नाटक

रंगमंच का चेहरा

 

इससे क़तई सहमत नहीं हुआ जा सकता है कि रंगमंच का कोई चेहरा नहीं होता है? जैसे हर आदमी का अपना एक चेहरा होता है, उसके आँख-नाक और मुँह की अलग बनावट होती है … वैसे ही अलग-अलग प्रकार का रंगमंच भी होता है। कोई रंगमंच सभ्य-सुसंस्कृत दिखता है तो कोई सहज-सरल, बिना साज-सज्जा का। किसी की भाषा परिष्कृत होती है तो किसी की बोली भदेस। कोई व्याकरण सम्मत होता है तो कोई व्याकरण की फ़ेंस तोड़ता हुआ। ज़रूरी नहीं कि अभिजात्य रंगमंच का चेहरा वैसा ही हो जैसा लोक में होने वाले नाटकों का है। 

रंगमंच के चेहरों में जो फ़र्क़ देखते हैं, वो हाल-फ़िलहाल का नहीं है। सदियों से रंगमंच के विभिन्न चेहरों का अस्तित्व रहा हैं। केवल चेहरों का ही नहीं, उनके अंतर्द्वंद्वों का भी इतिहास रहा है। जिस रंगमंच में इसकी उत्पत्ति के साथ नाटक का जो चेहरा आम जन में लोकप्रिय था, उसे जब संकीर्ण कर विशिष्ट लोगों  के लिए एक प्रेक्षागृह में अंदर सीमित कर दिया तो उसका चेहरा वो नहीं रहा जो पहले था। खुले में जो नाटक होता था, उसमें अभिनेता  और दर्शकों के बीच कोई दूरी नहीं थी। दोनों के बीच कोई विभाजन रेखा खींची नहीं  हुई थी। दर्शक गण उसी धरातल पर थे जिस धरातल पर नाटक करने वाले होते थे। उनके बीच कोई दीवार नहीं थी। जो करते थे, दर्शकों के सम्मुख करते थे। आपस में कोई दुराव-छिपाव नहीं था। न उनके प्रदर्शन में कोई तिलिस्म होता था, न किसी प्रकार का रहस्य। अलबत्ता, जब रंगमंच खुले से बंद प्रेक्षागृह में आ गया तो वो रंगमंच वह नहीं रहा जो पहले था। उसकी प्रकृति बदल गई, व्यवहार बदल गया। कह सकते हैं कि उसका क्लास  परिवर्तित हो गया। ज़ाहिर है, जब इतना कुछ बदल गया तो उसका चेहरा भी पहले जैसा तो नहीं रहेगा। क्लास बदलते उसका चेहरा भी बदल जाता है। रंगमंच के पन्ने पलटने की ज़हमत करेंगे तो कई तरह के अलग-अलग  चेहरे देखने  को मिल जायेंगे। क्लास की बात छोड़िये, कास्ट के अनुसार भी आपको रंगमंच के विभिन्न चेहरे देखने को मिल जायेंगे। एक ही समय में, एक साथ के विभिन्न रंगमंच पर गौर फ़रमायेंगे तो चेहरों में साफ़ फ़र्क़ देखने को मिल जाएगा। संस्कृत नाटक का चेहरा  समकालीन लोक परंपराओं से जुड़े नाटकों से बिलकुल भिन्न मिलेगा। आप उनकी भाषा, बोली, कथ्य, प्रस्तुतीकरण के अन्दाज़ में फ़र्क़ महसूस करेंगे। और उनकी उद्देश्यता में भी।

चेहरा केवल चेहरा नहीं होता है। चेहरे के पीछे एक दिमाग़ भी होता है, जो अभिन्न भाग होता है। चेहरे से दिमाग़ को विलग नहीं किया जा सकता है। दिमाग़ के अंदर जो चल रहा होता है, उसी का रिफ्लेक्शन चेहरे पर आता है। दोनों एक- दूसरे से जुड़े हुए हैं। ऐसा नहीं हो सकता है की दिमाग़ में किसी के प्रति द्वेष चल रहा हो और चेहरा मुस्करा रहा हो। या फिर चेहरा तो ग़ुस्से से फट रहा है और दिमाग़ शांत, तटस्थ भाव में ध्यानस्थ हो।

