सृजनलोक

छः कविताएँ: प्रेम रंजन अनिमेष

 

नाम: प्रेम रंजन अनिमेष

जन्म: 1968 में आरा (भोजपुर), बिहार में 

कविता संग्रह: मिट्टी के फल,  कोई नया समाचार, संगत, अँधेरे में अंताक्षरी, बिना मुँडेर की छत, संक्रमण काल,माँ के साथ, स्त्री सूक्त आदि बहुचर्चित

ईबुक:  ‘अच्छे आदमी की कविताएँ’, ‘अमराई’ एवं ‘साइकिल पर संसार’ (क्रमशः ‘हिन्दी समय’, ‘हिन्दवी’ व ‘नॉटनल’ पर उपलब्ध)

कहानी संग्रह: ‘एक स्वप्निल प्रेमकथा’ (नॉटनल पर), ‘एक मधुर सपना’, ‘लड़की जिसे रोना नहीं आता था’, ”थमी हुई साँसों का सफ़र’, ‘पानी पानी’, ‘नटुआ नाच’, ‘उसने नहीं कहा था’, ‘रात की बात’, ‘अबोध कथाएँ’ आदि शीघ्र प्रकाश्य ।

उपन्यास: ‘माई रे…’, ‘स्त्रीगाथा’, ‘परदे की दुनिया’, ‘दि हिंदी टीचर’, आदि

बच्चों के लिए कविता संग्रह ‘माँ का जन्मदिन’, ‘आसमान का सपना’ आदि   

संस्मरण, नाटक, पटकथा,  आलोचनात्मक लेखन, संपादन, अनुवाद तथा

गायन एवं संगीत रचना भी। अलबम ‘माँओं की खोई लोरियाँ’,’धानी सा’, ‘एक सौग़ात’ ।

ब्लॉग : ‘अखराई’ (akhraai.blogspot.in) तथा ‘बचपना’ (bachpna.blogspot.in)

कविता हेतु भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार  तथा ‘एक मधुर सपना’ और ‘पानी पानी’ सरीखी कहानियाँ शीर्ष सम्मान से सम्मानित

सम्पर्क : premranjananimesh@gmail.com /9930453711

प्रेम रंजन अनिमेष 1990 के बाद की हिंदी कविता के एक प्रतिनिधि कवि हैं। उनका स्वर सबसे अलग और विशिष्ट है। वे जीवन के छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से समय के व्यापक बदलाव को पकड़ने की अनूठी कोशिश करते हैं। प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते को, उसके भीतर पैदा होने वाले तनाव को उन्होंने बिल्कुल ही अलग और मौलिक ढंग से देखा है। उनकी  कविताओं में भी प्रकृति के माध्यम से आज के गंभीर संकटों को पहचानने का प्रयत्न स्पष्ट दिखाई देता है। पत्तों की पोशाक, चिड़ियों की चहचहाहट और नदी के निरंतर प्रवाह की चर्चा करते हुए वे प्रकृति पर मनुष्य की निर्भरता को ही नहीं रेखांकित करते हैं, बल्कि भविष्य के संकट की ओर भी इशारा करते हैं। 

जब एक आदमी कई पीढ़ियों के पानी से नहा लेता है तो नहाना ज़रूरत नहीं रह जाता, बल्कि एक हवस बन जाता है. उस संकट की आहट सुनाई देने लगती है,  जहाँ पहुँचकर पानी को वस्तुओं की तरह पेटी में रखने या खोंइछे में बांधने जैसी विकट स्थिति पैदा हो जाए। छोटे प्रसंगों को भी कलात्मक विस्तार देने की अद्भुत क्षमता उनमें हैं। अनिमेष लंबी साँस के कवि हैं।  – मदन कश्यप

 

