ऐसे भी जीते हैं लोग
पिछले दिनों पुणे की एक संस्था ‘लोकायत’ ने गाँधी पर एक व्याख्यान देने के लिए मुझे आमन्त्रित किया था. इस व्याख्यान के बहाने मुझे पहली बार पुणे जाने का मौक़ा मिला. इस शहर के बारे में मेरी उत्सुकता काफ़ी थी. इसका इतिहास और वर्तमान दोनों मेरे लिए कौतुहल का विषय था. शहर तो बहुत ज़्यादा देख नहीं पाया. लेकिन ‘लोकायत’ के लोगों से मिल कर बहुत सुकून हुआ. उनके बारे में जितना जान पाया उससे लगा कि उनके रहन-सहन का यह विशिष्ट तरीका नवउदारवादी अपसंस्कृति के दौर में एक तरह का सांस्कृतिक उपचार और वैकल्पिक जीवन का प्रस्ताव है.
इस संगठन के बारे में अपने मित्र अपूर्वानंद और मनोज झा से बहुत कुछ सुन रखा था. इसलिए निमंत्रण मिलते ही मैंने स्वीकार कर लिया. शहरों को समझने का मेरा प्रयास बहुत दिनों से चल रहा है. इस प्रयास में मेरी जिज्ञासा है कि आज के भारत में ऐसे शहर कितने हैं जहाँ जीवन और जगत के सन्दर्भ में न सिर्फ नयी सोच उभर रही है बल्कि नवाचारी प्रयोग भी हो रहे हैं|. ‘सबलोग’ के पाठकों को याद होगा इस सन्दर्भ में कलकत्ता, राँची, पटना, चंडीगढ़, भोपाल, पूर्णिया जैसे शहरों के बारे में मैंने लिखा है.
आम तौर पर मैं शहर के बीच किसी ऐसे होटल या गेस्ट हाउस में ठहराना पसन्द करता हूँ जहाँ से अहले सुबह शहर की यात्रा शुरू की जाए और उसके मिज़ाज को समझा जा सके.
बिना किसी औपचारिकता के हम एक के बाद एक मुद्दे पर एक दूसरे को अपना विचार बताते रहे. आर्थिक नीति से लेकर गांधी, धर्म, अध्यात्म, जनान्दोलन, वामपन्थ आदि आदि, हमारी बातचीत का विषय बना रहा. बातों के सिलसिले में समय का पता ही नहीं चला. अभी तक संस्था के बारे में ज़्यादा बातें नहीं हो पायी थी. केवल इतना पता चला था कि नीरज आई आई टी बनारस में पढ़ते थे और उसी समय वामपन्थी आन्दोलन के साथ जुड़ गये थे, कभी नौकरी नहीं की. ज़्यादातर समय आन्दोलन के कामों में ही गुज़रा. कुछ समय बाद इस आन्दोलन से असन्तोष हुआ और फिर नये तरह के काम में लग गये. इसी क्रम में अलका से मुलाक़ात हुई जो अब तक बैंक कर्मचारियों के आन्दोलन में सक्रीय थीं. फिर दोनों साथ हो लिए और पुणे को अपना कर्म क्षेत्र बना लिया. पुणे इसलिए कि छोटा शहर था और जीवन आसान था. किसी मित्र ने अपना फ़्लैट रहने को दे दिया था और एक मित्र ने शहर के महत्त्वपूर्ण इलाक़े में अपने मकान का एक हिस्सा ‘लोकायत’ के कार्यालय के लिए दे दिया था.
सुबह जब बात और खुली तो पता चला कि यह एक आम संगठन नहीं है. ऐसे कई संगठनों के लोगों से मिलने का मुझे मौक़ा मिला,जिनकी कहानी कमोबेश एक जैसी रहती है. लेकिन ‘लोकायत’ की ख़ासियत उसके सदस्यों का जीवन दर्शन है. पता चला कि इस संगठन के बहुत से सदस्य नौकरी करते हैं और उनमें से ज़्यादातर लोग आइ टी उद्दयोग में हैं. दिन भर अपना काम करने के बाद कार्यालय में जमा होते हैं और दिन भर की थकान को परे रख कर अलग तरह के काम में जुट जाते हैं. फिर उसी सिद्दत के साथ शनिवार और रविवार का इन्तजार करते हैं जब उन्हें या तो किसी पब्लिक लेक्चर या फिर किसी मुद्दे पर जनजागरण या किसी न किसी मुहल्ले के संवाद में लगना है. आम तौर पर इस आइ टी उद्दयोग से जुड़े लोगों का नाम आते ही मुझे बंगलौर की याद आती है, जहाँ बड़े पैमाने पर इस काम से जुड़े लोग रहते हैं. शायद इस उद्दयोग की कुछ अपनी समस्याएँ हैं.
