संस्मरण

बाबूजी की 27वीं बरसी: उनकी बातों और उनके हाथों में बहुत रस था

 

बाबूजी की बरसी हर साल की तरह फिर इस साल आई. हर साल उनके व्यक्तित्व को जानने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाता हूँ. जैसे जैसे मेरी उम्र गुजर रही है, उनके बारे में मेरा नजरिया बदलता जा रहा है. उम्र के इस पड़ाव में जब ठहराव आता है तब आप खुद को कई कोण से देखते हैंऔर अपने से जुड़े लोगों को भी. इधर कुछ वक़्त से मैं बाबूजी को अपने कोण से और खुद को बाबूजी के कोण से देखने की कोशिश करने लगा हूँ. मैं जब 18 का भी नहीं हुआ था, वो चल बसे. कल उनकी 27वीं बरसी होगी. मतलब उनके साथ मैंने जितनी जिंदगी बिताई उससे कहीं ज्यादा वक़्त उन्हें इस दुनिया से गए हुए हो गया.

अब हर साल इस दिन यही सोचता हूँ कि उन्हें किस तरह याद करूँ. इन दिनों मैं अपने आप को भी खोजने में लगा हूँ और एक मजेदार बात सामने आई है कि मैं सोशल मीडिया पर फिशमैन बन गया हूँ तो सोचा कि क्यों न इसी बिंदु पर बाबूजी के बारे में सोचूं और लिखूं. मुझे मजेदार खाना खाना अच्छा लगता था. कुछ सालों से खाना बनाना भी मजेदार लगने लगा है. मछली उस खाने का केंद्र बन गई है. मछली शुरू से हमारे जीवन का केंद्र थी और उसे हमारे जीवन का केंद्र बनाने में बाबूजी का बहुत बड़ा हाथ है. बाबूजी का भोजन प्रेम मुझसे भी ज्यादा मशहूर था. दूसरे शब्दों में कहूं तो मेरे भोजन प्रेमी होने में भी उनकी बड़ी भूमिका रही है. उनके भोजन प्रेम के तीन कोण थे—मछली, मांस और मिठाई. वे अच्छे खाने की तारीफ में उम्दा और बहुत बढ़िया जैसे शब्दों से काम नहीं चलाते थे.

एक बार घर में सेवई बनी और दूध फट गई। उन्होंने इसका स्वाद के लिए कहा-डकरैनी (खट्टी डकार) लग रहा है। ऐसे ही एक बार चाय खराब बनी तो कहा-बकरमुतवा (बकरी की मूत की तरह बदबू वाला) लग रहा है। मेरे शहर में एक मिठाई वाला बहुत बड़े साइज के रसगुल्ले बनाता था तब मैं बहुत छोटा रहा होऊँगा तो क्लास में फर्स्ट आने पर कहा-चलो तुमको एटम बम खिलाता हूँ। मैंने पूछा-एटम बम। उन्होंने बताया- रसगुल्ले का साइज बहुत बड़ा होता है। उन्होंने कहा-मुँह खोलकर दिखाओ। मैं पूरे दिन मुँह फाड़ता रहा और वे कहते रहे-ये तो बहुत छोटा है। मैं अंत मे रोने लगा कि रसगुल्ला मेरे मुँह के भीतर कैसे जाएगा। उन्होंने मुझे चुप कराया और दुकान पर ले गए तो मैं रसगुल्ले का साइज देखकर दोबारा रोने लगा। उन्होंने चम्मच मँगवाई और काटकर खिलाई और कहा कि पहाड़ जैसा कोई आदमी तुम्हारे सामने खड़ा हो जाय तो उसे पूरा ध्वस्त करना मुश्किल होगा। उसे ऐसे टुकड़ों में काट-काटकर खत्म करना होता है मुझे लगता है कि खाने की तारीफ के लिए आपकी शब्दावली और आपकी जबान का धारदार होना बहुत जरूरी है.

