सिनेमा

स्केट बोर्ड पर फिसलती ‘स्केटर गर्ल’

 

{Featured In IMDb Critics Reviews}

 

निर्देशक – मंजरी माकीजन्य
स्टार कास्ट – वहीदा रहमान, एमी मघेरा, राचेल सञ्चिता गुप्ता, जोनाथन रेडविन, शफीन पटेल, साहिदुर रहमान, विनायक गुप्ता आदि

राजस्थान के उदयपुर में 45 किलोमीटर दूर खेमपुर गांव में एक लड़की आई है लंदन से। जिसके पिता का सम्बन्ध है इस गांव से। सात साल के उसके पिता को गोद लिया था किसी ने, कारण ये की उस लड़की के दादा की फैक्ट्री थी जिसमें एक रात आग लग गई। कोई मदद करता इससे पहले अंदर फंसे व्यक्ति की मौत हो गई। अब उस व्यक्ति के परिवार के एकमात्र सदस्य सात साल के बच्चे को इस अंग्रेज लड़की के दादा ने गोद ले लिया। अब ये वापस आई है अपने पिता के मरने के बाद जब उसे पता चला कि वो हिंदुस्तान से है। यहां आई तो बच्चों को जुगाड़ वाली स्केट बोर्ड बनाकर खेलते देखा। उसके मन में हुक उठी और अपने एक विदेशी दोस्त की मदद से स्केट बोर्ड लाकर पूरे गांव के बच्चों में बांट दिए। बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया।

गांव में विरोध होने लगा तो उसने ‘नो स्कूल नो स्केटबोर्ड’ की तश्तरी पेड़ पर टांग दी। बच्चे स्कूल जाने लगे। लेकिन इस बीच एक लड़की थी गांव की जिसके सपनों को, परवाजों को पंख मिलने लगे। वो स्केट बोर्ड पर चलते हुए खुद को आजाद और हवा में उड़ते हुए जैसा महसूस करने लगी। लड़की को छूट मिली तो नीची जाति की इस लड़की को गांव के ब्राह्मण लड़के से लगाव हो गया। बाप को पता चला तो उसने एक हफ्ते में शादी करने का फैसला कर लिया। शादी के दिन लड़की झोंपड़ी की टूटी फूटी छत को और तोड़ भाग निकली उसी दिन गांव में हो रही स्केटिंग चैंपियन शिप में हिस्सा लेने के लिए। आखिर क्यों? ऐसा क्या था उस स्केट बोर्ड में और उस चैंपियन शिप में जो उसे मिल जाता।

कहानी बढ़िया है, अच्छी भी लगती है देखते हुए। क्लाइमेक्स आते-आते आप उसमें डूबने लगते हो। लड़की को चैंपियन बनते देखना चाहते हो। लेकिन कमी क्या है आखरी इतना सब होने के बाद भी? तो कमी ये है भाई कि अचानक उस लड़की को पता चला कि उसे तो उड़ना था, स्केट करना था, आजादी चाहिए थी। वो भी ऐसे गांव में जहां लड़कियों को खास करके नीची जाति के लोग जो ज्यादा पढ़ लिख नहीं पाते या जिन्हें ज्यादा पढ़ने नहीं दिया जाता। गांव में जिनके पानी भरने की जगह भी अलग-अलग है उस गांव में लड़की को आज़ादी? दूसरी बात ये कि गरीबी के कारण ये गरीब गुरबे लोग पेट पाले या शिक्षा हासिल करे या खेल खेले? ठीक है किसी की मदद से वह लड़की चैंपियन बन भी गई तो उस लड़की का भविष्य क्या तय पाया गया? इन सबके सवाल यह फ़िल्म नहीं देती।

