सिनेमाई रौशनी बिखेरती ‘पंचलैट’
{Featured in IMDb Critics Reviews}
फ़िल्म: पंचलैट
निर्देशक: प्रेम प्रकाश मोदी
कलाकार: अमितोष नागपाल, अनुराधा मुखर्जी, अनिरुद्ध नागपाल, यशपाल शर्मा,राजेश शर्मा,पुनीत तिवारी,प्रणय नारायण और अन्य
अपनी रेटिंग: 3.5 स्टार
करीबन चार साल का लम्बा इंतजार खत्म हुआ कल रात को जब फ़िल्म निर्देशक प्रेम मोदी ने अपनी पहली फ़िल्म पंचलैट मुझे देखने के लिए भेजी। इसके लिए मैं उनका हमेशा आभारी रहूँगा मैं इस फ़िल्म को पूरी शिद्दत से खोजता रहा लेकिन कहीं नहीं मिली। न तो दूर दूर तलक सिनेमा घरों में उस समय मिली न ही बाद में कहीं किसी प्लेटफॉर्म पर। मुझे लगा कि शायद मैं इस फ़िल्म को कभी नहीं देख पाऊंगा। लेकिन अब जाकर रूहानी सुकून मिला है मेरे सिनेमाई हृदय को। इंतजार की घड़ियां खत्म हुई अब बात करते हैं फ़िल्म की और उससे जुड़ी कुछ बातों की। हालांकि जब भी प्रेम मोदी की फ़िल्म पंचलैट का जिक्र होगा तो उसके साथ ही तीसरी कसम फ़िल्म का जिक्र भी जरूर होगा। कारण एक ही साहित्यकार की कहानी पर आधारित होना तो है ही साथ ही एक जैसी दोनों की परिस्थितियाँ भी रही है।
साल 1966 में फ़िल्म आई थी तीसरी कसम आप सबको पता ही होगा। यह फ़िल्म महान आंचलिक साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित थी। उसके बाद उनकी किसी भी कहानी पर फ़िल्म नहीं बनी कारण यह रहा कि उस समय यह फ़िल्म फ्लॉप साबित हुई थी। लेकिन आज यह फ़िल्म बड़े चाव से देखी जाती है, इसके गाने गुनगुनाए जाते हैं। फिर भले ‘वह सजन रे झूठ मत बोलो’ हो या ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’। इस फ़िल्म के लिए शानदार और अमर गीत लिखने वाले शैलेंद्र इतने निराश थे कि फ़िल्म के बॉक्स ऑफिस पर पिटने के कारण एक साल में ही वे दुनिया से चल बसे। लेकिन इस फ़िल्म से फ़िल्म निर्देशक एवं इसके लिए गीत लिखने वाले दोनों हमेशा के लिए इतिहास में अमर हो गए।
हालांकि इस फ़िल्म को साल 1967 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरुस्कार से भी नवाजा गया। अब करीबन 50 साल बाद उन्हीं साहित्यकार की एक और कहानी जो उनके कहानी संग्रह ‘ठुमरी’ में संकलित है ‘पंचलाइट’ उस पर प्रेम प्रकाश मोदी ने फ़िल्म बनाई साल 2017 में ‘पंचलैट’ इस फ़िल्म का हश्र भी तीसरी कसम फ़िल्म जैसा ही हुआ। इस फ़िल्म को न तो फ़िल्म समीक्षकों ने ज्यादा सराहा और न ही यह फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ कमाल कर पाई। इसका एक बड़ा कारण यह भी रहा कि इस फ़िल्म को बेहद कम स्क्रीन मिले। फ़िल्म का बजट भी काफी कम था। लेकिन कम बजट में पहली ही बार फ़िल्म बनाना और एक अच्छी फ़िल्म बनाना वाकई यह दर्शाता है कि निर्देशक के साथ साथ फ़िल्मी कलाकारों की मेहनत भी उसमें लगी है। इस फ़िल्म को भी भविष्य में याद किया जाएगा।
