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लिए लुकाठी हाथ

शिकार हो के चले

 

बचपन में हम ऐसी कहानियाँ सुना करते थे जिनमें हर राज्य या नगर की सीमा के बाहर एक दैत्य हुआ करता था। सारे गाँव वाले उसके डर से थर थर काँपते थे।। जो मांगे उसके सामने धर देते थे मुर्गा, बकरा, गाय, बैल, पैसा, कौड़ी, जो भी उसके मुँह से निकले, बस सामने हाज़िर। याद है न आप को?

यकीन मानिये साहब! वह अभी भी ज़िंदा है। और अब तो वह शहर की सीमा के बाहर नहीं, बीच शहर में रहता है। उसकी महिमा इतनी है कि कई बार तो शहर ही खिसकता-खिसकता उसके इर्दगिर्द चला आता है।Sanskrit Parichay – indians First

नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः – ये सूक्ति भी इसने मिथ्या साबित कर दी है। इसके मुख में सारे मृग खुद ब खुद खींचे चले आते हैं। खुद तो आते ही हैं, साथ ही अपने सभी आत्मीय – स्वजनों को भी साथ लेकर आते हैं। इसकी महिमा कुछ ऐसी है कि हर आने वाला इसकी माया में इस तरह खो जाता है कि अपनी पहचान ही भूल जाता है। हर व्यक्ति यही सोच रहा होता है कि वह शिकारी है पर वस्तुतः वह खुद शिकार होता है – शिकार करने को आये, शिकार हो के चले।

आपने पहचाना इस दैत्य को? जनाब यह है वह मॉल जो शहर के अन्दर बैठा आपका शिकार करता रहता है। दरअसल यह दिखता तो एक है पर यह है कई दैत्यों का कॉपरेटिव।

आप अपने घर में अच्छे-खासे बैठे होते हैं और उठ कर मौल की ओर चल देते हैं। अपना रुपया-पैसा, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, पेटीएम, जो भी मुद्रा आदान-प्रदान की सुविधा दे सके, सभी को साथ ले कर चल पड़ते हैं। अकेले तो जाते नहीं, साथ में घर-परिवार या फिर दोस्त-यार या फिर किसी के दीदार की तमन्ना साथ लिये पहुंचते हैं।

यहाँ सजी धजी दुकानें आपके इंतज़ार में रहती हैं – आप आयें और इनकी प्यास बुझाये। जिस जनता का जन्म ही इस वाक्य के साथ होता है – ‘भैया ठीक-ठीक लगाना, इतने में तो एक दर्जन मिल जाते हैं जितना आप एक का बोल रहे हो’ – वे भी यहाँ भीगी बिल्ली बने दुम दबाये हजारों के बिल चुका रही होती है।

उस किस्से वाले राक्षस की आत्मा किसी तोते में बसती थी। यहाँ भी ऐसा ही है। इस मौल रूपी राक्षस की आत्मा है इसके अन्दर बसा – मल्टीप्लेक्स। इनके हौल जितने छोटे होते हैं, इनका टिकट उतना ही विकट होता है। और सबसे पहले तो होती है आपकी तलाशी।Safety basis, HC raised issue on taking food items in cinema hall ...

कितने भी सजे-धजे सभ्य रूप में आप उसके सामने प्रस्तुत हों, वह ऐसे आपकी तलाशी लेता है जैसे आप अभी-अभी जेल से छूटे हुए कैदी हों। पर्स खोल के दिखाइए। क्या ले के जा रहे हैं। ये तो तब पता हो न, जब पता हो कि क्या लेकर आ रहे हैं? आपको खुद नहीं पता होगा कि पिछले एक साल से आपके पर्स में किन-किन वस्तुओं ने प्रवेश किया है और वहां अपना स्थायी पता पंजीकृत करा लिया है। कितनी चीज़ें वहां की नागरिकता ले चुकी हैं। वह तो जब उनके प्रवेश द्वार पर तलाशी ली जाती है तब जाकर नागरिकता सूची जारी होती है और आप भी आँखें फाड़े देख रहे होते हैं कि वहां से क्या क्या बरामद हुआ – पिलपिली हो चुकी चाकलेट, स्वच्छ भारत के तहत पर्स

के अन्दर डुबकी मार गए खाली रैपर, डिस्काउंट के चक्कर में खरीदी गयी वो लिपस्टिक जिसे अभी तक आपके अधरों को स्पर्श करने का सौभाग्य नहीं मिला, पति का वो चश्मा जिसे वे पिछले जनम से ढूंढ रहे हैं, ड्राइक्लीनिंग की वो रसीद जिसे आपने पुराने बॉय फ्रेंड की तरह भुला दिया था, सेफ्टीपिन का वह गुच्छा जिसे आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए वहां रखा गया था परन्तु जब जब आपदा आई आपने नया टेंडर जारी कर के नए समाधान निकाल लिए और यह सरकारी गोदाम में रखे माल की तरह सड़ रहा है।Corona: CG Govt Not Issues Order For Multiplex, Theaters, Cinema ...

शायद इस तलाशी के जरिये ये पता करना चाहते हैं आपकी जेब में कुछ माल भी है या नहीं। क्योंकि इस हौल में प्रवेश करने के विकट टिकट लेना ही काफी नहीं है, अभी तो आगे और जुल्म होने वाले हैं। अगर बीस रुपये की मकई दो सौ में लेनी पड़े तो जुल्म ही तो हुआ न? दस रुपये की चाय सौ में? अभी और क्या-क्या जुल्म होने बाकी हैं? सड़क पर बेरोजगारी का रोना रोने वाली जनता यहाँ बैठ कर चुपचाप सैकड़ों रुपये मकई चबाने में खर्च कर देती है। करना भी पड़ता है, सभी करते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे प्रेम या शादी, करना ही पड़ता है, सभी करते हैं। तो फिर क्या, करिये। आपका जन्म ही जुल्म सहने के लिये हुआ है। आपने माता-पिता की घुडकिया सहीं,

टीचर की सज़ा झेली, गर्ल फ्रेंड के नखरे सहे, बीवी के ताने झेले तो यह मौल आपका क्या उखाड़ लेगा। लगे रहो मुन्ना भाई! होते रहो शिकार हँस-हँस के, भरते रहो उनका घर/ करते रहो उनको मालामाल!

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