जब हम भोजपुरी संस्कृति की बात करते हैं तो आम तौर पर लोगों के जेहन में एक ऐसी संस्कृति का चित्र आता है जिसमें कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकतर एल्बम ,गानों और सिनेमा में अभद्रता, अश्लीलता, छिछलापन, नारिद्वेश, सामंती मूल्य और फूहड़ता ‘भोजपुरी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री’ के पर्याय के रूप में नज़र आते हैं. बहुत हद तक यह सही भी हैं क्यूंकि आज के समय की मुख्यधारा के सिनेमा और गीत महिलाओं के शरीर को अपनी प्रस्तुति के केंद्र में रखकर कमाई या कहें तो अपनी ‘सांस्कृतिक इंडस्ट्री’ के व्यापर को चलायमन रखे हुए है.
लेकिन यह भोजपुरी संस्कृति का एक पक्ष हैं. भोजपुरी संस्कृति का दूसरा पक्ष जन सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में है जो भले ही मुख्यधारा की संस्कृति की स्पर्धा से बाहर हो, गौण हो लेकिन ख़त्म नहीं है. भोजपुरी सांस्कृतिक अन्दोलन की वैकल्पिक धरोहर अपने आप में विविधताओं को लिए हुए है. कला के अनेक रूपों और विधाओं से परिपूर्ण वैकल्पिक धारा को भले ही आप मुख्यधारा में गौण पाएं, लेकिन जनसंस्कृति के हाशिये की आवाज़ को हम खेतों और खलिहानों में, लोक गीतों में, तीज त्यौहार, शादी विवाह जैसे अनेक अवसरों पर पाएंगे. वर्चस्व वाली संस्कृति को चुनौती देती ये कलाएं हम साहित्य की विभिन्न विधाओं (गीतों,नाटकों,चित्रों,कविताओं) में पाते हैं.
भोजपुरी जनगीतों में समाज का ऐसा कोई भी पक्ष या पहलू नहीं है जो अछूता हो. समाज में प्रचलित हर बुराई, सामंती तानाशाही, जातिवादी व्यवस्था, अन्याय, भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, असमानता, भेदभाव आदि हर तरह के शोषण को चुनौती देते ये गीत मुख्यधारा के वर्चस्व को बनाये रखने वाली संस्कृति पर चोट करते हैं. इन गीतों में प्रचलित गीतों के लेखक का भले ही नाम न पता हो मौखिक रूप में लोगों के बीच प्रचलित हैं. भोजपुरी क्षेत्र के इन गीतों में हमें लोगों के अस्तित्व की लड़ाई, अपने जीवन और संघर्षों का बखान, दर्द, सहानुभूति, इच्छाएँ आदि की झलक मिलेगी. इन गीतों में विदेशी साम्राज्यवादी, पूंजीवादी व्यवस्था, धार्मिक उन्माद से लेकर भुखमरी, बेरोजगारी जैसी तात्कालिक परिस्थतियों को भी विषय बनाया गया है. यदि कम शब्दों में कहें तो ऐसे हजारों गीत हैं जो अपने समय और काल के दिक्कतों से रूबरू होते हुए समाज की सच्चाई को अपनी कला का विषय बनाते हैं और सामाजिक बदलाव की चेतना का निर्माण करते हैं. ये गाने केवल मनोरंजन का साधन न होकर सांस्कृतिक बदलाव का हिस्सा होते हैं. इप्टा, हिरावल, कोरस, नवांकुर और आखर जैसे अन्य बहुत से लोग व्यक्तिगत और संगठन के तौर पर भोजपुरी क्षेत्र में संस्कृति की अलग धारा विकसित करने के लिए लोगों के बीच कार्यरत हैं और बहुत हद तक लोगों में सामाजिक बदलाव की चेतना को अपने नाटक और गाने के माध्यम से विकसित कर रहे हैं. भोजपुरी क्षेत्र यदि सामंती, जातिवादी व्यवस्था और राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ एक सम्मानजनक जिंदगी, न्यूनतम मजदूरी और मानवीय हक़ की लड़ाई का एक केंद्र बना तो इसमें सांस्कृतिक आन्दोलन की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है. इसका पता वहां के देशकाल के सन्दर्भ उपजे जनगीतों से लगाया जा सकता है.