हिंदी साहित्य पढ़ने वाले या साहित्य में रुचि रखने वालों ने रेणु की कहानी पंचलाईट तो जरूर पढ़ी होगी। नहीं पढ़ी तो पढ़ लीजिएगा आंचलिकता के सबसे बड़े हस्ताक्षर हैं रेणु। उनकी इस कहानी पर बनी फिल्म पंचलैट में हालांकि कुछ सिनेमैटिक छूट ली गई है लेकिन ये कहानी को और ज्यादा मजबूत बनाती है। और फ़िल्म की शुरुआत में एक डिस्क्लेमर है जो सम्भवतः बहुत कम बार बोलकर बताया जाता है। डिस्क्लेमर है – इस सलिमा के सभी पात्र और घटनाएं काल्पनिक नहीं है। जब से रेणु जी यानी के अमर कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु जी ने ये कहानी लिखी तब से ये पात्र लोगों की जिंदगी का हिस्सा रहे हैं। हाँ सलिमा को बनाने के लिए हमने जरूर कुछ पात्रों, घटनाओं और स्थानों को भी जोड़ा है। अगर वो आपको काल्पनिक लगे तो पूरी की पूरी जिम्मेवारी हम सलिमा बनाने वालों की।
खैर कहानी है 1950 के दशक के एक गांव की जहां जाति के आधार पर कई टोले बंटे हुए हैं उन्हीं में एक टोला है महतो टोला। कहानी उसी टोले के इर्द गिर्द घूमती है। उस गांव में एक गोधन (अमितोष नागपाल) नाम का एक नौजवान लड़का है जो अपने नाना के गाँव आता है। गोधन के परिवार में अब उसके अलावा कोई बचा नहीं है। इसलिए वह नाना नानी के जायदाद का वारिस बन गया है इकलौता लेकिन गाँव के पंचों को यह रास नहीं आता और वे नहीं चाहते कि उसे जायदाद मिल जाये। वे उस पर तरह तरह के जुर्माने लगाते हैं लेकिन गोधन समझदार है वह जुर्माना नहीं देता और अपनी हाजिरजवाबी का परिचय कराता है। बाद में गांव वालों का दिल भी पिघल जाता है क्योंकि उसने पंचलैट को जलाया है और गांव की इज्जत बचाई है। वह मासूम भी है तो पंचों की खोटी नियत से वाकिफ भी। अब गांव में बामन टोला और राजपूत टोला की देखा देख पंचलैट तो ले आए पंच मिलकर लेकिन जलाना उसे बालना नहीं आता किसी को। फ़िल्म और असल कहानी का मूल यही है और यही सब फ़िल्म की कहानी में वर्तमान और फ्लैशबैक के ज़रिए दिखाने की कोशिश हुई है। इस सबके बीच गोधन और मुनरी की प्रेम कहानी भी है। उनके प्रेम का सच वह पंचलाईट ही साबित होता है क्योंकि वह न होता तो शायद इनके प्रेम की बाती भी न जल पाती।
अब बात करें फ़िल्म के टैक्नोलॉजी या टैक्निकल पक्ष की तो इसमें 50 के दशक का गांव बेहद खूबसूरती से दिखाया गया है। लोकेशन उम्दा है लेकिन सेट जिस तरह से डिजाइन किया गया है और रात के समय जब उस समय बिजली शहरों में भी ठीक से नहीं थी तो गांव में घन घोर अंधेरा होने के बावजूद इतना रोशन दिखाना थोड़ा फ़िल्म के स्तर को कम करता है। चांद पूर्णिमा में भी इतनी रोशनी नहीं देता कि सब साफ दिखाई दे और दिखाई दे भी चमकती हुई चीजें तो फिर बीच में अलग से दिया बाती लेकर सामने वाले को देखने की क्या जरूरत है भाई। इसके अलावा आवारा पंचलैट से प्रभावित गोधन है वह राजकपूर का हमशक्ल और उसके जैसी एक्टिंग करने की कोशिश करता भी नजर आता है। शायद गोधन से ज्यादा निर्देशक इस फ़िल्म से प्रभावित हैं और वही उन्होंने इस फ़िल्म में आजमाने की कोशिश की है। हालांकि इस बात से गोधन का किरदार और खूबसूरती से निखर कर सामने आया है। लेकिन फ़िल्म का दूसरा कमजोर पक्ष इसमें साज सज्ज़ा यानी वेशभूषा का भी रहा। लेकिन इन दोनों पक्षों को छोड़ दिया जाए तो फ़िल्म आपको हर समय बांधे रखती है। बीच-बीच में गाने, लोक गीत आपका मन मोह लेते हैं। इस तरह की फिल्मों के लिए बड़ा नुकसान यह भी होता है कि इनकी कहानियां पहले से ज्यादातर लोग जानते हैं। बस देखना होता है तो ये कि इसे रुपहले पर्दे पर किस तरह उभारा, उकेरा गया है।