ज़रूरी नहीं कि जो चेहरा संस्कृत नाटक का है, वही चेहरा नाचा या बिदेसिया का हो। अगर संस्कृत नाटक को गौर से देखें  तो वह लोक रंगमंच की तुलना में साफ़ अलग दिखता है। उसमें आपको एक शास्त्रीय बोध नज़र आता है। लोक नाटकों की तरह संस्कृत नाटक किसी भी जगह, कभी भी मंचन नहीं किया जा सकता है। संस्कृत नाटक के मंचन के लिए बाक़ायदा स्थान का चयन किया जाता है, उसका निर्धारित समय होता है। कैसी इसकी मंच सज्जा-मुख सज्जा और आहार्य होगा, शास्त्रीयता के अनुसार तय किया जाता है। अमूमन इसके मंचन पूर्व में मंदिर के प्रागणों या राजा के महलों में बने रंगशालाओं में सुसंस्कृत-अभिजात्य लोगों के बीच में हुआ करता था। ज़ाहिर है जब उनके मनोरंजन के लिये उनके दिये गये धन-दौलत-सुविधाओं से कोई नाटक होगा तो उनकी मनपसंद का ख़्याल तो रखना ही होगा। उनकी सुरुचि का सम्मान तो करना ही होगा। ऐसे में जो नाटक उनके सम्मुख होगा, उनके वर्ग और वर्ण का हित तो रखेगा ही। उनके विरोध में कभी नहीं जाएगा। उनके भोग-विलास, जातिगत श्रेष्ठता, धार्मिक पाखंड, सामंती दंभ को तो प्रमुखता से कभी नाटकों में लाने की चेष्टा नहीं करेगा। जब भी लाएगा तो उनके उदात्त चरित्र, सत्ता की महत्वाकांक्षा, प्रेम-लालित्य को ही सामने लाएगा। जब सत्ता के इर्द-गिर्द तक नाटक सीमित रखेगा, महलों के बाहर के लोक जीवन से अपने को अलग रखेगा तो ज़ाहिर है ऐसे रंगमंच का चेहरा अलग होगा। लोक जीवन में बसने वाले नाटकों से इसकी समरूपता नहीं होगी। यहाँ तक कि इनकी भाषा-बोली में भी वर्ग-वर्ण के मुताबिक़ फ़र्क़ दिखेगा। संस्कृत नाटकों  में निम्न वर्ण और महिला पात्रों के संवाद संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत-पाली भाषा में होते थे। चाहे वो स्त्रियाँ  उच्च वर्ण की ही क्यों न हो। उच्च वर्ण की स्त्रियाँ भी संस्कृत नाट्य परिभाषा में उच्च वर्ण के समतुल्य नहीं समझी जाती थी। जबकि लोक नाटकों में ऐसा कोई भेद दिखाई नहीं देता है। वहाँ सब बराबर है। लिंग, जेंडर और रंग का कोई भेद-भाव नहीं है।

ऐसे में दो प्रवृतियों वाले नाटकों का चेहरा एक होना स्वाभाविक नहीं दिखता है। आज की तारीख़ में इनके वजूद में आये हुए सालों क्या, सदियों हो गये  लेकिन जो भेद था, आज भी यथावत है।

आज भी रंगमंच का चेहरा एक जैसा नहीं है। जितने रंगमंच हैं, उतने प्रकार के उनके चेहरे भी हैं। वैसे भी रंगमंच का चेहरा कभी स्थिर नहीं होता है। समय, स्थान, काल के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार रंगमंच का चेहरा बदलता रहता है। ज़रूरी नहीं कि हर समय एक ही तरह का चेहरा बरकरार रहे। आज़ादी के पहले का चेहरा कुछ और था, आज़ादी के बाद कुछ और। जन संघर्षों में इसका रूप कुछ और हो जाता है।