यह बौद्धिक काम है भी और नहीं भी है. इंसान की भाषा से अलग एक ख़ास तरह की भाषा में सोचते हैं और लिखते हैं, जो इंसानों से बात करने वाले मशीनों की भाषा है. शायद मशीनों की भाषा से वे तंग आ जाते हैं और इंसानों की खोज में निकलते हैं. कई वर्षों पहले मेरे एक छात्र ने मुझे बताया था कि उसके साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था और इस नौकरी को छोड़ कर पुनः राजनीतिशास्त्र में स्नातक करने आ गया था. लेकिन बंगलोर में यह खोज उन्हें ले जाती है या तो नए युग के धार्मिक बाबाओं के पास जहाँ अध्यात्म उन्हें सुकून देता है या फिर उन पब्स में जहाँ जा कर शराब और शबाब से अपने होने का उन्हें ऐहसास होता है. ऐसा कहना उचित नहीं होगा कि सभी यही करते हैं लेकिन उस शहर में इन दोनों के बहुतायत से तो यही लगता है कि इस अनुमान में कुछ तथ्य है. इसके ठीक विपरीत पुणे के ये लोग जो मशीनी भाषा के जानकार तो ज़रूर हैं, लेकिन समय मिलते ही पब्स या आध्यात्मिक बाबाओं के बदले समाजिकता में अपने अस्तित्व की खोज करते हैं.
इस खोज की प्रक्रिया बहुत रोचक है. काम से लौटने के बाद उनके सामूहिक जीवन का एक नया रंग होता है. एक सामूहिक भोजनालय है जहाँ उनका शाम का खाना बनता है. लोग देर रात तक बैठ कर अलग-अलग तरह के कार्यक्रमों की योजनाएँ बनते हैं और उसे कार्यरूप देने का प्रयास चलता रहता है. इस समूहिकता में अपनी आमदनी एक हिस्सा उदारता से ख़र्च करते हैं और अपने उन साथियों का भी ध्यान रखते हैं जिनकी आमदनी या तो नहीं है या बहुत कम है. ‘साथी हाथ बटाना साथी रे’ के तर्ज़ पर प्रतियोगिता के बदले सहयोग के जीवन का एक अच्छा नमूना देखने को मिलता है. उनकी बातों में न तो उनको मिलनेवाले ‘पैकेज’ का ज़िक्र होता है न ही कारों के मॉडल का और न ही तुरंत धनी हो जाने की योजनाओं का. इसे देख कर मुझे प्रसिद्ध जापानी चिंतक कोज़िन करातानी की याद आयी. जापान में जब पिछलीबार भयंकर भूकम्प आया था तो उस समाज के व्यवहार का अध्ययन कर उन्होंने एक लेख लिखा था.
उसका सार यह था कि संकट की घड़ी में जापान के कुछ समूहों में एक नया प्रयोग चल रहा था, जिसमें प्रतियोगिता के बदले सहयोग के समाज की कल्पना की जा रही थी. करातानी का मानना था कि विश्वयुद्ध के बाद जापान संकट से उभर तो ज़रूर गया लेकिन उसने आधुनिक पश्चिमी समाजिक दर्शन को अपना लिया था, जिसने जापान में गहरा सामाजिक संकट पैदा किया है. उनके अनुसार जिस तरह से परमाणु संयन्त्रों के प्रभाव क्षेत्र में रहनेवाले लोगों ने पानी के संकट का समाधान किया उससे बदलाव की एक नयी उम्मीद नज़र आती है. इस बात की समझ लोगों को होने लगी है कि मनुष्य के आपसी सहयोग पर आधारित समाज की नयी कल्पना करनी होगी और इससे ही मानव जाति का भी कल्याण है और मनुष्य और प्रकृति के बीच के सम्बन्ध के बदलने की सम्भावना भी होगी. पश्चिम के आधुनिक दर्शन ने जो मनुष्य के स्वभाव की कल्पना की है वह एक तरह की कल्पना मात्र है जिसने वास्तविकता का रूप ले किया है और उससे निकलने की ज़रूरत भी है ऐसा होना सम्भव भी है. ‘लोकायत’ के लोगों से बात कर ऐसा लगा कि यह नवीन कल्पना केवल जापानी समाज में नहीं हो रही है बल्कि भारत में भी हो रही है. शायद यह ऐसियाई समाज के दर्शन की उपज हो.
