राष्ट्रपति पद पर द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी से खुश क्यों नहीं है आदिवासी समाज
एनडीए द्वारा द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाना एक सधी हुई चाल मानी जा रही है। सात दशकों में दूसरी बार एक आदिवासी को देश के सर्वोच्च पद का उम्मीदवार बनाया गया है। इसके पहले एनडीए ने ही 2012 में पी ए संगमा को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया था। हालांकि वे सत्ताधारी पार्टी के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी से हार गए थे। लेकिन इस बार देशभर में भाजपा की मजबूत स्थिति को देखते हुए द्रौपदी मुर्मू का जीतना लगभग तय माना जा रहा है। दूसरी तरफ विपक्ष की ओर से भाजपा सरकार में ही केंद्रीय मंत्री रह चुके यशवंत सिन्हा को खड़ा किया गया है। दोनों ने अपना नामंकन करा लिया है और प्रचार प्रसार का दौर चल रहा है। माना जा रहा है कि राष्ट्रपति पद के लिए एक आदिवासी उम्मीदवार को खड़ा कर भाजपा आदिवासियों के प्रति अपनी छवि सुधारना चाहती है। पिछले दिनों झारखण्ड में बिरसा विश्वास रैली को सम्बोधित करते हुए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने भी यही प्रयास किया। यदि द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति बनती हैं, तो पहली बार किसी आदिवासी महिला को सर्वोच्च पद पर बिठाने का श्रेय भाजपा को जाएगा, जिसका एक सकारात्मक प्रभाव भाजपा के आदिवासी वोट बैंक पर पड़ेगा।
द्रौपदी मुर्मू के नाम की घोषणा के बाद से ही देश भर से लोगों की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। इनमें से अधिकतर राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हैं, जो पार्टी लाइन से इतर नहीं हैं। लेकिन जिस समुदाय से द्रौपदी मुर्मू आती हैं, उसमें उन्हें लेकर अपेक्षित उल्लास नजर नहीं आ रहा है। पढ़े-लिखे आदिवासी तबके में नए उम्मीदवार को लेकर वो स्वीकार्यता भी नहीं देखने को मिल रही है, जो एक आदिवासी उम्मीदवार को मिलनी चाहिए थी। इन सबके पीछे का कारण आदिवासी समुदाय से जुड़े वो तमाम मुद्दे हैं, जिनकी कसौटी पर द्रौपदी मुर्मू के कार्यकाल का आकलन स्वत: हो जाता है। यह बात सच है कि द्रौपदी मुर्मू आदिवासी समुदाय से आने के बावजूद हिन्दुत्व की राजनीति की ही वाहक हैं। उनके नाम की घोषणा के तुरन्त बाद वे शिव मंदिर गयीं और वहां झाड़ू लगाती दिखीं, नन्दी की पूजा करती दिखीं। ऐसे में देशभर के अधिकतर आदिवासी जो खुद को हिन्दू नहीं मानते, वे नाराज हैं। शिलॉन्ग टाइम्स की सम्पादक पैट्रिशिया मुखिम कहती हैं कि आदिवासी मूर्ति पूजा नहीं करते, उनकी लगभग सभी मान्यताएँ हिन्दुओं से अलग हैं। वे यह भी कहती हैं कि द्रौपदी मुर्मू भाजपा की ही प्रोडक्ट हैं और उसके एजेण्डे के तहत ही काम करती आयी हैं। ऐसे में आदिवासी चेहरे को राष्ट्रपति बनाना सिर्फ प्रतीकात्मक है, और कुछ नहीं।