और इन दिनों का जो दौर है, देश की राजनीति और यहाँ के लोगों की जो सामाजिक स्थिति हैं, उसमें रंगमंच का जो चेहरा है वो पहले कभी नहीं था। आज रंगमंच का जैसा चेहरा है, वैसा पहले कभी नहीं था। इतना बदल गया है कि पहचाना मुश्किल है। ऐसा नहीं है कि  केवल रंगमंच का चेहरा बदल गया है। पिछले कुछ वर्षों से देश की राजनीतिक, सामाजिक परिदृश्य में काफ़ी बदलाव आ गया है। साथ ही समाज में रहने वाले लोगों का जीवन, उनके रहन-सहन में भी काफ़ी परिवर्तन आ गया है। एक अदृश्य शक्ति जैसे चारों तरफ़ घूमती हुई दिखती है। ऐसा लगता है जैसे कोई लगातार घूर रहा है। नज़र रख रहा है। हर आदमी जैसे किसी कैमरे की नज़र में है। हमारी हर गतिविधियों का कोई सूक्ष्म निरीक्षण कर रहा है। हर आदमी एक दूसरे को देख रहा है। सफ़ेद-काले  चश्मे के पीछे से झांक रहा है। हो सकता है, संदिग्ध नज़रों से देख रहा हो। कोई ऐसा फ़रमान जारी नहीं किया गया है, लेकिन सबको ऐसा विश्वास हो गया है कि सच बोलना मना है। ऐसा कोई आदेश जारी कर दिया गया है जिसके तहत जो देख रहे हैं, उसे देखना बंद कर दे। मुँह से कोई आवाज़ नहीं निकलनी चाहिए। और ज़ोर  से बोलने से बाज आयें। पहले के निज़ामों ने भी पाबंदियाँ लगायी थी, लेकिन इन दिनों की जो बंदिशें हैं वो विचित्र हैं। घोषित नहीं हैं, पर व्यवहार में लागू है। अदृश्य नागपाशों ने ऐसे जकड़ रखा है कि जो सच है उस पर न कोई खुल कर लिख पा रहा है, न किसी प्लेटफार्म पर खड़े होकर विरोध में कुछ बोल पा रहा है, न कोई गा-बजा-खेला कर पा रहा है। जैसे एक बिगड़ैल सांड शहर की सड़कों पर निकल पड़ा है। जिसे मन कर रहा  है, सींग मार दे रहा है … धक्का दे रहा है … फुटपाथ की दुकानों को पलट दे रहा है … रोकने के लिए जो भी सामने आ रहा है उसे उठा कर पटक दे  रहा है … सब कुछ तहस-नहस कर दे रहा है …

ऐसा ही कुछ आजकल हमारे अग़ल-बग़ल घट रहा है। जुल्म के ख़िलाफ़ कोई कुछ भी बोलने की जुर्रत कर रहा है तो उसे पहले तो धमकाया जा रहा है, डराया  जा रहा है, उसके बाद भी प्रतिरोध  करना नहीं छोड़ता है तो बर्बरतापूर्ण दमनात्मक भट्टी में झोंक दिया जा रहा है। हर तरह से उसे कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है। उसका यह असर यह देखने को मिल रहा है कि लोगों ने ख़ुद-ब-ख़ुद अपने अंदर ऑटो सेन्सरशिप की प्रणाली उत्पन्न कर ली है। सत्ता के कुछ भी कहने-करने के पूर्व ही इस निर्णय की स्थिति में आ जाता है कि जो कुछ भी  करे वो सत्ता को नागवार न लगे। किसी कदम पर सत्ता की नजर टेढ़ी न हो जाए। जिस तरह का भय और आतंक का माहौल उत्पन्न कर दिया गया है कि सच कहने वाले कम नज़र आते हैं। सत्ता ने अपने इर्द-गिर्द अंधभक्तों की एक बड़ी फ़ौज इकट्ठा कर ली है जिनके पास न अपना कोई विवेक है, न चेतना। उन्हें बस हुक्म का इंतज़ार रहता है। आवाज़ सुनते हैं और भीड़ बन कर जिधर इशारा किया जाता है, ट्रॉल-मॉब लिंचिंग के लिए दौड़ पड़ते हैं।

