घर न लौटे शहीदों के नाम ‘1971’
{Featured in IMDb Critics Reviews}
भारतीय सिनेमा में फ़ौज के कारनामों , बहादुरी के किस्सों पर सैकड़ों फिल्में बनी हैं और बनती रहेंगीं। अमृत सागर द्वारा डायरेक्ट की गई और लेखक, एक्टर पीयूष मिश्रा की लिखी फ़िल्म 1971 उन गुमनाम , घर न लौटे 1971 की लड़ाई के 54 सैनिकों की कहानी कहती है।
सेना के कुछ जवान के साथ जा रहे लोगों में से एक दूसरे से पूछता है – पाकिस्तान में अभी पंजाबी रहते हैं?
हाँ रहते हैं वो जवाब देता है।
तो अगला प्रश्न फिर पूछा जाता है। सिंधी?
हां वो भी रहते हैं जवाब मिलता है।
तो फिर से एक सवाल – ये मुस्लिम बिरादर?
हां तो क्या हुआ?
ये सब तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं तो पाकिस्तान बनाया क्यों?
जवाब गलती हो गई आगे से नहीं बनाएंगे।
यह सच है कि हमारे सत्तारूढ़ नेताओं की बुद्धिमत्ता कहें या मूर्खता की देश के दो हिस्से करने पड़े। लेकिन फिर जब पड़ोसी मुल्क में कुछ समय बाद मिल्ट्री राज शुरू हुआ तो तीसरा देश बना बांग्लादेश। यह फ़िल्म न उस बांग्लादेश का युद्ध दिखाती है और न ही युद्ध के दृश्य। यह दिखाती है उस युद्ध के बाद पाकिस्तान में कैद कर लिए गए उन सैनिकों की कहानी को, जिनमें से कुछ वहाँ पागल हो गए और कुछ भाग कर आने की कोशिश में मारे गए। फ़िल्म के अंत में देखने को मिलता है कि इन सैनिकों में से कुछ सैनिक साल 1988 तक भी वहां देखे गए। पूरा इंटरनेशनल मीडिया इस बात को जानता था और दोनों देश के नेता बावजूद इसके उन्हें वापस न लाया जा सका।
खैर फ़िल्म की कहानी शुरू होती है इस नैरेशन के साथ – ये हमारी कहानी है, वो कहानी जो न कभी कही गयी और न कभी सुनी गयी। उसे सिर्फ़ देखा गया और जिन आँखों ने देखा वो इतिहास के अंधरे में धीमे-धीमे छुपते हुए गायब हो गया। कहते हैं इतिहास हमेशा चंद लोगों के नज़रिए से लिखा गया। इसीलिए उसमें उन लोगों का ज़िक्र नहीं होता, जिन्होंने उसे बनाने में शिरकत दी। इसी तरह हमारी कहानी में हमारा खुद का ज़िक्र नहीं हो पाएगा। 1971 में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में एक जंग लड़ी गयी, जिसे बांग्लादेश वार का नाम दिया गया। पाकिस्तान उस हार से कभी नहीं उबर पाया, हम भी उस जंग को कभी भूल नहीं पाए। क्योंकि वो जंग हमने कंधे से कंधा मिलाकर लड़ी थी। अपने प्यारे हिंदुस्तान की तरफ़ से।
इस नरेशन से शुरू होती फ़िल्म ‘1971’ साल 2007 में रिलीज़ हुई। जो कई मायनों में अन्य देश भक्ति फ़िल्मों से अलग है। नरेशन पढ़कर आप इसकी कहानी भी लगभग समझ गये होंगे, लेकिन देखने पर आपकी आत्मा काँप उठेगी। 1971 जंग के 54 हिंदुस्तानी फ़ौजी आज भी पाकिस्तान में मौजूद हैं। इनको 1988 तक ज़िंदा देखा गया था।
बस यही आधार है इस कहानी का, बाक़ी पड़ोसी मुल्क को तो हम धोखेबाज़ कहते ही है, परंतु तात्कालिक सरकार द्वारा भी इन फ़ौजियों को देश वापस लाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया, परिणाम आप इस फ़िल्म को देखकर समझ आ जाएगा।
अभिनय की दृष्टि से मनोज वाजपेयी, रवि किशन, चितरंजन गिरी, कुमुद मिश्रा, मानव कौल, दीपक डोबरियाल, पीयूष मिश्रा, विवेक मिश्रा तमाम कलाकारों का काम ज़बरदस्त है। इस फ़िल्म को देखकर आप हाल फ़िलहाल में आयी देश भक्ति फ़िल्में या वेबसीरीज़ ‘उरी’, ‘राज़ी’, ‘फ़ैमिली मैन सीजन 1 और 2’, ‘जीत की ज़िद’, ‘द गाजी अटैक’, ‘बेबी’, ‘द फ़ॉरगेट्न आर्मी’ हो या पुरानी बॉर्डर और उसके बाद एल ओ सी कारगिल सरीखी आदि। ये सभी निश्चित ही आपको इस फ़िल्म के आगे फीकी लगने लगेगी। हालाँकि सबकी अपनी अपनी पृष्ठभूमि अलग अलग है, फिर भी जो प्रभाव और छाप यह फ़िल्म छोड़ती है वह आपको इसे देख महसूस करके ही होगा। फ़िल्म समीक्षक के नज़रिए से नहीं बल्कि देश के नागरिक के नज़रिए से यह फ़िल्म आपके ज़ेहन में ऐसी उतरेगी कि कुछ दिन तक आप इससे बाहर नहीं आ पाओगे।
इस फ़िल्म का अंत कुछ इस नरेशन से होता है “ये थी हमारी कहानी, वो कहानी जो न कभी कभी कही गयी न कभी सुनी गयी। यह एक अननॉन फ़ैक्ट था कि हम लोग 1971 की लड़ाई में ज़िंदा पकड़े गये थे। सारे अख़बारों में यह खबर थी। इंटर्नैशनल रेड क्रॉस सोसायटी यह जानती थी, दोनों मुल्क की सरकारें भी जानती थी। फिर इन गुजरे हुए सालों का ज़िम्मेदार कौन? और इन न आने वालों न मालूम कितने सालों का ज़िम्मेदार कौन? बहरहाल उम्मीद के अलावा ज़िंदा रहने का कोई सहारा नहीं होता। मैं भी उम्मीद के सहारा ज़िंदा हूँ। मगर मैं यह भी जानता हूँ कि उम्मीद हाथ पर हाथ रखकर बैठने से नहीं होती। मैं एक बार फिर आने वाले कल का इंतज़ार करूँगा।” फ़िल्म भावुक करने वाली है लेकिन इसके निर्देशन , बैकग्राउंड स्कोर, गीत-संगीत, फ़िल्म का लुक, सिनेमैटोग्राफी, लोकेशन भी कमतर नहीं आंके जा सकते।
तमाम शहीदों को याद करते हुए मैं इस फ़िल्म को देना चाहूंगा 4 स्टार