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लिए लुकाठी हाथ

बाबा जी राम राम

 

मोहनदास को स्वर्ग में रहते हुए सत्तर से भी ज़्यादा वर्ष हो चुके थे।

धर्मराज सत्तर साल से उन का रिपीट टेलीकास्ट देख-देखकर उकता चुके थे। उन्होंने फैसला किया कि कुछ नए एपिसोड देखे जाएँ। लिहाजा पिछले सीजन के अपने आखिरी एपिसोड में, मोहनदास जिस गेटअप में थे उसी में सशरीर हिंदुस्तान की राजधानी में प्रकट हो गये।

बड़ी-बड़ी इमारतें, चौड़ी सड़कें, तेज़ी से भागती गाड़ियाँ – वे चकित हो कर सारा नज़ारा देख रहे थे – कितना सुंदर था उनका हिंदुस्तान ! सबसे अच्छा तो ये लगा कि लोग अभी भी उनके अनुयायी हैं, तभी तो “बुरा मत देखो – बुरा मत बोलो – बुरा मत सुनो” का पालन करते हुए सबके मुँह ढके हुए थे, कान भी बंद और आँखों पर भी चश्मा चढ़ा हुआ था। अब आँख तो पूरी तरह बंद नहीं कर सकते न ! चलना-फिरना- काम करना ये सब तो है ही। चलते-चलते उन्होने देखा एक व्यक्ति ठेला लगाए खड़ा था। बिलकुल उसी हिंदुस्तान का वासी लग रहा था जिसे वे छोड़कर गये थे – कंधे पर सूती गमछा, धोती – कुर्ता पहने।

“राम-राम !”

“राम-राम, बाबाजी ! पानी पिएंगे?”

“हाँ-हाँ, ज़रूर, कितने दिन हो गये हिंदुस्तान का पानी पिये।“

“काहे बाबा? प्रवासी हो का? सकल से तो खाँटी देसी लग रहे हो।“

“हाँ, बहुत दिन बाहर था” – वे मुस्कराए।

“हम भी जब यहाँ से अपने देस लौटते हैं तो हमको भी बहुत अच्छा लगता है।“

“तो क्या तुम हिन्दुस्तानी नहीं हो?”

“हिन्दुस्तानी तो हैं, पर हमारा देस है वहाँ बिहार में। कुछ दिन पहले टीवी वाला लोग बताया कि हम प्रवासी हैं। तुम कहाँ के हो?“

“मैं तो हिंदुस्तान का हूँ।“

“सो तो हो ही, पर देस कहाँ हुआ?’

“देस यही, हिंदुस्तान !”

ठेले वाले को लगा बाबाजी थोड़े खिसके हुए हैं। भला बताइये, हिन्दुस्तानी कौन होता है? बंगाली-बिहारी-पंजाबी-मद्रासी-भोजपुरिया-मगहिया-मैथिली-राजपूत-ब्राह्मण-कुर्मी-कायस्थ कुछ तो होगा ?

उसने पूछा – “और पानी पियोगे बाबा?”

“हाँ, पिला दो, कलेजा ठंडा हो गया अपने सिद्धांतवादी देशवासियों को देखकर !”

“कौन से वादी?”

“सिद्धांतवादी ! देखो, सब ने मुँह-कान बंद किए हुए हैं। मैंने बताया था न – बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो!”

“हैं?” – इस बार वह चौंका – “वह तीन बंदर वाली कहानी बोल रहे हो क्या?”- वह हँस पड़ा –  “ये लोग उसके लिए मुँह नहीं ढका है। आजकल मास्क नहीं लगाने से फ़ाइन हो जाता है इसलिए लगाए हुए है। और कान में जो ठेपी देख रहे हैं उसमें बुरा से बुरा सुन सकता है सब, बस और किसी को पता नहीं चलेगा। सामने रहेगा आपके और बतिया रहा होगा किसी और से।“

इस बार बाबा जी चौंके। उनकी मुस्कान गायब हो गयी। ठेले वाला जारी थी – “लेकिन एक बात सही है ! यहाँ कोई भी न कुछ देखता है, न सुनता है और न बोलता है। अभी हम यहीं आपको गोली मार दें और चल दें तो यहीं पड़े रह जाएंगे आप। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।“