अब छोड़ रे फिरंगिया हमर देसवा, लूट पात केले तुहूँ मौज उडैले
कैलस देसवा पर जुलुम जोड़
अब छोड़ रे फिरंगिया हमर देसवा …
भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित उपरोक्त गीत साम्राज्यवादी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उनकी जागरूकता को दर्शाता है
ऐसा ही एक गीत मैंने सिवान में अपने फील्ड वर्क के दौरान सुना और रिकॉर्ड किया जो इस प्रकार है-
माई रे माई बिहान होई कहिया
भेड़ियन से खाली सिवान होई कहिया…
( ये गाना विनय राय ‘बबुरंग. का है जिसमे एक बेटा अपनी माँ से पूछता है कि ऐ माँ सिवान में सवेरा कब तलक आयेगा और ऐसा दिन कब आएगा जब सिवान भेड़ियों से खाली हो जायेगा. यहाँ भेड़िया से तात्पर्य भ्रष्ट और ताकतवर राजनेताओं से हैं . )
जन संस्कृति मंच के अगवा सिपाही और जेएनयू के ही छात्र रहे गोरख पाण्डेय के भोजपुरी गीतों को हम कैसे भुला सकते हैं जो आज भी जनता के बीच काफी प्रचलित और जोश भर देने वाला है. उनके गीतों और कविताओं के अब कई संकलन निकल गए हैं लेकिन दो गीत जो सदाबहार हैं उसका जिक्र यहाँ बहुत ज़रूरी है उसमे से एक है
जनता के आवे पलटनिया हिलेले झकझोर दुनिया…
यह गीत 80-90 के दशक में नवउदारवादी और नवसामंती जड़ों को हिलाने वाली जन चेतना और दबे कुचले शोषित समाज की संगठित चेतना को दर्शाता है.
इसी के साथ एक और गीत समाजवाद बबुआ धीरे धीरे आई …आज भी छात्रों और नौजवानों के बीच काफी प्रचलित है.
बिहार में ही एक ऐसे व्यक्ति का भी जन्म हुआ जिनको भोजपुरी का शेक्सपियर तथा भोजपुरी के अनगढ़ हीरे की उपाधि मिली. जी हाँ! वो कोई और नहीं बल्कि बहुप्रतिभाशाली, बहुअयामी कलाकार, नाटककार, गीतकार, लेखक, निर्देशक, लोक जागरण और लोक संस्कृति के संदेशवाहक, जननायक महान विभूति भिखारी ठाकुर जी हैं. भिखारी ठाकुर जैसे असाधारण व्यक्तित्व की जन्मस्थली बिहार के छपरा जिला (अब सारन) के गंगा के तीरे स्थित कुतुबपुर दियारा है. भिखारी ठाकुर जी ने उस समाज में व्याप्त रूढ़िवादिता, सामंती जकडन, जातिवादी व्यवस्था, आर्थिक विषमता, श्रम का प्रवसन बेरोजगारी, भुखमरी, कलह क्लेश, टूटता परिवार, प्रवासी पीड़ा, नशाखोरी, बेटी बेचने की परंपरा, दहेज़ जैसी अनेकों सामाजिक कुरीतियों और औपनिवेशिक शक्तियों से लड़ने, जनमानस के मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने का काम किया और समाज के सामने सोचने का नया नजरिया पेश किया. ये काम उन्होंने कोरे उपदेश मात्र या भाषण भांज कर नहीं बल्कि कला के विभिन्न आयामों के द्वारा जनता के रंग रस में, उन्हीं की भाषा शैली में, उन्हीं की बोली में, उन्ही के खेत खलिहानों में उन्हीं के बीच रहकर किया. भिखारी ठाकुर अपने समय से कहीं आगे का