भारत में दण्ड विधि का पदार्पण
भारत वर्ष में अपराध को स्थान ही नही था इसलिए भारत में कभी आपराधिक विधि की आवश्यकता नही थी, इसिलिए सन् 1860 से पहले भारत में दण्ड विधि नही थी यदि थी भी तो वह बहुत माइनर थी. ऐसी कल्पना करना बड़ा मुश्किल है कि समाज बने और झगड़े ना हो, मुकदमे ना हो | भारत में सल्तनत आने से पहले युद्धों का तो इतिहास मिलता है कि राजाओं ने युद्ध किये लेकिन बहुत बड़ा पीनल लॉज (दण्ड विधि) नहीं मिलता है और बहुत बड़ी कोई कोर्ट भी नही मिलती है. राजा की अपनी कोर्ट होती थी. अपनी काउंसिल होती थी. राजा भरे दरबार में पूरे राज्य के मुकदमे सुन लेता था और उसे वही डिस्पोज (निस्तारित) कर देता था. इसके अलावा प्रान्त में प्रान्तों के गवर्नर हुआ करते थे. गवर्नर के यहां जो मुकदमे आते थे उसे वह डिस्पोज (निस्तारित) कर देता था. भारत वर्ष के इतिहास अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है की मुकदमे कम होने का कारण भारत में मूल्य आधारित संस्कृति का विकास था. यदि इसकी स्थापना के सन्दर्भ में अध्ययन करें तो वृहत्तर भारत जिसका प्रसार क्षेत्र अफगानिस्तान, इण्डोनेशिया, मलेशिया तक आता था आज भी इण्डोनेशिया की करेंसी में भगवान गणेश की फोटो छपी है जिसे भारत राष्ट्र कहते थे. जिसमें इतनी भाषायें इतने सम्प्रदाय इतनी जातियां और अलग-अलग प्रकार के संस्करण पाये जाते थे. फिर भी भारत एक सूत्र में बंधा था. एक राजा होता था. इतने बड़े देश में अपराध व मुकदमे न के बराबर थे यदि मुकदमे थे भी तो वे युद्ध के मुकदमे होते थे. युद्ध के मुकदमों के अन्तर्गत-महिलाओं पर हमला नहीं करना, निहत्थों पर हमला नहीं करना, सोते हुए पर हमला नहीं करना, चेतावनी देकर हमला न करना, पीछे से हमला करना, आम जनता पर हमला करना, रात में हमला करना आदि अपराध आते थे. लेकिन समाज में अपराध नहीं था. एक हजार ईशा पूर्व एक साम्राज्य हुआ करता था. एक राजा थे. भगवान राम राजा बने लंका तक शासन किये लेकिन मुकदमे नहीं, चन्द्रगुप्त मौर्य राजा बने.
एकछत्र राज्य किये. लेकिन मुकदमे नहीं के बराबर. मुकदमे नहीं होने का प्रमुख कारण हमारे राष्ट्र का जो निर्माण हुआ था वो मूल्य आधारित निर्माण था वो सम्प्रदाय आधारित निर्माण नहीं था वो आध्यात्मिक निर्माण था. यह अनुभव भी किया जा सकता है- क्या जिसके दिमाग में अध्यात्म आ जाये वह अपराध कर सकता है? क्या जिसको भगवान का खौफ हो जाये वह अपराध कर सकता है, क्या जिसके मस्तिष्क में किसी नारी की तरफ गलत दृष्टि से देखना भी पाप हो वह अपराध कर सकता है? क्या जिसके संस्कारों में सिर्फ सम्मान हो अतिथि देवो भवः हो वह अपराध कर सकता है, क्या जिसके संस्कारों में सर्वे भवन्तु सुखिना हो वह अपराध कर सकता है? क्या जो प्रार्थना करता है विश्व का कल्याण हो वह अपराध कर सकता है – नही कर सकता है, क्योंकि मूल्य आधारित संस्कार हमारे थे. हमारा जो राष्ट्र बना था मूल्यों के आधार पर बना वह सत्ता, सम्प्रदाय, भाषा, जाति, रंग-भेद के आधार नहीं बना. जब मानवता मन में हो नैतिक मूल्य भारी हो विश्व का कल्याण जिह्वा पर हो संस्कार सम्प्रदाय से उपर हो तो अपराध को कहां जगह मिल पायेगी, वर्तमान समय में यह देखने को मिलता है और कहा जाता है जहां संस्कार है वहां अपराध नहीं है. हमारी संस्कृति, संस्कार आधारित संस्कृति से बनी है संस्कृति को ऋषि मुनियों ने घर-घर पहुंचाया और अध्यात्म को धारण करवाया. इसीलिए अपराध नहीं थे. अपराध की जगह पाप होता था. पाप की रिमेडी(उपचार) समाज के पास थी. समाज पाप करने वाले का बहिष्कार कर देता था. यदि पाप करने वाला यह स्वीकार कर लेता था कि मैंने पाप किया है तो उसके पास खुद की रिमेडी (उपचार) थी पश्चाताप, इसका बड़ा उदाहरण राजाओं ने रजवाड़े छोड़ दिया. जंगल गये. महाभारत के पाण्डव भी उसका उदाहरण हैं. इसका दूसरा उदाहरण है भरत. उनकी मां ने कुछ किया और पश्चाताप की अग्नि में भरत जले. उनको लगा हमारी मां ने यह सब मेरे लिए किया इसलिए मैं पश्चाताप की अग्नि में जलूंगा मैंने पाप किया है और अयोध्या का राजा गढ्ढा खोदकर ऋषि वस्त्र पहनकर रहता है. यह भारत का इतिहास है जिसमें अपराध को स्थान था ही नहीं इसीलिए भारत में आपराधिक विधि की आवश्यकता नहीं पड़ी, 1757 और 1764 का युद्ध जब अंग्रेजों ने मुगल बादशाहों से जीता तो भारत में विधिक व्यवस्था करने के लिए लॉ कमीशन का अध्यक्ष बनकर मैकाले आया. मैकाले ने एक सर्वे किया. 1822 में ब्रिटेन पार्लियामेंट में एक रिपोर्ट प्रस्तुत किया.