“ये तो बिलकुल गलत है ! अगर ऐसा हो रहा है इस देश में तो मुझे फिर से सत्याग्रह करना पड़ेगा।“

“सत्याग्रह?”- ठेलेवाला हंस पड़ा- “आप के जैसे एक और बाबाजी आए थे यहाँ सत्याग्रह करने। बहुत दिन लगे रहे। पहले-पहले तो सब उनके पास जुटते थे, फोटो–वोटो खिंचवाते थे, फिर फोटो खींचने वाले गायब हो गये, फिर भीड़ भी गायब, कुछ दिन बाद वे बेचारे भी गायब, रह गयी उनकी टोपी जो उनके चेलों ने हाईजैक कर ली थी।“

“ये तो बिलकुल गलत है! कोई तो आम आदमी के लिए आवाज़ उठाएगा।“

“तो आप आम आदमी से हैं?”

“आम आदमी ‘से’ नहीं, मैं तो हूँ ही आम आदमी, आधी धोती वाला! अच्छा, चलता हूँ, राम –राम!”

“लगता है भक्त हो!”

“भक्त तो सदा से हूँ! रघुपति राघव राजा राम …”

“जाओ बाबा, आगे जाओ, दंगा करवाओगे क्या? बीच सड़क पर राम-राम कर रहे हो?”

“मैं तो सहिष्णुता का पुजारी हूँ और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ रहा हूँ।“

“अब तो तुम डिजाइनर पत्रकार वाली भाषा बोलने लगे बाबा!”

ये बात उनके पल्ले नहीं पड़ी। उन्होने अपना वक्तव्य जारी रखा – “मेरा एक ही उद्देश्य था कि जब तक हर पिछड़ा-दलित-हरिजन व्यक्ति समाज मे सम्मान नहीं प्राप्त करता, तब तक हमारी लड़ाई अधूरी है।“

“देखिये बाबाजी, आप पक्का कर लीजिये कि आप कौन हैं ? भक्त हैं, डिजाइनर पत्रकार हैं कि अर्बन नक्सल? या अवार्ड वापसी गैंग?”

“मैं तो शांति और अहिंसा का पुजारी हूँ, किसी गैंग का नहीं!”

“गैंग में तो आप तब जाएंगे जब सरकार आपको कुछ देगी।“

“मुझे तो देश ने बापू का खिताब दिया, महात्मा का दिया, अब सरकार क्या देगी?”

इस बार ठेले वाले का माथा ठनका। उसने ध्यान से देखा – ये तो वही है, चौराहे की मूर्ति वाला, बस इसके ऊपर कौवे नहीं बैठे हैं। कुछ देर वह स्तब्ध रहा। फिर उसने अपने ठेले पर लटका एक मास्क निकाला और उन्हें देते हुए बोला – “बाबा, ये लीजिये मास्क लगा लीजिये। न ज़्यादा बोलेंगे, न पहचान में आएंगे और न ही यहाँ दंगा करवाएँगे। आप किस पार्टी में हैं, ये पहले सोच लीजिये। कभी कुछ बोलते हैं, कभी कुछ। और दुबारा आप को यहाँ आने की क्या ज़रूरत थी। आपके नाम पर हर शहर में चौराहे हैं, सड़कें हैं, स्मारक है, भवन है, संस्थान है, हर दफ़तर में आपकी फोटो है। ये देखिये, हर नोट पर भी है। अब और आपको क्या चाहिए?“

“मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं तो बस अहिंसा और शांति चाहता हूँ।“

“बाबा जी, देखिये, आप को जो देना था, आप ने दे दिया। जिसको जो लेना था, उसने ले लिया। आप का सरनेम, आपकी खादी, लाठी, टोपी, झाड़ू, रामधुन, सब अपने-अपने मालिकों के पास सेट हैं। सबकी अपनी ढपली है, अपना राग है, जिसको जो गाना है, गा रहा है। बाकी जनता ने तो अपना मुंह-कान बंद कर ही रखा है। आप भी अपना आँख-कान-मुँह बंद करिए और चलिए यहाँ से! राम-राम!”

“हे राम !!”

 

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