‘लोकायत’ की ख़ासियत है कि पुणे शहर में लगातार कार्यक्रम आयोजित करता है. इतनी व्यस्तताओं के बावजूद लोग जमा होते हैं और समाज के बिखराव को रोकने की कोशिश करते हैं. पिछले क्रिसमस में इनका जत्था शाम में अपने बैंड ग्रुप के साथ सड़क पर गाते हुए निकल गया और फिर बहुत से लोग जमा हो गये, नये ढंग से क्रिसमस मनाया गया. ऐसे ही अनेक त्योहारों में बाहर निकल कर सामूहिक रूप से उसे मनाए जाने की यह योजना मुझे बेहद रोचक लगी. सम्प्रदायों के बीच की दूरियों को हम तभी काम कर सकते हैं जब उनके साथ त्योहार मनाएँ. इन त्योहारों पर किसी का एकाधिकार नहीं हो सकता है. गाँधी ने एक बार किसी से कहा था कि जीसस पर केवल ईसाइयों का एकाधिकार कैसे हो सकता है.
ऐसे ही बाँकि भगवानों को भी इन साम्प्रदायिक ताक़तों से छीन लेने के लिए यह तरीक़ा ठीक है. यह संगठन ‘बस्तियों’ में काम करता है. बस्ती का अर्थ समझने में मुझे देर लगी. वहाँ स्लम को बस्ती कहा जाता है और बहुत से सदस्य इन बस्तियों से आते हैं. संगठन उनके जीवन में उत्साह भी भरता है अर्थ भी, यह देख कर मुझे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ बिताए अपने दिन याद आ गए. मैं नब्बे के दसक में दल्ली राजहरा गया था. उनका अपना विद्यालय था, चिकित्सालय था और आदिवासियों के बीच उनका काम था. अद्भुत उत्साह और आत्म विश्वास भरा था इस संगठन ने उनमें, नशामुक्ति का पूरा आंदोलन चलाया था. इसी तरह अररिया और औरंगाबाद में भी कुछ प्रयोग चल रहे हैं. यह प्रयोग उन सबसे अलग इस मायने में है कि यह शहर में है और नौकरी करनेवाले लोग इसमने शामिल हैं. अध्ययन, अध्यापन और लेखन भी इनके कामों में प्रमुख है. देश भर के महत्त्वपूर्ण चिन्तकों को बुलाकर शहर में पब्लिक लेक्चर आयोजित किया जाता है. ख़ास बात यह भी है कि इन कार्यक्रमों में सभागार खचाखच भरा रहता है.
इस संगठन के सदस्यों से बात करने का मेरा अनुभव भी रोचक रहा. मुझे बताया गया कि इनके बीच एक बहस यह चल रहा है कि ‘ईश्वर तेरे नाम, अल्लाह तेरे नाम’ गाया जाना कहीं धर्मिकता के दायरे में तो नहीं माना जाएगा. मेरे लिए तो यह सही विषय था क्योंकि मैंने लैटिन अमेरिकी लिबरेशन थीयोलोजी पर शोध किया है; गांधी, मार्क्स, अम्बेडकर और टैगोर के विचारों में धर्म की अवधारणा पर काम किया है और मेरा तर्क है कि मुक्तिकामी धर्म की खोज ही इनकी मुख्य उपलब्धि है. धर्म एक तरह की ज्ञान परम्परा पर आधारित है और इसके मूल में संस्थाएँ, रिचूअल या सामाजिक नियम नहीं हैं, बल्कि एक तरह की आध्यात्मिकता है और ज़रूरत पड़ने पर आध्यात्मिकता को आधार बनाकर धर्म सुधार का आन्दोलन होना आवश्यक है. यदि कोई धर्म मनुष्य को उसके उच्चतम उपलब्धियों तक पहुँचने की बाधाओं से उसे मुक्त नहीं करता हो तो वह धर्म हो ही नहीं सकता है. लगभग तीन-चार घंटों तक हमारे बीच आध्यात्मिकता को लेकर बहस होती रही.