हमें उनकी बातों में भी रस मिलता था

बाबूजी को मछली सबसे ज्यादा पसंद थी. वे तरह—तरह की मछली खरीद कर लाते. घर में एक मछली खत्म नहीं होती तो वे दूसरी खरीद लाते. वे खुद ही बनाते और हम भाई व बहनों को खिलाते थे. घर में दादी, मां और तीनों दीदियां खाना बनाती थीं. लेकिन जब कभी हमारे घर अतिथि आते तो वे पिताजी से अनुरोध करते कि उनके ही हाथों की पकाई हुई खाएंगे. उनके हाथों में गजब का रस था. वे रस लेकर खाना बनाते. कोयले के चूल्हे के सामने वे कुर्सी लगाकर बैठते और जबतक मांस—मछली पक नहीं जाती, वे वहां से हिलते नहीं थे और हम भी. हम उनके आसपास ही चिपके रहते. बाबूजी सिर्फ मछली ही नहीं पका रहे होते थे. मछली के साथ बहुत से किस्से भी पकाते चलते थे. उनकी आवाज बहुत साफ थी. खाना पकाते समय उनकी साफ़ आवाज में हम उनकी कहानियों और खाने की खुशबू का रस लेते रहते थे. यूँ लगता था कि खाना बनाने का वक़्त शायद लंबा खींच जाए.

बाबूजी की कोशिश रहती कि हम उन्हें अकेला नहीं छोड़ें और उनकी ये कोशिश होती कि हम बातों के सहारे खाना पकाने का आनंद उठाना सीख जाएं. वे कुर्सी पर जमे रहते और उनके साथ दूसरी कुर्सी पर कभी कोई अतिथि भी बैठा होता. हम भाई—बहन भी आसपास उनकी कहानियां सुनने को मरे जाते थे. वे कहते— एक बार एक हिरण का मांस खाया. अब सबने एक साथ पूछा— कैसा लगा था? उन्होंने उस्ताद वाले भाव से भरते हुए कहा— बहुत मुलायम, नरम और थोड़ा मिट्टी का स्वाद लिए हुए था. फिर मैंने अचरज भरकर उनसे पूछा— मिट्टी जैसा. आपने कभी मिट्टी खाकर देखी है तो उनका जवाब था— मिटटी खाई नहीं जाती, चाटी और चटवाई जाती है. पहलवानी में एक पहलवान, दूसरे को मिट्टी चटाते हैं. मैंने कइयों को चटवाई और कई बार मैंने भी चाटी है. खाने में किसी और विषय को ले आना उनके बाएं हाथ का खेल था.

हम उन्हें कहानियों का सिरा पकड़ाते और वे उसे बुनते जाते

एक किस्सा खत्म होता तो हम दूसरे की फरमाइश करते. हम उन्हें सिरा पकड़ाते वो सिरा पकड़कर न जाने कहाँ कहाँ से जिंदगी के हर सुख दुःख को किस्सों में बदलकर घंटों तक सुनाते चलते. एक मजेदार किस्सा आपको सुनाता हूँ. हमारे मोहल्ले में एक प्रकाश पान भंडार था, जहां बाबूजी पान खाया करते थे. पान दुकान के पास एक बड़ा सा कुत्ता था, जो एक—दो बार बाबूजी के पीछे पड़ गया था. एक दिन बाबूजी पान की दुकान के पास से गुजर रहे थे तो कुत्ता आदतन उनकी साइकिल की ओर सामने से दौड़ा. बाबूजी ने साइकिल उसपर ही चढ़ा दी. बाबूजी को कुत्ते को सबक सिखाने के बाद बहुत खुशी मिली थी. अब बाबूजी खुश होकर बताते प्रकसवा का कुतवा सैल्यूट मारता है. हम उनसे यह किस्सा अक्सर सुनते.

किस्सों के बीच में से वे हमें नॉनवेज बनाने से जुड़ी टिप्स बताते. वे मिसाल के तौर पर कहते—मांस खाते समय अगर चेहरे से पसीना ना छूटे तो नॉनवेज खाने का क्या आनंद? मांस में मसाला ज्यादा रखना है, मछली में कम. उन्होंने ही हमें नॉन वेज को हल्दी, नमक व अन्य मसालों के साथ मेरिनेट करना सिखाया. यह बात उन्होंने ही बताई थी कि ऐसा करने से इन्हें कई घंटे बाद भी पकाओ तो खराब नहीं होता. यह ट्रेनिंग उन दिनों इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि उस समय फ्रिज इतने कॉमन नहीं हुआ करते थे.

