अद्वितीय समाजवादी जननायक कर्पूरी ठाकुर
जननायक कर्पूरी ठाकुर जी की जीवन यात्रा और भारत में समाजवादी धारा के बनने, संवरने, बिखरने और विलुप्त-प्राय होने में अजीब रिश्ता दिखता है। शायद समाजवादी आंदोलन के उनके समकालीन महानायकों जैसे राजनारायण, मधु लिमए, मक्षधु दंडवते आदि के बारे में भी यही सच है। यह सभी सत्याग्रही समाजवादी थे। संतति और संपत्ति के मोह से मुक्त थे। कंचन और कामिनी के प्रति आकर्षित नहीं थे। गांधी-लोहिया-जेपी के अनुयायियों के अगुवा थे। स्वाधीनता संग्राम की आंच में तपकर निखरे थे। आजादी के बाद के राजनीतिक विमर्श में ‘वैकल्पिक’ राजनीति के लिए,’वोट (चुनाव), फावड़ा (रचनात्मक कार्य) और जेल (सत्याग्रह)’ की त्रिवेणी के भगीरथ बने। स्वेच्छा से गरीबों को स्वराज का हिस्सेदार बनाने के लिए वर्ग संगठन निर्माण में जुटे। ‘एक पांव रेल में, एक पांव जेल मे।’ के साक्षात उदाहरण बने। निजी जीवन में सादगी, साहस और सदाचार का आधार था। आंदोलन इनकी पाठशाला थे। चुनाव को प्रयोगशाला बनाया। जीत-हार में समभाव की सिद्धि थी।
कर्पूरी ठाकुर जी की विशिष्टता
यह सभी जानते हैं कि कर्पूरी ठाकुर ने व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के बावजूद अनुपात की समझ दिखाई और सामूहिक नेतृत्व की लक्ष्मण रेखा का हमेशा पालन किया। यह उनकी सफलता का मूल मंत्र था। लेकिन सबमें शामिल होने पर भी कई मानों में कर्पूरी ठाकुर बेजोड़ और अद्वितीय थे। एक तो उन्होंने अनासक्त कर्मयोगी का जीवन जिया। उन्होंने सत्ता की बजाए समाज परिवर्तन को महत्वपूर्ण माना।इसलिए हर मेहनती कार्यकर्ता उनके स्नेह का अधिकारी रहा। मुख्यमंत्री रहते हुए भी संघर्षों की तरफ सहज आकर्षण महसूस करते थे। हर प्रगतिशील व्यक्ति के लिए उनका दरवाजा खुला रहता था। भूमि बांटो आंदोलन में कम्यूनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के साथ कंधा मिलाकर लाठी खाने से पहले लेकर बिहार आंदोलन में सर्वोदय कार्यकर्ताओं के साथ सत्याग्रह करने तक में हमेशा आगे रहे।
दूसरे, उनमें दूरदर्शितापूर्ण निर्णय की अद्भुत क्षमता थी। इसीलिए बिहार विधानसभा भंग कराने की मांग के समर्थन में जेपी के सामने आते ही तत्काल विधायकी से इस्तीफा देकर आंदोलनकारियों के सम्मान के अधिकारी बने। इस त्याग ने ही उन्हें इमरजेंसी खतम होने पर बिहार के मुख्यमंत्री पद का सर्वाधिक योग्य हकदार बनाया।
तीसरे, यह सब मानते हैं कि चुनाव जीतने के लिए 1) जातिबल, 2) धनबल और 3) बाहूबल की जरूरत होती है लेकिन कर्पूरी ठाकुर जी जातिवाद विरोधी थे, पूंजीवाद विरोधी थे और अहिंसा मार्ग के पथिक थे। फिर भी लोकप्रिय रहे और चुनाव के चक्रव्यूह को तोड़कर विधायक बनने में 1952 से 1977 तक लगातार सक्षम सिद्ध हुए। आज के दौर में पनप रही सिद्धांतहीनता को देखते हुए यह अविश्वसनीय लगता है कि कभी सिद्धांत निष्ठा के बल पर कर्पूरी ठाकुर जी तीन दशकों तक बिहार के श्रेष्ठतम जननायक रहे।