आदिवासी मामलों के जानकार और लेखक महादेव टोप्पो एनडीए द्वारा द्रौपदी मुर्मू के चुनाव को 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी बताते हैं। वे कहते हैं कि पिछला अनुभव बताता है कि द्रौपदी मुर्मू का इस्तेमाल सरकार ने आदिवासियों के खिलाफ ही किया है। उनके रहते हुए आदिवासी जमीनों का अवैध हस्थानांतरण होता रहा, आदिवासी विस्थापित होते रहे, सीएनटी एक्ट में बदलाव की कोशिश हुई और राज्यपाल इनसब पर खामोश रहीं। सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक ग्लैडसन डुंगडुंग याद दिलाते हैं कि द्रौपदी मुर्मू के राज्यपाल रहते हुए राज्य में भाजपा की सरकार ने 11 हजार आदिवासियों पर देशद्रोह का मुकदमा लगाया, जिसका दंश वे आजतक झेल रहे हैं।
ग्लैडसन कहते हैं कि पाँचवीं अनुसूची क्षेत्र में राज्यपाल एक कस्टोडियन की तरह होते हैं। उनके पास आम राज्यपाल से अधिक अधिकार होते हैं। उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान कभी पेसा कानून को पूरी तरह लागू करने या आदिवासी जमीनों के संरक्षण के लिए कोई कदम नहीं उठाया। ऐसे में झारखण्ड सहित देशभर के आदिवासियों के लिए द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना उल्लास का विषय नहीं है। वे दावा करते हैं कि खुद राज्यपाल के पैतृक गाँव में आजतक बिजली नहीं पहुँची है। मीडिया रोपोर्ट्स के मुताबिक उड़ीसा स्थित उनके गांव ऊपरबेड़ा में जून के आखिरी सप्ताह में बिजली पहुँची , जब उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना नामांकन करा लिया था।
तेजपुर विश्वविद्यालय के सहायक प्राध्यपक प्रमोद मीणा वर्तमान राष्ट्रपति के सन्दर्भ में कहते हैं कि वे दलित समुदाय से आते हैं, मगर दलितों के लिए उन्होंने क्या किया? प्रमोद पूर्व राष्ट्रपति के आर नारायणन को याद करते हैं और कहते हैं कि उन्हें छोड़कर लगभग किसी भी राष्ट्रपति ने किसी भी मसले पर कोई सक्रिय हस्तक्षेप नहीं किया है। वे द्रौपदी मुर्मू के चुनाव को प्रतीकात्मक मानते हैं। बकौल प्रमोद मीणा द्रौपदी मुर्मू का राजनीतिक लगाव यह स्पष्ट कर देता है कि वे सामान्य राष्ट्रपतियों की तरह ही केवल एक रबर स्टैंप की तरह रहेंगी। एनडीए ने उनसे उम्मीद भी यही की है।
संवैधानिक पद पर बैठा हर व्यक्ति किसी न किसी जाति अथवा धर्म से जरूर होता है। ऐसे में हर किसी से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वह अपनी जाति के लिए अलग से कोई काम करे। यह तर्क पहली नजर में तो सही लगता है। लेकिन जब भारत जैसे देश में हम आदिवासियों की स्थिति पर गौर करते हैं, तमाम संस्थाओं में उनके प्रतिनिधित्व पर गौर करते हैं तो आरक्षण के बावजूद उनकी आय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, बिजली, पानी आदि मूल जरूरतों की कसौटी पर उन्हें बेदह पिछड़ा पाते हैं। साल-दर-साल वे विस्थापित हो रहे हैं, जमीनें अवैध ढंग से छीनी जा रही है। इसमें सरकार और व्यापार का गठजोड़ है, यह कहना गलत नहीं होगा। ऐसे में यह दायित्व यूँ तो सभी सरकारों का है कि वे पिछड़ रहे समुदाय और हाशिए पर के