  1. पत्तों से 

पत्तों से बनायी हमने पोशाक  पहली

और जलायी पहली पहली आग

पत्तों पर रची लिखावट पहली

पत्तों से फूटा हवाओं का पहला संगीत

पत्तों से गाया चिड़ियों ने

जागरण का पहला गान

पत्ते बतलाते

उगता सूरज हँसा कितना

पत्तों से हम जानते

रोती किस तरह बीतती रात

पत्तों से हम बचे 

तेज बौछारों में 

पत्तों के सहारे झेला दाघ निदाघ

पत्तों पर काटते रहे शीत

दूर दिखायी देता पहाड़ों तक जीवन पत्तों से

पत्तों से तना धरती पर हरा शामियाना 

जोड़ा उनसे देह का दोना

उन्हीं से बाँटा अमृत नेह का

पत्तों ने ही सहेजी हमारी साँस

पतझड़ में झरे पत्तों से 

गूँजता देर तक किसी का जाना

और देता सुनाई दूर से

आना किसी का 

पत्तों से हम पूछते पता

बिछड़े हुए अपनों का

बहुत दिनों तक हमारे बीच 

अपने आसपास 

फूटते नहीं दिखते 

पत्ते नये

तो हो जाते हम बेचैन

अब किससे पूछें 

कहाँ रह गया वसंत….?

               

2. वह जो कहना चाह रही है

चहचह करती

आ जातीं

चिड़ियाँ

बार बार 

खिड़की पर 

अच्छा लगता 

इतनी बड़ी भरी दुनिया में 

सबकी खातिर सब है जिसमें 

चुना उन्होंने घर यह मेरा 

बाहर तो बहुत कुछ है 

नहीं फकत दानों के लिए 

बल्कि आती होंगी उन हाथों के लगाव से

जो देने के लिए बढ़ते

खिंची हुई उन आँखों के चाव से

जिनमें पानी औरों के लिए 

दाने चुगने के बाद भी

चहचह करती रहतीं वहीं

देर तक जैसे कुछ कहना चाह रहीं 

और जरूरी नहीं 

बोले मुँह खोले चिड़िया जब भी

वह हो कोई गीत ही

क्यों लगता ऐसा 

मानो इन दिनों 

चहचहाहट बढ़ गयी उनकी 

शायद अपनी भाषा अपनी बोली में 

बोलना बतियाना चाहतीं हमसे 

अपनी सीमाओं के कारण हम जिसे

समझ नहीं पा रहे

बाहर बढ़ गयी 

हरियाली धरती की

आसमान हो चला

और साफ और खुला

यह खबर भर देना ही नहीं 

संभवतः चाहती होंगी

पूछना कि हुआ क्या 

सब ठीक तो है यहाँ ?

क्यों बच्चे 

उछलते कूदते खेलते 

दिखाई नहीं देते  

बुजुर्ग सुबह शाम घूमते 

हँसती बोलती बतियाती 

औरतें 

कहीं जातीं कहीं से आतीं 

क्यों खाली खाली सी गलियाँ 

क्यों सूनी सूनी सी सड़कें 

कहाँ गये वे फेरी वाले

हाटों में छाया सन्नाटा 

जीवन की कैसी खामोशी 

या कोई साजिश सी चुप्पी…?

वीरानी के इन दिनों में 

इतना क्यों बोल रहीं हैं चिड़ियाँ

आखिर चाह रहीं क्या 

जाहिर करना ?

संभवतः जैसे उनके बिना

हमें सूना लगता आसमान 

पेड़ पौधे वन उपवन दुनिया जहान 

मन उनका भी नहीं लग रहा होगा

देख कर बाहर हर तरफ

लगभग इनसानों से खाली धरती 

प्रायः मनुष्य विहीन संसार असार

अधूरा और अपूरा जैसा

आदमी की आदिम गंध

गहमागहमी चहल पहल 

और कोलाहल के बिना

क्योंकि जैसे

पक्षियों में कुछ ही

गिद्ध चील बाज

इनसानों में भी

सारे नहीं शिकारी

और यह दुनिया 

सबकी आपसदारी 

कोई खुशबू कहीं कम पड़े 

कोई रंग कहीं हो फीका

पता बाग को तो चल जाता

फिर हो जाय उदास अनमना 

जर्रा जर्रा पत्ता पत्ता बूटा बूटा…

 

