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एक कहानी है जो सबको सुनानी है। क्यों भई तुम दादी, नानी के किस्से सुना रहे हो क्या! और ऐसा क्या है तुम्हारी कहानी में जिसे सुनने के बाद सिनेमा प्रेमियों के शैदाई दिलों राहत या सुकून पहुंचा सको। पिछले साल आई वेब सीरीज ‘स्कैम 1992’ जैसी या कहें उससे प्रेरित कहानी जरूर लेखक, निर्देशक, निर्माता ने सोच ली लेकिन कायदे से उसे पर्दे पर उतार नहीं पाए। इसलिए तुम लोगों के जेबों पर हाथ साफ करने का ये बहाना अच्छा था कि इसे हर्षद मेहता स्कैम से जोड़कर प्रचारित प्रसारित किया जाए।
यह फ़िल्म शेयर बाज़ार की न तो समझ पैदा करने में कामयाब हो पाती है और न ही राजनीतिक सम्बन्धों को ठीक से निभाने के गुर दे पाती है। इसके अलावा और तो और लिफ़्ट में खड़े-खड़े एक आदमी को ऐसी टिप दे दी जाती है कि उसकी क़िस्मत ही ‘लिफ़्ट’ कर जाती है।
कूकी गुलाटी के निर्देशन में बनी ‘द बिग बुल’ इसी गुरुवार को डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज़ हुई और सबकी जेबों पर हाथ साफ कर गयी। नब्बे के दशक में हुए स्टॉक मार्केट घोटाले से प्रेरित फ़िल्म होने की वजह से यह लगभग तय हो गया था कि इसे हंसल मेहता की बहुचर्चित वेब सीरीज़ ‘स्कैम 1992’ की कसौटी पर कसा जाएगा। मगर, ऐसा कहना उस बेहतरीन सीरीज का अपमान करना होगा। माना कि फ़िल्म की अपनी सीमाएं होती हैं, जो वेब सीरीज़ के जितनी बड़ी या फैली हुई नहीं होती। इसीलिए ‘स्कैम 1992- द हर्षद मेहता स्टोरी’ को वहीं रहने दीजिए।
‘द बिग बुल’ की कहानी मोटे तौर से इतनी ही है कि नब्बे के दशक में समझदार हो रही पीढ़ी जो रोज़ अख़बार पढ़ रही है खबरें देखती, सुनती आ रही है। उसे ‘द बिग बुल’ की कहानी का गहरा न सही मगर सतही अंदाज़ा तो ज़रूर होगा ही। करीबन 5000 करोड़ के घोटाले के बारे में भी वह पीढ़ी जानती होगी। बस वही इसमें है लेकिन खोखले तौर पर।
निर्देशक कूकी गुलाटी और अर्जुन धवन ने इसकी पटकथा मिलकर लिखी है। हेमंत शाह की कहानी को सेलिब्रेटेड बिज़नेस जर्नलिस्ट मीरा राव के रूप में दिखाया गया है, जो हेमंत की सलाह पर उसकी बायोपिक ‘द बिग बुल’ लिखती है और एक प्रोग्राम में बच्चों को सुनाती है।
मीरा राव ही वो जर्नलिस्ट है, जिसने हेमंत शाह के घोटाले को उजागर किया। फ़िल्म शुरुआत में थोड़ा चकराती है लेकिन जब तेज़ी से कहानी बदलने लगती है तो नब्बे से अस्सी के दशक में घूमती है। फिर जैसे तैसे हेमंत का खेल शुरू होता है और कहानी समझ में आने लगती है।
हेमंत शाह के रूप में मात्र बच्चन ही जीते नजर आते हैं। कई बार वे आंखों की भाव भंगिमाओं से भी कमाल करते है। वहीं इलियाना डिक्रूज़, निकिता दत्ता कहीं से भी जमती नजर नही आती। सोहम शाह भी औसत रहे। कैरी मिनाटी का गाना ‘यलगार’ जो शायद थोड़ा सुकून दे सकता है।
इस फिल्म को किसी की बायोपिक तो नहीं कहा सकता है पर हाँ हर्षद मेहता की कहानी से प्रेरित जरूर कहा जा सकता है। कुलमिलाकर इसमें हल्का फुल्का सा एक्शन भी है मगर वह दहलाता नहीं। इमोशन भी हैं हल्के फुल्के से मगर छूते नहीं। रोमांस तो नही ही है है तो भी दिखता नहीं। अरे बाप रे काॅमेडी भी मगर हंसाती नहीं। कुछ आइटमनुमा गाने और कच्चे पन का घोल है यह फ़िल्म। सबको मिक्स करके ही तैयार की गयी है यह फिल्म। इसके अलावा इस बड़ी सी कहानी के इर्द-गिर्द बुनी गयी स्क्रिप्ट में इतने सारे छेद हैं कि छलनी भी शरमा जाती है।
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