फिल्म का डायरेक्शन वाला पक्ष काफी बेहतर है। लोकेशन खूबसूरत है ही बल्कि यही फ़िल्म की सबसे बड़ी सुंदरता बनकर सामने आती है। अमितोष नागपाल, यशपाल शर्मा, अनुराधा मुखर्जी, ब्रिजेन्द्र काला एक्टिंग के भरे हुए गोदाम हैं। आज के समय में सिर्फ सेक्स, नशा, कामुकता से भरे हुए कमेंट या डायलॉग बाजी को लोग ज्यादा पसन्द करते हैं इसलिए भी ऐसी फिल्मों की चर्चा कम होती है। बावजूद इसके गाहे-बगाहे सिनेमा को शिद्दत से जीने वाले लोग ऐसे रिस्क उठाते हैं तो उनके लिए तालियां बजाई जा सकती हैं। फिल्म का बजट बहुत बड़ा नहीं है। यह फ़िल्म एक कोशिश है उन मुट्ठी भर लोगों की जिन्होंने एक बेहद पुरानी और बेहतरीन कहानी को स्क्रीन पर लाने की जहमत की। वैसे भी हमारे आस-पास उंगलियों पर गिनने लायक भी कहानियां नहीं हैं जिन्हें हमने कभी पढ़ा हो और उन्हें बेहतर ढंग से फ़िल्मों में तब्दील किया गया हो। फ़िल्म का गीत संगीत कहानी के अनुरूप है।
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सहायक कलाकार भी अपना पूरा दमखम अपनी एक्टिंग से दिखाते नजर आए। फ़िल्म के कुछ संवाद तो बेहतरीन बन पड़े हैं। जो असल माने भी बताते हैं। मसलन ‘औरत और कुछ पहचाने ना पहचाने अपने बर्तन की आवाज ठीक से पहचानती है।’ , ‘अच्छो कर्म ही सच्चो श्रृंगार है।’ वास्तव में इस संवाद को यह फ़िल्म चरितार्थ भी करती है। और एक अच्छे कर्म से किया गया सच्चा श्रृंगार ही हमारे सामने पर्दे पर आता है। इसके अलावा क्षेत्रीय भाषा के संवाद और उनकी संवाद अदायगी भी फ़िल्म की खूबसूरती को बढ़ाते हैं।
फ़िल्म के निर्देशक प्रेम प्रकाश मोदी की यह पहली फ़िल्म है और काफी अच्छी और सफल कोशिश है। उनकी सफल कोशिश का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि फ़िल्म यू सर्टिफिकेट से पास होकर सिनेमाघरों में आई थी। एक वेबसाइट के लिए दिए इंटरव्यू में वे इस फ़िल्म को बनाने की मंशा के पीछे का कारण बताते हैं कि रेणु की यह कहानी उन्होंने नौवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में पढ़ी थी। और तब से लेकर आज तक वे इस कहानी के मुरीद हैं और यह फ़िल्म देखकर हम उनके निर्देशन के मुरीद हो गए हैं। उन्होंने आगे बताया कि स्कूल, कॉलेज के बाद भी सालों तक यह कहानी मेरे मन मस्तिष्क में घूमती रही है। लेकिन उन्होंने तब यह नहीं सोचा था कि कभी फिल्म निर्देशक बनेंगे और इस कहानी पर फ़िल्म बनाएंगे। धीरे धीरे समय बीतने पर जब उन्हें मृणाल सेन के साथ काम करने का मौका मिला तो उसके बाद उनके भीतर भी खुद ही फिल्म बनाने की इच्छा जागृत हुई।
कुलमिलाकर भारतीय सलिमा जितना कर्जदार राजकपूर ,वहीदा रहमान , शैलेंद्र कपूर का है उतना ही अब प्रेम मोदी का हो जाएगा निकट भविष्य में।