3. सदानीरा        

न जाने कब कौन

तय कर गया

कि नदी का जीवन 

केवल बहना है

चट्टानों को चीर कर वह निकले

तो घाटियों मैदानों तक बहती चले

आये जो कुछ भी रास्ते में 

जूझते हुए उस सबसे

थके नहीं रुके नहीं न तके पीछे 

इस सफर में जो भी उसके साथ घटे

दूर पास खड़ा पहाड़ों पेड़ों का काम

बस देखते रहना है

नदी को स्त्री को

तुमने बस अपना नाम दिया 

फिर उससे सब मनचाहा 

तनचाहा अनचाहा काम लिया 

उसने तो दी

पवित्रता अपनी

तुम बहाते रहे उसमें

वर्ज्य विकार सारे

और कोरे पन्नों पर लिख दिया 

उसका धर्म सिर्फ सहना है

रिश्तों को गलियों में 

तबदील कर दिया तुमने

नदियों को नालियों में 

और कभी सुन न सके 

उनकी आहें कराहें 

उनके गिले शिकवे नाले 

अब भी सँभलो सुन लो

कह रही जो नदी धीरे धीरे

मजबूर न करो उसे

सैलाब बनने के लिए 

आज तुमसे

और आने वाले कल से 

उसे बहुत कुछ कहना है 

नदी लख सकती है तक सकती है

सोच सकती है ठिठक सकती है

देख सकती है मुड़ कर

लौट सकती है अपने स्रोत तक

चाहे तो

और चाह सकती है

कोई भी नदी

कोई भी स्त्री 

किनारे कैद बनेंगे जब भी

उनको तो टूटना है ढहना है…          

 

4.जलक्रीड़ा जलक्लेश

नहाने में मजा आ रहा था

और वह आदमी

अपने बेटों के हिस्से का 

नहा लिया

फिर पोतों

परपोतों 

छरपोतों का भी

पानी

बहा गया

जैसे एक रोज वाला

राजकुमार किसी किस्से का

खूब मजा आ रहा था

और नहाये जा रहा था

वह आदमी

एक जन्म में

कितने जन्मों

अगली कितनी पीढ़ियों के

पानी से नहा गया

उसे पता नहीं था

वह आदमी नहीं था

कोई मामूली 

जल संसाधन का प्रभार

उसी के जिम्मे था…

 

5. पेटी में पानी        

सेंत सहेज 

रखा

पेटी में 

पानी

आने वाले 

कल की खातिर

कहती बूढ़ी माई

डर है उसको

वीरों से खाली

यह धरती 

हो जाय कहीं ना

पानी से भी सूनी

होने को ऐसा हुआ

नहीं होने देगी

फिर भी

पेटी में 

जुगा रखा जो पानी

खोलेगी ढालेगी

देगी पतोह 

परपोतबहू को

मुँहदिखाई में 

और खोंइचे में

बाँध 

खूँट से

आँचल के 

जिस तरह बाँधते

मिट्टी गाँव घर की

बिछड़ कर जाने से पहले…

क्या बात किया करती

किस तरह कहानी कहती

री माई !

धन मिट्टी में दबा

चला जाता जैसे

कुछ काम नहीं आता

पेटी में 

किस तरह

रहेगा 

आँचल में 

किस तरह 

टिकेगा 

पानी ?

रिस जायेगा

रीत जायेगा

बीत जायेगा !

बातें तू ही 

करता 

बचकानी

बेमानी

हँसती माई

भेद भरी 

वह हँसी निराली

भीनी भीनी

छीजेगा कैसे 

ऐसे वैसे 

पलकों की 

पेटी में अपनी

है रखा सहेजे

सपने जैसा

अरे बावरे

बाँध किसी

आँचल में दूँगी

बूँदों की अनमोल विरासत 

और सँसर

जाये कुछ भी

पर आँचल से

औरत की

कब जाता है पानी…?

 

6. प्रकृति और प्रगति     

प्रकृति से

जन्मे सारे

अपनी प्रगति में

साथ ले चलना था उसे

पर अंधाधुंध बदहवास 

गति में

कृति को ही भूल बैठे

जिस तरह 

माँ पिता को भूल जाते

बच्चे आज के

होकर बड़े 

जो दरअसल 

ऊँचा होने 

और फैलने के प्रयास में

संकुचित होना है

छोटा करना

अपना आप और जीवन 

और अहम में भरमे

कर्ता मान लेना अपने को

जबकि 

सब कुछ ही

वही 

जननी जीवनदायिनी

प्रकृति 

और उसी से

सारी संसृति...

.

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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