– – नाम तो सुना होगा ?
“ठंडा गोश्त” – – -(कहानी)
कुलवन्त कौर भरे-भरे हाथ-पैरों वाली औरत थी। चौड़े-चकले कूल्हे थुल-थुल करने वाले गोश्त से भरपूर। कुछ बहुत ही ज्यादा ऊपर को उठा हुआ सीना,तेज आँखें, ऊपरी होंठ पर सुरमई गुबार, ठोड़ी की बनावट से पता चलता था कि बड़े धड़ल्ले की औरत है—-
“बू” – – – – – (कहानी)
खिड़की के पास बाहर पीपल के पत्ते रात के दुधिया अंधेरे में झुमरों की तरह थरथरा रहे थे, और शाम के समय, जब दिन भर एक अंग्रेजी अखबार की सारी खबरें और इश्तहार पढ़ने के बाद कुछ सुस्ताने के लिये वह बालकनी में आ खड़ा हुआ था तो उसने उस घाटन लड़की को, जो साथवाले रस्सियों के कारखाने में काम करती थी और बारिश से बचने के लिये इमली के पेड़ के नीचे खड़ी थी, खांस-खांसकर अपनी तरफ आकर्षित कर लिया था और उसके बाद हाथ के इशारे से ऊपर बुला लिया था – – –
जी हां मैं बात कर रहा हूं उपर्युक्त पाराग्राफ के लेखक, 1940 के दशक के मशहूर कहानीकार सआदत हसन मंटो की, जिनकी जीवनी पर पिछले दिनों नंदिता दास ने एक फ़िल्म बनायी “मंटो, कल और आज”।
मंटो ने अपनी कहानियों में जो लिखा उसमें डूबने की या उसे ओढ़ने की उसे ज़रूरत नही थी क्योंकि वो उस दर्द को जी रहा था महसूस कर रहा था। मंटो अपनी ज़िंदगी की सारी ज़रूरतों और ज़िम्मेदारियों से भागकर, ख़ून थूक थूक कर, समाज के बारे में अपने तास्सुरात लिखता रहा।
औरतों और तवायफ़ों का दर्द इतनी गहराई से महसूस करने वाले मंटो के वहम व गुमान में भी नही होगा कि सालों साल बाद तरक़्क़ी की बुलंद व बाला ईमारतों में बसने वाले इंसानों के नापाक हिर्स व हवस, शरीफ़ घरानों की नन्ही नासमझ फूलों को भी अपनी ज़द में लेने लगेंगी, बावजूद इसके इस दौर में कोई “ईशर सिंह” जैसा किरदार तख़्लीक़ नही पा सकेगा।
अपने आज़ाद मुल्क में “खोल दो” से ज़्यादा दिल दहलाने वाले वाक़यात रूनुमा होते रहेंगे बावजूद इसके मुल्क की तक़सीम के दर्द में मर जाने वाले उस वक़्त के किरदार “टोबा तेग सिंह” भी आज के इन होशमंद इंसानों से ज़्यादा हस्सास और बाशऊर साबित होगा, जो इंसानी गोश्त और पोस्त की धज्जियां उड़ाकर भी सरेआम घूमते रहते हैं।
इस पसेमंज़र में ये बात कितनी मज़्हका ख़ेज़ है कि आज भी जब मंटो जैसे लिज़ेंड पर फ़िल्म बनती है तो उसपर पाबंदी लगाइ जाती है और लोगों को एह्तजाज करना पड़ता है जैसे उस वक़्त 1940 में मंटो को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता था। उस वक़्त मंटो की अदबी क़द्र व क़ीमत पर शक व शुब्हात रखने वाले तो बहुत लोग थे लेकिन आज तो ऐसा नहीं है। फिर वो कौन और कैसे लोग हैं जो मंटो के उठाए हुए सवालात से आज भी डरते हैं।
अदब या साहित्य या फ़िल्म अपने वक़्त का आईना होता है और उसमें उस दौर की तस्वीर देखी जा सकती है। अदब या साहित्य एक ख़ास हल्क़े तक महदूद रहता है जबकि फ़िल्म का मीडियम हर ख़ास व आम तक पहुंचने का ज़रिया बनता है। मंटो की ज़िन्दगी को पर्दे पर ऊतारना कोई आसान काम नहीं था लेकिन नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी और नंदिता दास ने ये किया और बड़ी ख़ूबसूरती से किया।”मंटो कल और आज” किसी पूरानी कहानी की रीमेक नहीं है बल्कि एक जीते जागते मंटो (नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी) से हमारी मुलाक़ात कराती नंदिता दास की कामयाब कोशिश है। नंदिता का मक़सद मंटो की नफ़्सियात, उसका अहद, उसकी मुश्किलात और उसका दर्द, जिसने मंटो को मंटो बनाया पेश करने की थी और वो इसमें कामयाब रही हैं।