हम भारत के लोग
- जीवन सिंह
वैसे तो दुनिया के नक़्शे में हर देश और राष्ट्र-राज्य की अपनी-अपनी पहचान मौजूद है किन्तु जिनकी सभ्यता हज़ारों वर्ष पुरानी और विविधता –संपन्न रही है और जहाँ युग–परिवर्तनों के अनेक दौर चले हैं वहाँ उसके वास्तविक स्वरुप की पहचान को लेकर समस्या, विभ्रम और चुनौती रही हैं| इसमें सबसे बड़ी दुविधा किसी विशेष कालखण्ड को लेकर है और कालखण्ड में भी उस समय के धार्मिक स्वरुप को लेकर| जो विचारक राष्ट्र की पहचान “ धर्म” विशेष के आधार पर मानते और करते हैं और उस आधुनिक जीवन—मूल्य की उपेक्षा करते हैं जो राष्ट्र—राज्य के निर्माण में केन्द्रीय भूमिका अदा करता है वे राष्ट्र की अनैतिहासिक परिकल्पना उसे बहुत पीछे ले जाकर एक विशेष कालखण्ड के धर्म विशेष के आधार पर करते हैं| ऐसे लोग ही भारत के विचार को सिर्फ “हिन्दू” विचार के रूप में देखते हैं लेकिन जब हम आधुनिक भारत—विचार की बात करते हैं जो हमारे संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित “हम भारत के लोग“ की भावना में अन्तर्निहित है और जिससे भारतीय संविधान के निर्माताओं और स्वाधीनता सेनानियों का भारत से क्या आशय रहा है वह आशय भी स्पष्ट हो जाता है| दरअसल स्वाधीनता सेनानियों और संविधान निर्माताओं का भारत किसी एक धर्म—मज़हब , जाति, लिंग, क्षेत्र, भाषा, रंग आदि का भारत नहीं है| वह स्वाधीनता आन्दोलन की गतिविधियों और बलिदानों—त्यागों और संघर्षों का एक ऐसा नवीन स्वप्नों और आकांक्षाओं का भारत है जो इतिहास के साथ कदम मिलाकर चलता है| उसके विचार का निर्धारण किसी धर्म, जाति की प्रमुखता से न होकर उन आधुनिक जीवन मूल्यों से होता है जो राष्ट्रवाद की संकीर्णताओं से किसी राष्ट्र को बाहर निकालकर उसे विश्वात्मा से जोड़ देते हैं| अलबत्ता, वह एक ऐसी ऐतिहासिक संस्कृति से तय होता है, जिसे राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कवि-चिन्तक रामधारी सिंह दिनकर संस्कृति के चार अध्यायों में वर्गीकृत करके देखते हैं| इसका सीधा मतलब है कि हमारी एक सामूहिक संस्कृति और इतिहास होते हुए भी उसके कई परिवर्तित अध्याय भी उसमें समाहित हैं यानी आज जो भारत हमारे सामने है वह एक दिन में नहीं बना है| वह विविधरूपा है और वह अलग अलग समय में अलग अलग तरह से रूप परिवर्तित करते हुए बना है| इतिहास के भीतर वह हमारी सामूहिक आत्मा में विद्यमान रहा है| जिसने मिलकर कभी 1857 का पहला बड़ा स्वाधीनता संग्राम लड़ा तो कभी उसके बाद महात्मा गांधी और भगत सिंह जैसे अन्य विचारक–क्रांतिकारियों के नेतृत्व में 1947 के 14 अगस्त तक लड़ा और उपनिवेशवादी अंग्रेज ताकतों को पराजित कर एक नया आधुनिक भारत बनाया| कहना न होगा कि वह भारत अनेक तरह के झंझावातों से गुजरता हुआ आज की मंजिल तक पहुंचा है| यह भारत किसी एक समय और दिन का भारत नहीं है| यह सतत गतिशील और विकसित होता हुआ भारत है जो प्राचीन और मध्यकालीन दौरों से गुजरता हुआ आज की आधुनिक मंजिल तक आया है|
सवाल उठता है कि वह चार अध्यायों वाली संस्कृति वाला भारत कौन—सा है जो संविधान की प्रस्तावना “हम भारत के लोग“ में समाहित है? कवि दिनकर के विचार में उसका पहला अध्याय भारत के उस आदिकाल से बना है जिसमें अनेक जीवन—स्रोतों की सम्मिलित उपस्थिति रही है| दिनकर भी यही मानते हैं कि भारतीय जनता की रचना एक दिन में नहीं हुई, उसकी शुरुआत में आर्य—द्रविड़ समस्या का उल्लेख करते हुए वे इस सवाल को भी सामने लाते हैं कि इस पृथ्वी पर पहला मनुष्य कहाँ जन्मा और वे इस निष्कर्ष पर पंहुचे कि वह यदि भारत में जन्मा तो उत्तर में नहीं