से आन्दोलन कर रहे हैं, उसने पहली बार मोदी सरकार को असहज और परेशान कर दिया है। कृषि कानूनों से पहले जून में इनसे सम्बन्धित अध्यादेश लाए जाने के बाद से ही पंजाब और हरियाणा में इनका विरोध शुरू हो गया था। विगत दो महीने से पंजाब में किसानों ने रेल परिवहन ठप कर रखा था और अब नए कृषि कानूनों के विरोध ने वहाँ एक जनांदोलन का रूप ले लिया है। देश के सात दशक के इतिहास में संभवतः यह पहला मौका है, जब किसी सरकार के किसी कदम के खिलाफ किसी आन्दोलन में कोई एक राज्य राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से इस तरह एकजुटता दिखा रहा है। मोदी सरकार के सारे मन्त्री यही जताने की कोशिश करते रहे हैं कि यह सिर्फ पंजाब का आन्दोलन है।
हकीकत यह है कि नए कृषि कानूनों से उपजा संकट बहुत व्यापक है और सिर्फ पंजाब तक सीमित नहीं है। इस आन्दोलन ने कृषि और कॉरपोरेट के बीच की उस लड़ाई को सड़क पर ला दिया है, जो अब तक अन्यथा अखबारों और पत्रिकाओं के लेख और बौद्धिक बहसों या फिर सीमित होती जा रही संसद की बहसों तक सीमित थी। जाहिर है, यह लड़ाई सिर्फ पंजाब और हरियाणा के किसानों तक सीमित नहीं है। इसे समझने के लिए नाबार्ड के अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय सर्वेक्षण 2016-17 के इस आंकड़े पर गौर कीजिए जिसके मुताबिक खेतिहर परिवारों की औसत मासिक आय पंजाब में 23,133 रुपये के साथ सर्वाधिक थी और यह राष्ट्रीय औसत 8,931 रुपये से अधिक थी। हरियाणा में यह 18,496 रुपये, केरल में 16,927 रुपये, उत्तर प्रदेश में 6,668 रुपये और बिहार में सिर्फ 7,175 रुपये थी। तर्क यह दिया जाता है कि ये किसान आन्दोलन पंजाब के अमीर किसानों का आन्दोलन है। यह तर्क इस आन्दोलन की प्रकृति और किसानों तथा कृषि से जुड़े मूल सवालों को ही नजरंदाज कर देता है। आगे बढ़ने से पहले सिर्फ यह जान लीजिए कि 2015-16 की कृषि जनगणना के मुताबिक पंजाब में 33.1 फीसदी किसान छोटे और सीमांत हैं, दो हेक्टेयर यानी पाँच एकड़ से कम जमीन और 33.6 फीसदी के पास दो से चार हेक्टेयर जमीन है। यही हाल हरियाणा का है। दरअसल इन दोनों राज्यों में एपीएमसी मंडी की व्यवस्था सबसे बेहतर है और वहाँ सरकारी खरीद की व्यवस्था एकदम पुख्ता है। वहाँ के किसानों को लग रहा है कि यदि मंडी व्यवस्था खत्म हुई तो उनका हाल भी बिहार के किसानों जैसा हो सकता है। यह लड़ाई दरअसल बिहार के किसान को पंजाब के किसान जैसा बनाने की भी है, न कि इसका उलट।
बात सिर्फ इन कृषि कानूनों की नहीं है, कृषि सुधार की जब जब बात आती है, तो यही तर्क दिया जाता है कि देश की जीडीपी में खेती की सिर्फ 16-17 फीसदी की हिस्सेदारी है और इस पर साठ फीसदी आबादी निर्भर है। इसका परोक्ष अर्थ है कि खेती से इस बड़ी आबादी को हटाया जाए। पर सवाल है कि इस आबादी को कहाँ लगाया जाएगा? इस सवाल का जवाब आपको शहरीकरण की उसी बेतरतीब अवधारणा की ओर ले जाएगा जिसका हस्र कोरोना के कारण लगाए गये लॉकडाउन के दौरान महानगरों के हाईवे पर नजर आया था, जब लाखों लोगों के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया था। सरकार के अपने आंकड़े बताते हैं कि घनघोर संकट के समय ग्रामीण रोजगार से जुड़ा मनरेगा जैसा कार्यक्रम ही काम आया। यही नहीं, खुद मोदी सरकार ने लॉकडाउन से उपजी परिस्थितियों से निपटने के लिए 80 करोड़ लोगों को यानी करीब दो तिहाई आबादी को अप्रैल से नवम्बर के दौरान करीब आठ महीने तक प्रधानमन्त्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत हर महीने मुफ्त अनाज वितरण की व्यवस्था शुरू की थी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पूरी तरह से खाद्यान्न की एमएसपी पर की जाने वाली सरकारी खरीद पर ही निर्भर है और जब एमएसपी की व्यवस्था ही निष्प्रभावी हो जाएगी तो पीडीएस का क्या होगा इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। दरअसल किसानों की लड़ाई सिर्फ खेती को बचाने की ही लड़ाई नहीं है, बल्कि यह कल्याणकारी राज्य की उस अवधारणा को बचाने की लड़ाई भी है, जिसकी कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी।
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