
रामशरण शर्मा : साम्प्रदायिक शक्तियों के निशाने पर रहने वाला इतिहासकार
प्रख्यात इतिहासकार रामशरण शर्मा की जन्मशताब्दी वर्ष के अवसर पर
हिन्दुस्तान की आजादी के पश्चात इतिहास लेखन में बड़ा क्रान्तिकारी बदलाव आया। इस बदलाव के मुख्य सूत्रधार थे रामशरण शर्मा। भारत के इतिहास लेखन में वे परिवर्तनकारी मोड़ लाने वाले इतिहासकार माने जाते हैं। प्राचीन भारत के इतिहास लेखन को उनहोंने औपनिवेशिक विरासत से मुक्त किया। इतिहास के लेखन का विषय राजा-रानी गाथाओं से हटकर आमलोगों को बनाया। इतिहास को मिथकों और गाथाओं से बाहर निकाला। उसे गूढ़ता और रहस्य से मुक्त किया। इतिहास के बारे में वे महाभारत के शांतिपर्व की इस बात को वे अक्सर दुहराया करते कि ”देश और काल बदलने से अधर्म धर्म हो जाता है ओर धर्म अधर्म। रामशरण शर्मा की प्राचीन भारत पर लगभग सौ से अधिक किताबें हैं और उनका देश-विदेश की 15 भाषाओँ में अनुवाद हुआ।
रामशरण शर्मा का जन्म 1919 में बेगूसराय जिले के बरौनी फलैग गाँव में हुआ था। निर्धन परिवार में पैदा हुए रामशरण शर्मा ने स्कूली पढ़ाई बरौनी और बेगूसराय में हासिल की। उन्होंने 1937 में पटना कालेज में दाखिला लिया। इतिहास में एम.ए की पढ़ाई उन्होंने 1943 पूरी की। कुछ दिन आरा व भागलपुर में पढ़ाने का काम किया। फिर पटना कालेज में इतिहास के लेक्चरर बने।
1958-72 के दरम्यान में वे पटना विश्वविद्यालय विभाग के प्रमुख रहे। उसके बाद वे दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रमुख बने। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद, नयी दिल्ली के भी पहले अध्यक्ष बने। पटना और दिल्ली विश्वविद्यालयों में सिलेबस को आधुनिक बनाया। तीनों संस्थानों को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलवाई।
कम लोग जानते हैं बिहार सरकार ने 1948 में बिहार-बंगाल सीमा विवाद से सम्बन्धित रिपोर्ट तैयार करने की जिम्मेवारी रामशरण शर्मा को दी। ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित उनके रिपोर्ट के आधार पर ही बिहार-बंगाल सीमा विवाद का समाधान हुआ था।
रामशरण शर्मा ने अपना शोधकार्य भारतीय सामाजिक संरचना पर लेखन से शुरू किया। वे पहले पेशेवर इतिहासकार थे जिन्होंने प्राचीन भारत में शूद्रों के बारे में व्यापक अध्ध्यन किया। 1958 में प्रकाशित “शूद्रों का प्राचीन इतिहास प्राचीन भारतीय साहित्यिक ग्रंथों के गहन विश्लेषण पर आधारित था। इस अध्ययन ने नए रास्ते खोले। इस किताब में पेश की गयी मुख्य थीसिस यह है कि जाति व्यवस्था कभी भी जड़ नहीं थी।”
लेकिन इतिहासकारों के बीच रामशरण शर्मा जी के तमाम लेखन में सबसे ज्यादा गर्मागर्म बहसें उठी हैं 1965 में प्रकाशित ‘भारतीय सामंतवाद से। यह पुस्तक प्रारम्भिक भारतीय इतिहास लेखन में मील का पत्थर मानी जाती है। अपने प्रकाशन के 50 साल बाद भी इस पुस्तक के महत्व के बारे में बताते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार डी.एन.झा कहते हैं ”इतिहास और समाजविज्ञानों पर उत्तर आधुनिकतावादी हमलों के बाद अकादमिक जगत में नये-नये सिद्धांतों का घुसपैठ हुआ है। लेकिन आज भी सामंतवाद पर शर्मा जी के विचार इन सिद्धांतों से कहीं ज्यादा उपयोगी बने हुए हैं।”
इतिहास लेखन में मार्क्सवाद उनके लिए एक पद्धति की तरह था जिसका इस्तेमाल वे इतिहास की भीतरी परतों व तहों तक जाने के लिए किया करते। मार्क्सवादी दृष्टि के महत्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं ” मार्क्सवादी दृष्टि को रिप्लेस करना सम्भव नहीं है। मार्क्सवाद की जगह ले सकने वाली कोई दूसरी विचारधारा मेरी जानकारी में सामने नहीं आई है। हाँ मार्क्स के देखने में जो कमी थी उसे आप पूरा करें। और ये काम उन्होंने खुद किया। मार्क्स के ‘एशियाटिक उत्पादन पद्धति की आलोचना की’ मार्क्स ने ऐशियाटिक उत्पादन सोसायटी का जो विचार दिया वह सही नहीं हुआ उनके निष्कर्ष गलत निकले क्योंकि उनके विचार श्रोत सही नहीं थे, पर्याप्त नहीं थे। इसलिए मूल श्रोत-सामग्री और तरीके का महत्व है।”