लोगों के लिए काम करें, लेकिन एक आदिवासी नेता या प्रतिनिधि से उम्मीदें बढ़ जाती हैं, क्योंकि उन्होंने आदिवासियों के संघंर्ष, उनकी परेशानियों और उनकी जरूरतों को करीब से देखा है। ऐसे में द्रौपदी मुर्मू जैसे शक्तिशाली व्यक्तित्व से आदिवासियों की नाराजगी या उम्मीदें नाजायज नहीं है। यदि किसी मुस्लिम या दलित राष्ट्रपति ने मुस्लिमों और दलितों के लिए कुछ नहीं किया, तो उन्हें करना चाहिए था। खासकर तब, जब उनके लिए किया जाना जरूरी है। इसके अलावा पूर्व के राष्ट्रपतियों का कार्यकाल आने वाले लोगों के लिए पत्थर की लकीर नहीं बन जाता। वंचित समुदाय के लिए काम करने की जिम्मेवारी इस समुदाय के सक्षम लोगों की अधिक है।
दूसरी तरफ राष्ट्रपति को उनकी जाति या धर्म से ऊपर उठकर देखने के तर्क दिये जाते हैं। यह सही भी है, लेकिन सच्चाई यह है कि उनकी जाति या उनका धर्म ही उनकी उम्मीदवारी का एक मात्र आधार है। ऐसा कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि द्रौपदी मु्र्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार सिर्फ इसलिए बनाया गया है क्यों कि इस वक्त भाजपा की राजनीति के लिए वे सबसे फिट बैठती हैं। इसके पहले भी हर सरकार अथपा पार्टी ने इसी आधार पर अपनी तरफ से उम्मीदवार तय किया है। अब जहां पूरी उम्मीदवारी ही जाति पर आधारित तो, वहां जाति को अलग करके सोचने का तर्क बचकाना लगता है।
वौचारिक विमर्श से इतर एक बात तो साफ है- द्रौपदी मुर्मू का नाम आगे कर भाजपा ने साबित कर दिया है कि राजनीति के खेल में अभी दूर-दूर तक उसका कोई सानी नहीं है। झारखण्ड सहित अन्य राज्य के क्षेत्रीय पार्टियों पर भाजपा एक तरह का नैतिक दबाव बनाने में कामयब रही है। झारखण्ड की सत्ताधारी पार्टी झामुमो अबतक निर्णय नहीं कर पायी है कि वे दोनों उम्मीदवार में से किसको अपना वोट देगी। लेकिन कयास लगाए जा रहे हैं कि झामुमो का वोट एनडीए के ही खाते में जाएगा। दिलचस्प बात है कि झारखण्ड में झामुमो का काँग्रेस के साथ गठबन्धन है। इसी तरह भाजपा की धुर विरोधी तृणमूल काँग्रेस की सुप्रीमो मामता बनर्जी ने भी लगभग साफ कर दिया है कि उनका समर्थन द्रौपदी मुर्मू को ही जाएगा। कई ऐसी पार्टियाँ हैं जो आदिवासी वोट बैंक खोना नहीं चाहतीं, ऐसे में विपक्षी दलों का भी समर्थन द्रौपदी मुर्मू को मिलेगा। इसी आधार पर यह कयास लगाए जा रहे हैं कि द्रौपदी मुर्मू आसानी से चुनाव जीत जाएँगी।
आदिवासी बुद्धिजीवियों का कहना है कि यूँ तो राष्ट्रपति के पास सीमित शक्तियाँ होती हैं, लेकिन फिर भी उन्हें खुलकर उन मुद्दों पर बात करनी चाहिए, जो जनसराकोर से जुड़ी हैं और जिनका सीधा प्रभाव आम जनता पर पड़ता है। आदिवासी तबका उम्मीद कर रहा है कि आदिवासी राष्ट्रपति बनने पर जल, जंगल, जमीन से जुड़ी समस्याओं पर एक नयी नजर उत्पन्न हो सकेगी। इन उम्मीदों के साथ इस बात की खुशी भी है कि वोट की राजनीति के लिए ही सही, लेकिन एक आदिवासी को लोकतंत्र के शीर्षतम पद पर बैठने का मौका मिल पा रहा है।