रंगमंच का चेहरा इनसे कुछ अलग नहीं है। जो चेहरा राजनीति का है, वही संस्कृति का। और वही रंगमंच का। चाहे कोई सत्ता हो, उसे  संस्कृति का प्रतिरोध भाव जरा भी सुहाता नहीं है। वो जानती है, कोई सांस्कृतिक आंदोलन कोई क्रांति नहीं कर सकती लेकिन उसे ये अच्छी तरह से पता है कि ये सांस्कृतिक आंदोलन एक दिन राजनीतिक आंदोलन के लिए ऐसी ज़मीन तैयार कर सकती है जो तख्ता पलट सकती है। पहले की सरकारों ने शायद इसे गंभीरता से न लिया हो, वर्तमान की जो सरकार है उसे शिक्षा और संस्कृति की ताक़त का ख़ूब अंदाज़ा है। यह संस्कृति को हल्के में नहीं लेती है। इसलिए आजकल इस प्रयास में है कि संस्कृति पर सत्ता की नकेल रहे। तमाम कला विधाओं को ऐसे केन्द्रीकृत कर लिया है कि जो वह चाहती है, वही लोगों के बीच ले जाया जाता है। वैज्ञानिकता के अपेक्षा पौराणिकता पर जोर दिया जाता है। तर्क को दरकिनार कर मिथ्या-अंधविश्वास-भ्रम पर बल देना उनकी प्राथमिकता में होता है। इससे इतर जो कुछ लिखता है, उसे संस्कृति विरोधी , देशद्रोही करार कर  किया जाता है। सच का गला घोटने का हर प्रयास किया जाता है। ज़रूरत पड़ने पर उन्हें गढ़े हुए सबूतों पर जेल में डालने से भी परहेज़ नहीं किया जाता है। पुरस्कार की गंदी राजनीति की बिसात बिछाने से भी बाज नहीं आते हैं।

रंगमंच का चेहरा जुल्मतों से लड़ने वालों के बजाए रीढ़ विहीन रंगकर्मियों का बनाना चाहते हैं। ऐसे चेहरों को सामने भी इसलिए लाते  हैं कि ये चेहरा समसामयिक रंगमंच का चेहरा बन सके। बड़े-बड़े  पोस्टर और होर्डिंग बना  कर सड़कों-बड़ी-बड़ी इमारतों पर टांग  देते हैं ताकि आते-जाते लोगों के लिए इतिहासपुरुष के रूप में प्रचारित कर  सके।

लेकिन सत्ता की संस्कृति के बरक्स देश भर में ऐसे संस्कृतिकर्मियों की कमी नहीं है जो इस विकट अंधेरे समय में नये तराने छेड़ रहे हैं। जो छात्रों-नौजवानों, किसानों, मज़दूरों, महिलाओं, दलितों-आदिवासियों के साहसिक प्रतिवाद  और आंदोलन के साथ जुड़ कर संस्कृति के नये-नये औज़ार तैयार कर रहे हैं। आजतक सत्ता वर्ग ने इनके लिए रंगमंच की जो ज़मीन तैयार नहीं की, अब उसे पूरा करने में लगे हुए हैं। इनकी संख्या कम  नहीं है। सत्ता से जुड़े संस्कृतिकर्मियों से किसी भी हालत में कम नहीं  हैं। ये माना जा सकता है कि ये बिखरे हुए हैं, अलग-अलग बंट कर कार्य कर रहे हैं। लेकिन ये हमारी बहुत बड़ी उम्मीद हैं, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है।

आज के समय में हमें रंगमंच के एक ऐसे चेहरे की ज़रूरत है जिसे देख कर रंगकर्मी एक ऊर्जा प्राप्त कर सके। जिन लोगों को धर्म-जाति-प्रांत के आधार पर बाँट कर अलग-अलग किया जा रहा है, उन्हें सांस्कृतिक रूप से जागरूक कर सके और प्रतिरोध के लिए उन्हें  एकजुट कर सके।

इस लड़ाई में संस्कृतिकर्मियों की महत्वपूर्ण भूमिका है। रंगमंच का चेहरा कैसा हो, जितनी जल्दी हो तय करने की ज़रूरत है। यह चेहरा संस्कृति के पुनर्निर्माण  के लिए हो, हमारा संकल्प होना चाहिए। अपने रंगमंच को ‘जल्लादों का उल्लास मंच’ नहीं बनने देंगे, ये तो तय है। बकौल मुक्तिबोध ‘ यही समय है, जूझना ही तय है।’

फ़िलहाल जिस तरह का समय है, रंगमंच का चेहरा सपाट नहीं हो सकता है। न उसकी भूमिका तटस्थ हो सकती है। किसी न किसी ओर तो उसे रहना ही होगा। चाहे इस पार, चाहे उस पार। चेहरे पर कोई न कोई भाव तो रहेगा ही। बेहतर है, निर्णायक होना चाहिए।

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राजेश कुमार

लेखक भारतीय रंगमंच को संघर्ष के मोर्चे पर लाने वाले अभिनेता, निर्देशक और नाटककार हैं। सम्पर्क +919453737307, rajeshkr1101@gmail.com
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