चटनी तो उन्हें जरूर चाहिए होती थी

बाबूजी को खाने में सिलबट्टे पर पीसी हुई चटनी जरूर चाहिए होती थी. वे पूरे साल चटनी खाते. धनिया, पुदीना, कुदरूम, इमली, आम, आंवला, टमाटर, चना दाल और पता नहीं कितनी तरह की चटनी मां से या दीदी से बनवाते थे. आम की चटनी में पुदीना और थोड़ी चीनी डलवाकर बनी चटनी उन्हें सबसे प्रिय थी. मुझे भी चटनी बहुत पसंद है. मेरा मानना है कि खाने में चटनी दो कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है. पहली तो यह हाजमे के लिए बहुत ही कारगर औषधि का काम करता है. दूसरा यह मुख्य खाने का स्वाद बरकरार रखने के लिए ब्रेक का काम करता है. मतलब आपने दो—चार कौर में मुख्य खाने का स्वाद लिया, उसके बाद चटनी चाटी. मुंह का जायका बदला और फिर आपने नए सिरे से खाने का स्वाद लेना शुरू कर दिया.

बाबूजी मालपुआ बहुत बढ़िया बनाते थे

बाबूजी को मिठाई बहुत पसंद थी. वे अलग—अलग शहर की मिठाइयों के नाम बताते और उनका स्वाद बताते. मेरी मंझली दीदी बताती हैं कि बाबूजी ने उन्हें खाना बनाना सिखाया. वे बाबूजी को याद करती हुई करती हैं कि वे मालपुआ भी बहुत बढ़िया बनाते थे. हम छह भाई—बहनों में तीनों बहनें पहले फिर बाद में हम तीनों भाई पैदा हुए. मैं सबसे छोटा हूं. बहनें बड़ी थीं इसलिए किचन में उनका सहयोग करना लाजिमी था. हमारी तीनों दीदियां बहुत अच्छा खाना बनाती हैं. हम तीनों भाई भी ठीक—ठाक खाना बना लेते हैं. मुझे लगता है कि बाघ, बिल्ली की तरह मेरे बाबूजी की यह ​कोशिश रहती कि हमारे सभी बच्चे खूब अच्छा खाना खाएं.

उनमें जिजीविषा थी

वर्ष 1993 में वे हॉस्पिटल में भर्ती हुए तब जो डॉक्टर उनका इलाज कर रहे थे, वे उन्हें देखने आते और कहते— मास्टर साहब आप जोक सुनाइए. डॉक्टर सुनील सिंह उनसे कविता भी सुनने की फरमाइश करते थे. अस्पताल के बेड पर पड़े, जीवन से संघर्ष कर रहे एक रोगी से डॉक्टर जोक कविता सुनाने को कहे तो यह उस रोगी की जिजीविषा को दर्शाता है. वे चाय बनाते समय हीटर पर गिर पड़े और बुरी तरह से जल गए थे. उनका शरीर 70 फीसदी से ज्यादा जल गया था. उन्हें कितना दर्द होता होगा, आज अपनी उंगली कभी तवे से लगते ही पता चल जाती है. मैंने उन्हें कभी कराहते हुए नहीं देखा. हॉस्पिटल में एडमिट करने से पहले ही डॉक्टर ने कह दिया था कि वे नहीं बचेंगे. लेकिन वे 24 दिनों तक हॉस्पिटल में इसलिए जूझ पाए क्योंकि वे बहुत हिम्मती आदमी थे और उनकी जिजीविषा प्रबल थी.

आज वे 82 साल के होते

आज वे जिंदा होते थे तो लगभग 82 साल के होते. हम सभी भाई—बहन उन्हें बहुत याद करते हैं. वे बहुत लिबरल थे. शायद यही वजह है कि मेरी बहनें और मां उन्हें जब भी याद करती हैं तो खूब सम्मान से याद करती हैं. उन्हें याद करते हुए हम सबकी आखें चमक उठती हैं और वे नम हो जाती हैं. मैं आज भी उन्हें किचन में काम करने के दौरान खूब याद करता हूं. कपड़े और जूते खरीदते वक्त भी उनके शौक को याद करता हूं. उनकी मृत्यु के इतने सालों के बाद भी उनकी स्नेह की उंगली कभी छूटती हुई मालूम नहीं पड़ती. दिक्कतों में उनकी उंगलियों को मैं अपनी मुट्ठी में जोर से भींच लेता हूं.

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स्वतंत्र मिश्र

लेखक पत्रकार हैं और ‘फिशमैन’ के नाम से मशहूर हैं। सम्पर्क +919873091977,15.swatantra@gmail.com
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