दक्षिण में जन्मा होगा| बहरहाल दिनकर ने अपनी थ्योरी के आधार पर भारतीय संस्कृति का पहला अध्याय ‘हिन्दू संस्कृति के आविर्भाव“ के रूप में माना है| यानी वे आरम्भिक वैदिक संस्कृति को भारत की आदि संस्कृति मानते हैं जिसमें आर्य—द्रविड़ सभ्यताओं के साथ नीग्रो जाति और आग्नेय औष्ट्रिक जाति के आगमन और सम्मिलन से भारत के विचार की नींव पड़ती है| उसे ही वे आदि भारतीय संस्कृति के साथ साथ हिन्दू संस्कृति की संज्ञा देते हैं| इससे स्पष्ट है कि भारत का आदि विचार सम्मिलन और सम्मिश्रण की स्थिति से बनता है जो यहाँ आरम्भ से ही मौजूद रही है| जिसमें बाहर से आने वालों का भी योगदान रहा है चाहे वे किसी भी रूप में यहाँ आये हों और आते रहे हों| दिनकर जी ने अपनी कृति “संस्कृति के चार अध्याय“ की भूमिका में सही लिखा है कि “आर्यों ने आर्येतर जातियों से मिलकर जिस समाज की रचना की, वही आर्यों अथवा हिन्दुओं का बुनियादी समाज हुआ और आर्य तथा आर्येतर संस्कृतियों के मिलन से जो संस्कृति बनी वही भारत की बुनियादी संस्कृति बनी| “वे यद्यपि यह भी मानते हैं कि इस आर्य संस्कृति में आधा हिस्सा आर्येतर है| पता नहीं फिर भी दिनकर आर्य सस्कृति को ही केंद्र में क्यों रखते हैं? बहरहाल, इससे यह तो तय है कि भारत की आदि संस्कृति में ही एक नहीं दो का भाव, दो का सम्मिलन है| वह दो के मिश्रण से बनी है| उसकी सामासिकता का आधार भी यही है क्योंकि आगे चलकर यह मिलन- प्रक्रिया रुकने के बजाय और ज्यादा बढ़ती गयी| इसी से ध्यान में रखने की बात है कि भारत का विचार एकरूप न होकर विविधरूपा और सामासिक है| भारत के विचार में तब बड़ा परिवर्तन होता है जब एक नए विचार और आचरण की धारणाओं को लेकर जैन धर्म की शिक्षाओं के रूप में महावीर और बौद्ध धर्म के नए विचार और नवाचार के साथ महात्मा बुद्ध आते हैं| ये दोनों वैदिक धर्म की धारणाओं के उलट धर्म को व्यक्तिगत से सामाजिकता की तरफ ले जाते हैं| बुद्ध तो दुःख को ज़िंदगी के केंद्र में मानकर धर्म को रहस्यवाद से बाहर निकालकर यथार्थ की भौतिक स्थितियों के नज़दीक ले आने का क्रांतिकारी काम करते हैं| इसीलिये दिनकर जी ने इसको दूसरी क्रान्ति कहा है| इस प्रक्रिया में भारत का विचार प्रभावित ही नहीं होता, बदलता भी है| उसकी वैचारिक सघनता और सामासिकता पहले से और बढ़ जाती है| इसका मतलब यह नहीं है कि जैन और बोद्ध मत के पूर्व वैदिक एवं औपनिदषिक युगों में यहाँ चिन्तन की एकरूपता थी| इससे पहले भी यहाँ आस्तिक और नास्तिक विचार प्रक्रिया मौजूद थी जो भौतिकवादी और अभौतिकवादी विचारों के द्वंद्व में व्यक्त होती थी|
इसके बाद भारत—विचार में तीसरा बड़ा समिश्रण और परिवर्तन तब हुआ जब मध्यकाल में उत्तर—पश्चिम दिशा से आने वाले इस्लाम के साथ भारत का सम्पर्क हुआ और इस्लाम मतावलंबी लोग यहाँ के शासक बनते गये| इस मिलन से जो नयी संस्कृति यहाँ निर्मित हुई उसे दिनकर जी ने संस्कृति का तीसरा अध्याय कहा है| इससे भारत के आचार—विचार दोनों में ही बदलाव हुए| इसी से उसकी सामासिकता और विविध एवं सघन हुई| यद्यपि इस्लाम से पूर्व ही अरब व्यापारी समुद्र के रास्ते से भारत के दक्षिण—पश्चिम तट पर आना शुरू हो गये थे| लेकिन आठवीं सदी के आरम्भ से इस्लाम के पहले विजेता के रूप में मोहम्मद बिन कासिम यहाँ के पश्चिमी राज्यों में अपनी हुकूमत स्थापित कर चुका था| बारहवीं सदी में आकर दिल्ली सल्तनत की स्थापना तब हुई जब मोहम्मद गौरी के सेनाध्यक्ष कुतुबुद्दीन ऐबक का गुलामवंशीय इस्लामिक शासन यहाँ स्थापित हुआ| जो आगे चलकर खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी और मुग़ल शासकों के रूप में अंग्रजी शासन की स्थापना होने तक चलता रहा| कहना न होगा कि इससे भारत की आर्थिक- राजनीतिक स्थितियों में ही बदलाव नहीं हुए वरन वैचारिक—सांस्कृतिक स्थितियों में भी परिवर्तन हुए| इस्लामपंथी लोगों का अपना एक धार्मिक दृष्टिकोण था, जिसमें सादगी, कबीलाई समानता और सामाजिक न्याय के कुछ ऐसे तत्व मौजूद थे जिनकी तरफ भारतीय समाजों के उन तबकों, जातियों और समुदायों का ध्यानाकर्षण हुआ जो यहाँ के क्रूर सामाजिक विभाजन की ऊँच—नीच से बेहद पीड़ित थे| इस वजह से यहाँ धर्म—परिवर्तन के साथ विचार परिवर्तन भी हुआ जो प्राचीन भारत के विचार में एक नयी कड़ी के रूप में सामने आया| लेकिन यह भी ध्यान में रखने की जरूरत है कि बाहर से आक्रान्ता के रूप में आने वाले लोग यहाँ कोई बुनियादी तबदीली करने नहीं आये थे| वे अपनी सादगी और भाईचारे से प्रभावित तो करते थे किन्तु उनका उद्देश्य यहाँ बहुत बड़ी आबादी को नाराज़ करने के बजाय अपना शासन चलाना ही ज्यादा था, जिसे उन्होंने यहाँ की सामाजिक विभाजनकारी प्रथाओं की वजह से लगभग आठ सदियों तक बनाए रखा| इससे यहाँ के सामाजिक विभाजन में कोई बहुत बड़ा बुनियादी परिवर्तन नहीं हुआ लेकिन भारत –विचार और संस्कृति को एक नया रूप अवश्य मिला|
भारत के विचार और सस्कृति में बहुत बड़ा उलटफेर और बदलाव अठारहवीं सदी में भारतीयों का अंग्रेजों के सम्पर्क में आने से हुआ| सच तो यह है कि उन्ही के सम्पर्क में आने से यहाँ के हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों में आधुनिक शिक्षा का जब आगाज़ हुआ तब ही यहाँ अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय एकता और राष्ट्र भावना का विचार भी पैदा हुआ| इसी से हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के ज्यादा नज़दीक आये और इसी से उन्होंने समझा कि उनकी आपसी फूट ने ही यहाँ अंगरेजी शासन को कायम किया है| इसी से उन्होने आधुनिक शिक्षा और नयी संस्कृति के महत्व को जाना लेकिन कोई समाज कभी पूरी तरह से नहीं बदलता| इसी से भारतीय समाज के अधिकाँश हिस्सों में आधुनिक जीवनमूल्यों और आधुनिक विचारों को प्रवेश नहीं हो पाया| वह अपनी प्राचीन और मध्यकालीन परम्पराओं से आधुनिक समय में भी मुक्त नहीं हुआ है| यहाँ की दो बड़े समुदाय और अन्य छोटे छोटे समुदाय भी अपने अपने विशेष धार्मिक और जातिपरक दृष्टिकोण को केंद्र में रखकर जीवन यापन करते हैं| जिनसे भारत के आधुनिक विचार की ही सबसे अधिक क्षति होती है| सच तो यह है कि उन्नीसवीं सदी में देश की स्वाधीनता के लिए चला जनांदोलन और नवजागरण आधा-अधूरा रह गया| अंगरेजी शासन ने भी अपनी सारी आधुनिक जीवन पद्धति के बावजूद यहाँ के दकियानूसीपन और सामन्तवाद से समझौता करते हुए उसका उपयोग फूट डालने के लिए किया जिससे भारत का एक समग्र विचार खंडित हुआ और यहाँ धर्म के आधार पर एक अलग देश पाकिस्तान के रूप में बन गया| गनीमत रही कि भारत का विचार उस सेक्युलर और लोकतांत्रिक देश के रूप में बचा रहा जो विश्व के आधुनिक देशों की कोटि में ही नहीं आता वरन अपनी लोकतांत्रिक परम्पराओं और जीवन मूल्यों के रूप में एक आधुनिक प्रतिष्ठित राष्ट्र का दर्ज़ा भी प्राप्त करता है| आज इसी आधुनिक सेक्युलर राष्ट्र के साथ और इसके संविधान के साथ छेड़खानी की जा रही है| जिसे एकजुट होकर प्राणपन से बचाने की जरूरत है|
लेखक साहित्य, लोकसंस्कृति, आलोचना और सामाजिक कार्यों में पिछले 50 वर्षों से संलग्न हैं|
सम्पर्क- +919785010072, jeevanmanvi19@gmail.com
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