रिपोर्ट में मैकाले ने कहा कि हम भारत में कभी शासन नहीं कर सकते. भारत का गौरवशाली इतिहास अगर पढ़ोगे तो कभी भारत पर शासन किया नहीं जा सकता. उस रिपोर्ट पर जब सवाल पूछे गये तो जवाब आया संस्कार और संस्कृति आधारित परम्परा है वहां. भारत में वो प्रजाति पायी जाती है जो कोई भी मूल्य चुकाने को तैयार है लेकिन अपने नैतिक मूल्य छोड़ने को तैयार नहीं है. यह मैकाले की रिपोर्ट कहती है, भारत में जो गुरूकुल परम्परा है वह बड़ी खतरनाक है. भारत में हर समस्या का निदान गुरूकुल के पास है. भारत में इतने प्रकार के प्रकल्प चलते हैं कि इंग्लैंड उसके बारे में सोच भी नहीं सकता कि वहां पहुच जायेंगे. गुरूकुल में सीनियर जूनियर की परम्परा है. धन की आवश्यकता नहीं है जब धन की आवश्यकता नहीं है तो अपराध नहीं है. भारत में कोई इंडस्ट्री नहीं थी, लेकिन सीमाओं की रक्षा के लिए लोग राजाओं को कर देते थे, लेकिन हमें पीनल लॉज (दण्ड विधि) की जरूरत पड़ेगी. हम गुरूकुल परम्परा को समाप्त करने जा रहे है. यही जो गुरूकुल है. यही कंट्रोलर है. इस अध्यात्मिक जगत को समाप्त करना है. अगर इसे समाप्त नहीं करेंगे तो लम्बे समय तक हम भारत पर शासन नहीं कर सकते हैं. जब इसके प्रतिउत्तर में लोग कदम उठाएंगे तो हमें उनके उपर कार्यवाही करना पड़ेगा. तब हमें विधियों की आवश्यकता पड़ेगी. समाज आधारित संस्कार को नष्ट करना इनकी वेल्थ को लूटना जो इनकी शक्ति सामर्थ्य है, इनके गुरूकुलों को समाप्त करना ये एक्ट करने पड़ेंगे तब भारत में सही से शासन हो सकता है. जिसके पास साइंस हो, ज्ञान भी हो, अध्यात्म भी हो ऐसे समाज पर शासन नहीं किया जा सकता है. उसपर एडमिनिस्ट्रेटिव तरीके से तो शासन कर सकते हैं, उससे टैक्स ले सकते हैं, लेकिन उसको गुलाम नहीं बना सकते. वो दिल से आपको अपना राजा नहीं मानेगा. इसीलिए आई.पी.सी. जरूरी है. यह मैकाले का अपना विचार है. 1833 में पहला लॉ कमीशन इसी संदर्भ में मैकाले के नेतृत्व मे आया. उससे पहले भारत में मैकाले सर्वे करने आया था. उसने भारतीय दण्ड संहिता लिखी. उसके जाने के बाद 1858 में वो पास हुआ. 1860 में वो एक्ट बना और 1862 में प्रभाव में आया. भारत में सबसे पहले कोई कोडिफाईड लॉ आया तो वह भारतीय दण्ड संहिता (आई.पी.सी) था, इससे पहले का जो कोड है वो वैदिक परम्परा पर चलता था. वैदिक समाप्त हुआ तो पुराण आ गये. उसका इंटरपटेशन पुराणों में आ गया. फिर थोड़ा समय बीता तो स्मृतियां आने लगी. इन स्मृतियों से भारत में लगातार संस्कार बिखेरे जाते रहे. मैकाले ने भारत को एक नया एजुकेशन सिस्टम दिया. उसने इंग्लिश विद्यालय और मिशनरियों के स्कूल खोले. अब भारत में जो पीनल बने उसके विरोध में कार्य करना ही अपराध माना जाने लगा. जब सरकार के विरोध में कुछ कहेंगे, सरकार द्वारा बनाये गये विधान के विरोध में कुछ कहेंगे, सरकार द्वारा किये गये एक्ट के विरोध में कुछ कहेंगे, फिर आपको रोकने के लिए एक विधान चाहिए वो भारतीय दण्ड संहिता (आई.पी.सी.) है.
विकास तिवारी
लेखक सिविल कोर्ट, जौनपुर (उ.प्र.) में अधिवक्ता हैं.
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