सुबह जगते ही कृष्णा सोबती के देहांत की खबर सुनी तो एकबारगी तो लगा जैसे साहित्य के आसमान का सबसे उजला सितारा कहीं खो गया हो और मन डूबने लगा। मगर उनके रचना-संसार से गुजर कर बनी हुई चेतना कुछ भी मंद स्वर में सोच पाए, ऐसा उनके रचे गए अनेकानेक पात्र करने कहाँ देते हैं। कभी आँखें तरेरती हुए जीवन रस से सरोबार मित्रो सामने खड़ी हो जाए जो अपने होने को, पूरा का पूरा होने को एसर्ट करना जानती है। समस्त शारीरिक एषणाओं के साथ माधुर्यपूर्ण, सहज भाव से वह अपनी देह में निवास करती है। देहधर्म को जानती ही नहीं निभाती भी है। स्त्री के सक्रिय, सचेतन अस्तित्व को वात्स्यायन ने सिद्धांत रूप से स्थापित किया था, उसका साहित्यिक संस्करण तो ‘मित्रो मरजानी’ में ही रचा गया। मित्रो सच्चे अस्तित्व को ढापने वाले सभ्यता के आवरणों को चीर कर वास्तविक रूप में सामने आती है। जीती-जागती, साँस लेती मानवी के रूप में।
मित्रो ओझल हो तो ‘दिलो-दानिश की ’महकबानो को समझाती हुई माँ हमें समझाने लगती है कि इस दुनिया में बादल-बिजली, बरखा-धूप ……सब हैं। इतने ही सुरों में हम अपनी उम्र क्यों न गा लें। दुनिया की एक ही राह पर दिल जमाए रखोगी तो क्या देखोगी। ऊपरवाले को देखो उसके हजार जलवों में। जीवन को न जाने कितने सुरों में गाने गाने वाली लेखिका को हमने भी जाना-बूझा है उनके हजार जलवों में। लेखक को खुद को उगाना, नित-नित नया होना, निडर हो कर अपने सच को पैदा करना और उसकी रक्षा करना…बहुत कुछ करना होता है। सही शब्द तक पहुँचने की ऐसी लगन कि शब्दों की खेती से अर्थों की फसल हो सके। सभी रंगों के जलवे उनके जीवन और कृतित्व में दिखते हैं। अनुभवों को ही अपना खुदा मानने वाले शब्द-अर्थ के सच्चे साधक में ही अपने लिखे पर इतना भरोसा होता है कि एक शब्द में भी बदलाव उन्हें नामंजूर था।
एक बार छपने के बाद भी उपन्यास की सब प्रतियाँ उन्होंने नष्ट कर दी थीं जब देखा कि कुछ शब्दों का तत्समीकरण कर दिया गया है। जिंदगीनामा शब्द पर अपने दावे के लिए अमृता प्रीतम से लम्बा केस चला। उसमें ऊर्जा लगाने के पीछे उनका यह तर्क था कि उन पर किताब का कर्ज है, जो उन्हें अदा करना है। लिखवाने के एवज में पैसे पूरे न दिए जाने पर साफ कहती थीं कि हशमत डिस्काउंट पर नहीं लिखते। जाहिर है कि लेखन के महत्व को और फिर हिंदी के लेखन को, उसके गौरव को स्थापित करने में भी उनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।
जरा सा जिंदगी की लौ धीमी हो तो ‘ऐ लड़की’ की माँ गरजने लगती है। कदम-कदम पर उंगली उठाए माँ जाने किस-किस चीज के लिए बरजती है और छोड़ देती है जिंदगी की पगडंडियों पर भरपूर जीने के लिए। जीवन से लबालब भरी मृत्युशैय्या पर पड़ी माँ हिंदी साहित्य में कभी आई थी क्या? दवाइयों की गंध भरे कमरे में दर्द से कराहती वृद्धा के पास मौत आई हो, ऐसा नहीं लगता। बल्कि लगता है कि भरा-पूरा समृद्ध जीवन जीने के बाद जिंदगी से लबरेज माँ जिंदगी बूँद-बूँद निचोड़ कर लड़की को थमा गई हो।