क्या हमें सिर्फ सपने देखने का हक है और उन्हें पूरे करने की जी तोड़ मेहनत करने का। जी हां है। फिर? फिर ये की उन सपनों को पूरा होते भी तो दिखाया जाना चाहिए। कम से कम जिस तरह फ़िल्म के अंत मे आता है, लिखा हुआ कि ‘इस फ़िल्म के 45 दिनों के अंदर डेजर्ट डॉल्फिन स्केट पार्क का निर्माण हुआ। यह सामुदायिक स्केट पार्क के रूप में चलता है, जहां लड़कियों को सपनों के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। यह राजस्थान का पहला और भारत के सबसे बड़े स्केट पार्कों में से एक है। जहां सैकड़ों स्थानीय बच्चे रोजाना स्केट करते हैं।’ बस इसके बाद फ़िल्म खत्म। अरे भाई लेखकों, निर्देशकों से एक सवाल है मेरा क्या एक लाइन और जोड़ देते कि कितनी लड़कियों या लड़कों ने देश में, राज्य में नाम कमाया इस स्केट पार्क में स्केटिंग करके तो क्या आपकी कलम घिस जाती? या फ़िल्म बड़ी हो जाती? लेकिन नहीं। हम शोध नहीं करेंगे। बस लड़कियों को खेल में ही नहीं हर जगह, गांव में, शहर में पहला मौका देंगे। लेकिन आखिरकार पहला मौका मिलता कहाँ है और कितनी जगहों पर? मात्र आरक्षण में या कानून में लिख देने से कुछ बदलने वाला नहीं है जब तक समाज उन्हें पहला मौका न दे।

और उदयपुर से 45 किलोमीटर दूर गांव में जहां फोन में टावर नहीं आ रहा वहां इंटरनेट कैसे चल रहा है? इसके अलावा जब पुलिस तक बात जाती है तो विदेशी लड़की जिसकी जड़ें हिंदुस्तान में है माना। लेकिन शक्ल से भी और पैदाइश से भी विदेशी है तो उसके पास आधारकार्ड कहाँ से आया? और ये भारतीय जड़ों वाले विदेशी लोग हिंदुस्तान में विदेशी चीजें ला रहे हैं तो गांव वालों को आपत्ति हो रही है। वहीं उदयपुर की महारानी ने अपनी जमीन स्केट पार्क बनाने के लिए दे दी तो गांव बदलने लग गया। चलो किसी ने बदलाव तो किया। लेकिन महारानी जो कह रही थी अपनी कहानी सुनाने की बात वो तो उन्होंने सुनाई ही नहीं। यही कारण है कि यह फ़िल्म जिस स्केटर गर्ल की कहानी कहती है उसी के स्केटबोर्ड में उलझ कर , फिसल कर गिरती नजर आती है।

दलितों का, खेल का, ऊंची-नीची जाति का, लड़की पर बंदिशें लगाने का, सपनों को परवाज देने का, सवाल-जवाब का, बदलाव का, नियमों-कानूनों, प्रथाओं का सबका मसाला मिलाकर फ़िल्म की कहानी तो अच्छी बुन ली गई लेकिन काश की इसमें थोड़े मसाले और होते। कहानी लिखने के नजरिये से कहानी में थोड़ी कसावट होती। बेवजह उलझने के बजाए सीधी सपाट कहानी भी कह देते तो समझ आती। लेकिन कुछ और यह फ़िल्म देकर जाए या न जाए एक मनोरंजन जरूर देकर जाती है। ऐसा मनोरंजन जिसमें दिमाग न लगाएं बेवजह का तभी यह आपके दिल को छू पाएगी। हां हौसलों की, सपनों की, उड़ानों की, साहस की , जुनून की बातें खूब मिलेंगी इसमें। लंबे समय से कोई प्रेरणादायक फ़िल्म नहीं देखी है तो देखी जा सकती है। इतनी बुरी भी नहीं।

सलीम-सुलेमान का म्यूजिक, गीत-संगीत इस फ़िल्म की जान है। गानों के मामले में विशेष रूप से ‘मारी छलांगे’ और ‘शाइन ऑन मी’ कर्णप्रिय और गुनगुनाए जाने वाले हैं। अभिनय के मामले में स्केटर गर्ल बनी राचेल सञ्चिता गुप्ता तथा उसके भाई अंकुश बने शफीन पटेल, बढ़िया लगे। बाकी लड़की की मां और पिता ने भी अच्छा अभिनय किया। वहीदा रहमान स्पेशल अपीयरेंस के तौर पर अच्छा फैसला रहा निर्देशकों का। सिनेमेटोग्राफी, कॉस्ट्यूम के लिए अलग से तारीफ़ें की जानी चाहिए। रियाज़ अली मर्चेंट का डिजाइन किया गया कॉस्ट्यूम फ़िल्म में रंग भरता है।

अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार

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तेजस पूनियां

लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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