इस बहस की शुरुआत मैंने विज्ञान के दर्शन से की. मेरे लिए यह पहला मौक़ा था जब किसी जनान्दोलन के कार्यकर्ताओं के बीच विज्ञान के दर्शन की बात कर रहा था. शायद समय के अभाव में मैं सारी बातों को ठीक से खोल कर कह भी नहीं पा रहा था, लेकिन मुझे इस संवाद में बेहद मज़ा आ रहा था, क्योंकि इसका दवाब नहीं था कि ये बातें उनके ऊपर से निकल सकती थी. मैंने विज्ञान के इतिहास और उससे सम्बन्धित दर्शन के इतिहास की बात करते हुए यह तर्क देने का प्रयास किया कि अध्यात्म भी मनुष्य की संरचना का हिस्सा है. ईश्वरवाद पर बहस तो प्रपंच मात्र है. जिस तरह से काम मनुष्य के स्वभाव का नैसर्गिक हिस्सा है ठीक उसी तरह अध्यात्म भी है. मनुष्य का आध्यात्मिक होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. और गाँधी जब धर्म की बात करते हैं तो इसी नैसर्गिकता की बात करते हैं. सवाल पर सवाल आते रहे. थोड़ी देर के लिए तो मैं भूल ही गया कि मैं जवाहरलाल नेहरु वि0 वि0 की अपनी कक्षा में नहीं हूँ. सबसे ख़ास बात यह थी कि ये सवाल ‘लोकायत’ के लोगों से आ रहे थे जिसका नाम ही उस दर्शन की ओर इंगित करता है जिसके बारे में माना जाता है कि अध्यात्म के सवाल में उसकी रुचि नहीं है.
मेरे ख़याल से यह महज़ संयोग है कि लोकायत की व्याख्या मैं भौतिकवादी दर्शन की तरह नहीं कर यथार्थवादी दर्शन की तरह करता हूँ, जिसमें ईश्वर का सवाल तो गौण है लेकिन अध्यात्म का सवाल महत्त्वपूर्ण है. मेरे ख़याल से इस बात को यदि ठीक से समझ लिया जाए तो बहुत से आध्यात्मिक बाबाओं की दुकानें बन्द हो सकती है. मैं मार्क्स को भी भौतिकवादी की जगह यथार्थवादी मानता हूँ और गाँधी को नैतिक यथार्थवादी. बहुत ही खुल कर इन बातों पर बहस होती रही और मैं इस संगठन की गहराई को नापता रहा. मेरे लिए यह लोकायत दर्शन से उपजे सवाल भी थे. आजकल बहुत से मार्क्सवादी विचारक दक्षिणी स्पेन के मोंडरेगोन प्रयोग की बात करते हैं जो सहकारिता का बेहतरीन उदाहरण है. वे मानते हैं कि यह भविष्य के समाजवाद लिए एक तरह का मॉडल है. ग़ौर करने की बात यह है कि इस प्रयोग में भी आध्यात्मिकता का महत्वपूर्ण योगदान है, इस प्रयोग की शुरुआत एक ईसाई पादरी ने की थी और उसके द्वारा बनाए गए मूल्य अभी भी सर्वमान्य हैं जिसका आधार आध्यात्मिकता है.
जीने के इस तरीक़े में भविष्य का जीवन दर्शन है. इसमें रोज़ की ज़िंदगी और दर्शन अलग-अलग नहीं है. मैं यह मानता हूँ कि आज का सबसे बड़ा वैचारिक संकट है जीवन, चिन्तन और ज्ञान अलगाव. हम अपने जीवन पर चिन्तन नहीं करते हैं, और अपने चिन्तन को ज्ञान का माध्यम नहीं बनाते हैं. जो ज्ञान हमारी पुस्तकों और विश्वविद्यालय में प्राप्य है वह हमारे चिन्तन को प्रभावित नहीं करता है और इसलिए हम अपने जीवन में वैचारिक प्रयोगों से वंचित रह जाते हैं. यदि आप गाँधी की आत्मकथा को पढ़ें तो उसका मूल क़थ्य यही है कि इन तीनों के बीच एक सामंजस्य बनाने की ज़रूरत है और वही मनुष्य होने का मतलब है, जीवन का अर्थ है. यदि ऐसा हो सके तो हमारे समाज की वैचारिक शून्यता ख़त्म हो सकती है और पूँजीवादी मानसिकता से मुक्ति पा सकते हैं. हमारी वैचारिक ग़ुलामी ख़त्म हो सकती है. हर मनुष्य यदि विचारवान हो सके तो ही हम ऐसे समाज के बारे में सोच सकते हैं जिसमें ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः’ की कल्पना हो सके. मुझे यह जान कर अच्छा लगा कि ऐसे भी जीते हैं लोग और यह सचमुच जीने योग्य ज़िंदगी है.
लेखक समाजशास्त्री और जे.एन.यू. में प्राध्यापक हैं|
सम्पर्क- +919968406430, manindrat@gmail.com
.
लेखक के लोकायत, पुणे के वक्तव्य को नीचे लिंक पे क्लिक करके सुना जा सकता है|
.