इतने कम शब्दों में मातृत्व, प्रेम, गृहस्थ जीवन का इतना जीवंत और विराट रूप कृष्णा सोबती ही साकार कर सकती थीं। जीवन रस से तृप्त माँ के मन में घूमने की साध रह गई है। सपने में भी अक्सर पहाड़ों की चढ़ाई चढ़ती, जंगलों में भटकती जूतियों को देखती हैं। चट्टान सी मजबूत लड़की शांत भाव से माँ के हर उलाहने को सुनती है मगर माँ की इच्छा को रोम-रोम से धारण करती है। सोबती जी के विराट जीवन पर नजर डालें तो लगता है कि माँ की उन खाली जूतियाँ पर मानो अपने पैर डाल दिए हों और अपने तन-मन से उन्हें पर्वत-वादियों, जगह-जगह की, अतर्मन-बहिर्मन की यात्राएँ करवाती फिर रही हों। कृष्णा जी आपकी रची गई अनेकों लड़कियों के कदमों से आप भी यात्रा कर पाएंगी। माँ बेटियों में जीती हैं। इसलिए निरंतरा होती हैं और आप तो निरंतरा रहेंगी ही।
साहित्यिक, मानवीय सरोकारों के प्रति पूर्ण प्रतिबद्ध सोबतीजी में अंतिम समय तक सही के पक्ष में खड़े होने और हर गलत का सक्रिय विरोध करने का हौंसला था। जब कहीं, जहाँ कहीं नागरिक अधिकारों का हनन होता दिखा उन्होंने तत्काल और प्रचंड विरोध किया। खुद्दार शख्सियत वाली कृष्णा सोबती लेखन में ही नहीं जीवन का, व्यक्तित्व का भी एक नया व्याकरण रचती रहीं। एक ऐसा व्याकरण जिसमें से होकर आकार लेते समय की शख्सियत ऐसी मजबूत और निराली होती कि न स्त्री होना बाधक बन सकता था, न भाषा सीमित कर सकती थी, न सत्ता नीचा दिखा सकती थी। हिंदी की ही नहीं भारत की इस शीर्षस्थ लेखिका से सीखा जा सकता है कि नागरिक होने के नाते, स्त्री होने के नाते, लेखक होने के नाते समाज में कितने गौरव और गरिमा के साथ जिया जा सकता है, जिया जाना चाहिए। एक खरोंच भी उनके सम्मान पर लगना उन्हें सह्य नहीं रहा।
उदात्त सरोकारों से लैस थी इसलिए अपने स्वाभिमान के लिए स्टैंड लेने वाली तमाम घटनाओं में हम अपना अक्स भी देख सकते हैं और खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। एक कार्यक्रम में अचानक बीच से उठ कर चल पड़ती हैं क्योंकि बड़े राजनीतिज्ञों की उपस्थिति के दवाब में उनके नाम का जिक्र नहीं था। छोटी-बड़ी सभी घटनाओं में प्रकट होते उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से सिद्ध होता है कि लेखक राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। और हम पूरे दम-खम से इसे आगे ही बनाएँ रखेंगे। कृष्णा सोबती के होने ने विषमतामूलक मानसिकता पर निरंतर प्रहार करके आदमियत को समृद्ध किया है। उनके प्रयास निष्फल नहीं जाएँगे। आशावादी मिजाज की कृष्णा सोबती जी ने इस भरोसे पर ही आँखें मूँद ली होंगी कि उनसे मिली रोशनी की जोत हम दिलों में और अपनी कलम की स्याही में बनाए रखेंगे। कलम-दर-कलम उनकी यात्रा अनवरत अगले फिर अगले पड़ाव की ओर चले- इस शुभेच्छा और संकल्प के साथ जिंदा गरमाहटों से तपी लेखनीकार को प्रणाम।
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