चौथे, भारतीय राजनीति में समाजवादी विचारों के अनुयायियों का 1942, 1967 और 1974 में ऐतिहासिक योगदान रहा है। 1942 में ‘अंग्रेजों, भारत छोड़ो!’ का नारा लगाते हुए महात्मा गांधी के आवाहन पर देश की आज़ादी के लिए निर्णायक लड़ी गई। 1967 में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में ‘कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ।’ के उद्देश्य से गैर-कांग्रेसी दलों को एकजुट करके परिवर्तन की राजनीति की जरूरत पूरी की गई। 1974 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में ‘संपूर्ण क्रांति’ की दिशा में देश में प्रतिरोध की राजनीति को लोकशक्ति और छात्रशक्ति की मदद से नवनिर्माण की जरूरत से जोड़ने की पहल की गई। इन तीनों लहरों ने राजनीति के लोकतांत्रिकरण को बढ़ावा दिया। इनकी सफलता-विफलता, गुण-दोष और शुभ-अशुभ के लेखा-जोखा में बहुत कुछ कहा गया है और आगे भी मूल्यांकन जारी रहना चाहिए। लेकिन इस संदर्भ में यह निर्विवाद है कि इन तीनों अभियानों में समाजवादी विचारों के अनुयायियों की तरह कर्पूरी ठाकुर जी को भी अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा और हर बार वह सफल रहे।
भारत छोड़ो आंदोलन के बाद आजादी मिली लेकिन भारत विभाजन, गांधी जी की हत्या और कांग्रेस से संबंध विच्छेद हुआ। पहले आम चुनाव में निराशा ही हाथ लगी। कुछ समाजवादी तो कांग्रेस में ही लौट गए। लेकिन कर्पूरी जी अडिग रहे। इसी तरह 1967 में गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति के परिणाम स्वरूप पंजाब से बंगाल, बिहार, तमिलनाडु और केरल तक कांग्रेस सत्ताच्युत की गई। लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में हार, डॉ. लोहिया का अल्पायु में निधन, गैर कांग्रेसी सरकारों का बिना बड़े कामों के बिखराव और वामपंथियों और दक्षिणपंथियों का प्रभाव विस्तार ने समाजवादी आंदोलन को भी अछूता नहीं छोड़ा। 1971 और ’72 के चुनावों में चौतरफा पराजय हुई। फिर कांग्रेस में ‘घर वापसी’ की हूक उठी। लेकिन कर्पूरी जी ने मध्यम जातियों को संभावनाओं का आधार बनाकर चौधरी चरण सिंह के इर्द-गिर्द भारतीय लोकदल की नींव रखने को समाजवादी कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित किया।
1974-77 का घटनाक्रम तो सचमुच विचित्र था। शुरू के 18 महीने रोमांचक उपलब्धियों से भरपूर थे। विद्यार्थी शक्ति का गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में उभार, रेल मजदूरों की ऐतिहासिक हड़ताल, जेपी की प्रतिरोध की राजनीति में वापसी, संपूर्ण क्रांति की ओर रुझान, सत्ता प्रतिष्ठान में दरार और देशभर में नयी आशा का संचार इस दौर की मुख्य बातें थीं। लेकिन 26 जून 1975 से अगले 19 महीने इमरजेंसी राज के। दौरान दमन के थे। पूरा देश जेलखाना जैसी हालत में फंसा दिया गया। अधिकांश समाजवादियों को बंदी बनाकर चौतरफा भय का माहौल बना दिया गया था। इसमें जबरदस्ती नसबंदी, सुंदरीकरण के नाम पर गरीबों को उजाड़ने के अभियान और पुलिस की मनमानी ने आग में घी का काम किया। जेपी समेत सभी नायक कैद में थे। कुछ लोग भूमिगत जरुर हुए। लेकिन कर्पूरी ठाकुर को छोड़कर बाकी सभी उल्लेखनीय नेता या तो जार्ज फर्नांडिस और नानाजी देशमुख की तरह गिरफ्तार कर लिए गए या राम जेठमलानी और सुब्रमण्यम स्वामी की तरह विदेश में रहने को मजबूर हुए। इमरजेंसी राज के दौरान कर्पूरी ठाकुर ने लगातार संपर्क बनाए रखकर देशभर में समाजवादी युवजनों और अन्य आंदोलनकारियों का मनोबल बढ़ाने का काम किया। उनके साहस की कहानियां आज भी दिल्ली से लेकर भुवनेश्वर, बेंगलुरु, बनारस और अहमदाबाद के समाजवादियों की अनमोल धरोहर हैं।