इतिहासकार रोमिला थापर कहती हैं ”पिछली आधी सदी के दौरान प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में दो नयी बातें हुईं। शर्मा जी के लेखन में ये दोनों बातें मौजूद थीं। पहला था श्रोतों के दायरे का विस्तार। पहले श्रोतों के रूप में लिखित पाठों का इस्तेमाल होता था। अब उसे पुरातातिवक साक्ष्यों से जोड़ा जाने लगा। शिलालेख से हासिल साक्ष्यों का भी समावेश किया गया। दूसरा सबसे बड़ा योगदान था साक्ष्यों की छानबीन के लिए एक विष्लेषणात्मक पद्धति का इस्तेमाल।”
युवावस्था में रामशरण शर्मा महापंडित राहुल सांस्कृत्यान, स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे कई प्रमुख राजनीतिक हसितयों के सम्पर्क में आए। स्वामी सहजानंद सरस्वती और उनके सहयोगी रहे कार्यानंद शर्मा से से काफी प्रभावित थे। इन दोनों की शख्सीयत का गुण रामशरण शर्मा में भी था। उनके ही जैसे वे सादा एवं आडंबरहीन जीवन जीते। स्वामी सहजानंद सरस्वती के क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन के युगांतकारी महत्व के सम्बन्ध में उन्होंने पटना की एक सभा में कहा था ” यदि स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन न चला होता तो 1990 के बाद सामाजिक न्याय की शक्तियों का जो अभ्युदय हुआ वो भी सम्भव न होता।”
1975 में जब वे भारतीय इतिहास परिषद के अध्यक्ष थे तो अलीगढ़ में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस (आई.एच.सी.एच) द्वारा आपातकाल कि खिलाफ प्रस्ताव पारित करने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी थी। तब आई.एच.सी देश में सबसे पहला अकादमिक संस्थान था जिसने आपातकाल का विरोध किया था। लेकिन आपातकाल के बाद 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार ने ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षाओं के पाठयक्रम में शामिल ‘प्राचीन भारत पर उनकी लिखी किताब पर पाबंदी लगा दी थी। इस पुस्तक के विरूद्ध नारे लगाए गये ” आर.एस.शर्मा हटाओ, हिन्दू धर्म बचाओ।“ इन नारों के उत्तर में उन्होंने पुसितक लिखी ‘प्राचीन भारत के पक्ष’ में।
उसी जमाने में शर्मा जी ‘यूनेस्को द्वारा आयोजित ‘सभ्यताओं का इतिहास विषय पर आयोजित गोष्ठी में भारतीय शिष्टमण्डल का नेतृत्व करते हुए पेरिस जाने के लिए रवाना होने वाले थे। ऐन मौके पर विमान पर चढ़ने से पहले भारत सरकार ने उन्हें पेरिस जाने पर रोक लगा दी।
जब रामजन्म भूमि आन्दोलन के लिए चले सांप्रदायिक अभियान ने जोर पकड़ा तक शर्मा जी साल दर साल भारतीय इतिहास काँग्रेस में यह प्रस्ताव पास कराते रहे कि बाबरी मसिजद की हिफाजत की जाए। अयोध्या विवाद के ऐतिहासिक मसलों पर उन्होंने अपने सहकर्मियों के साथ मिलकर एक विस्तृत दस्तावेज भी तैयार किया। जो ‘राष्ट्र के नाम इतिहासकारों की रपट (1991) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जब बाबरी मस्जिद के कायराना विध्वंस को अंजाम दिया गया तो शर्मा जी ‘वर्ल्ड आर्कियोलाजी काँग्रेस (1994) में सख्त लफजों में निंदा प्रस्ताव पारित कराया। बाबरी मस्जिद के विध्ंवस से उन्हें बेहद तकलीफ हुई थी। अपने उस समय उनकी मन:सिथति के बारे उनके पुत्र ज्ञानप्रकाश शर्मा ने बताया ” मेरे पिता को सबसे ज्यादा दु:ख बाबरी मस्जिद के गिरने का था। उनके द्वारा इस मौके पर कहे गये शब्द मुझे आज भी याद हैं। उन्होंने कहा था ‘इस देश में मुसलमानों की सुरक्षा यदि सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा?।”
आज फिर से इतिहास को बदलने की कवायद शुरू हो गयी है। प्राचीन भारत सम्बन्धी अपना पुराना एजेंडा निकालकर ये फिरकापरस्त ताकतें निरन्तर दुष्प्रचार कर रही हैं कि आर्य बाहर से नहीं बलिक यहीं से बाहर गये थे। दक्षिणपंथी इतिहास व नजरिए की व्याख्या के लिए ‘प्राचीन भारत में आर्यों के उदगम निर्णायक प्रश्न बना हुआ है। रामशरण शर्मा ने इस विषय पर दो प्रमुख पुस्तकें लिखीं ‘लुकिंग फार आर्यंस (1994) और ‘एडवेंट आफ द आर्यंस इन इंडिया (1999)।
आर्यों की उत्पत्ति के विषय में रामशरण शर्मा ने जो वृहत साक्ष्य व ठोस सबूत पेश किए वो उनकी गैरमौजूदगी में भी दक्षिणपंथी शक्तियों से लोहा ले रही है।