प्रगतिशील सोच लेकर और कहें की इंकलाबी सोच लेकर सामाजिक बदलाव के सांस्कृतिक नायक के रूप में उभरे. खासकर उस समय के रुढ़िवादी समाज में स्त्रियों की दशा दिशा को लेकर वो काफी चिंतित थे. यही कारण है कि उनके नाटक और कला के विविध रूपों में 70 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं के सम्मान और उत्थान को समर्पित था. फिर चाहे वो विदेशिया हो, बेटी बेचवा, गबरघिचोड, विधवा विलाप हो या फिर पिया निसइल. इन सभी नाटकों में स्त्री के ऊपर हो रहे सामाजिक शोषण, सामंती उत्पीडन, भेदभाव, पीड़ा, विलाप आदि को दर्शाया. खासकर बेटी को एक समान के रूप में बेचे जाने का अपने नाटकों और गीतों के द्वारा पुरजोर विरोध दर्शाया और लोगों को सोचने को मजबूर किया. ऐसा ही एक गाना ‘बेटी बेचवा’ की कुछ लाइन इस प्रकार है
“रोपया गिनाई लिहला पगहा धराइ दिहल ,
अरे चेरिया के छेरिया बनवल हो बाबूजी
नेकी खाती बेटी भसिअवल हे बाबूजी
ढ र ढ रढरकेला लोर मोरे बाबूजी …
( रूपया गिनवा के, पैसे के लिए बकरी की तरह पगहे में बांधकर बाबूजी अपनी बेटी को बेच देते हैं और बेटी के अनसु थमने का नाम नहीं लेते). मुख्यधारा के अधिपत्य वाली संस्कृति के विपरीत भिखारी ठाकुर जैसे ऑर्गेनिक कलाकार ( ग्राम्स्की के शब्दों में ) की सख्त ज़रूरत है, जो जनता की बीच जाकर , पितृसत्तात्मक समाज के जड़ में जाकर वहां से अपने कला के दम पर बीमार समाज का इलाज करे.
भिखारी ठाकुर की मंडली में सारे लोग ऐसे दलित पिछड़े वर्ग के थे जिन्हें अक्षर ज्ञान भी नहीं था. हम कह सकते हैं की उनके रंगमंडल में खेत खलिहानों से जुड़े ऑर्गेनिक कलाकार थे, जिन्होंने उस दौर के तमाम सामाजिक सरोकारों को अपने रंगमंडल का हिस्सा बनाया. मेरी मुलाकात भिखारी ठाकुर जी से जुड़े उनके साथ रंगमंडल में शामिल उनके साथियों से हुई जो अब बहुत बुजुर्ग हो चुके हैं लेकिन जिनको भिखारी ठाकुर जी के साथ काम करने का अनुभव प्राप्त है. शिव लाल बारी जी कहते हैं कि वो साल में ग्यारह महीने भिखारी ठाकुर जी के साथ रंगमंडली में रहते थे और सिर्फ एक महीने ही उनको अपने घर की थाली में खाना खाने को मिलता था. शिवलाल बारी जी और रामचद्र मांझी जी बताते हैं कि उस समय भिखारी जी की लोकप्रियता परमान चढ़ रही थी. नाटक देखने दस-दस कोस दूर से लोग पैदल चलकर आते थे और भीड़ को पुलिस भी कण्ट्रोल नहीं कर पाती थी. तब भिखारी ठाकुर खुद मंच पर आकर लोगों को शांत करते थे. उस समय के ज्वलंत मुददे उनके गीतों, नाटकों का हिस्सा रहे जिसने आम जन पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है.
लेखिका सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं|
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