ये अरमाँ है शोर नहीं हो, खामोशी के मेले हों
इस महामारी और लॉकडाउन के दौर में हम लगातार कई सदमे से गुजर रहे हैं। इन सबके बीच पता नहीं था कि दो सदमे ऐसे भी मिलेंगे, जिससे उबर पाना बेहद मुश्किल है। वे भी तब, जब आप चारदीवारी के भीतर कैद हों, तो ऐसी मुश्किलें और भी विकट रूप धारण कर लेती है। 29 अप्रैल को इरफान खान और 30 अप्रैल को ॠषि कपूर जैसे दो महत्वपूर्ण सितारों की एक के बाद एक, हुई मौत ने बॉलीवुड सहित तमाम दर्शकों को भी सदमे में डाल दिया। इरफान खान की खबर पर ही यकीन कर पाना मुश्किल हो रहा था। ऐसी स्थिति में ॠषि कपूर की मौत ने दोहरा आघात पहुँचाया।
इन दोनों हस्तियों ने बॉलीवुड के साथ-साथ, अपना भी वजूद कायम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक का जन्म बॉलीवुड के स्थापित हस्ती के घर हुआ, तो एक का जन्म ऐसे परिवार में हुआ, जिसका बॉलीवुड से कोई सम्बन्ध दूर-दूर तक नहीं था। सम्बन्ध होने से रास्ता आसानी से मिल जरूर जाता है और मंजिल पर पहुँचना भी आसान हो जाता है, किन्तु मंजिल पर टिके रहना और अपना अलग वजूद कायम करना, सबके बूते की बात नहीं होती। कई स्थापित हस्तियों के बेटों-बेटियों को बॉलीवुड में बेहद आसानी से इंट्री मिली, लेकिन वे अपना कोई वजूद कायम नहीं कर पाए। इसलिए ॠषि कपूर के लिए भी यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि उन्होंने अपने स्थापित परिवार के बल पर सफलता पाई। उन्होंने अपनी अभिनय का लोहा मनवाया और उसी के बदौलत सफलता भी पाई।
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इरफान खान के अभिनय से मेरा ज्यादा पुराना रिश्ता नहीं रहा है। उनकी कुछ ही फिल्मों को मैने देखा है। लेकिन जितनी भी फिल्में देखी उसने अमिट छाप छोड़ा। अन्तिम बार मैंने उनकी ‘हिन्दी मीडियम’ देखी थी, जिसके कई दिनों बाद तक भी मैं उस फिल्म और इरफान खान की दमदार अदाकारी से बाहर नहीं निकल पाई थी। एक महत्वपूर्ण सामाजिक संदेश देता, यह फिल्म आज के सभी महत्वकांक्षी माता-पिता के लिए किसी सबक से कम नहीं थी। साथ ही वर्तमान शिक्षा पद्धति पर भी करारा प्रहार था।
दूसरी ओर ॠषि कपूर के अभिनय और फिल्मों से मेरा बचपन का नाता रहा है। ये उन कलाकारों में से थें, जिनको देखते हुए मैं बड़ी हुई हूँ। एक रोमाँटिक हीरो से लेकर विभिन्न सामाजिक कुरीतियों पर बनी फिल्मों में इन्होंने जो अभिनय किया, वे उस दौर के युवा के साथ-साथ अन्य दर्शक भी शायद ही कभी भूल पाएँगे। फिल्म बॉबी के इस अभिनेता ने जब कहा ‘प्यार में सौदा नहीं’ तो उस दौर के अधिकांश प्रेमी, प्रेम को स्वार्थ से ऊपर रखकर प्रेम निभाने की हर संभव कोशिश करने लगे। जब कभी वे प्रेमी दुखी भी होते तो उसी फिल्म का गीत ‘अँखियों को रहने दो, अँखियों के आस-पास। दूर से दिल की बूझती रहे प्यास’, सुनकर अपने मन को हल्का कर लिया करते थें। ॠषि कपूर का यह निस्वार्थ प्रेम फिल्म प्रेम रोग में बखूबी दिखाया गया।
जातिवाद, धर्मवाद, परम्परावाद पर प्रहार करती यह फिल्म, उस दौर के प्रेमियों के लिए किसी मिसाल से कम नहीं थी, जिसने प्रेमी को प्रेमिका की खुशी के लिए हर संभव कोशिश करने की सीख तो दी ही, साथ ही यह भी संदेश दिया कि प्रेम यदि सच्चा हो तो प्रेमी, अपनी प्रेमिका को हर हाल और किसी भी रूप में स्वीकार करता है।
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विवाह हो जाने से प्रेम खत्म नहीं हो जाता। शायद प्रेम रोग जैसी फिल्मों का ही परिणाम था कि अधिकांश प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं की शादी में काम करते और बारातियों का स्वागत करते भी बड़े ही शिद्दत से देखे जाते थें। उस दौर के युवाओं के लिए ॠषि कपूर एक आदर्श प्रेमी का रूप बन चुके थें।
अधिकांश प्रेमिका, अपने प्रेमी में ॠषि कपूर के, इसी प्रेम और आदर्श को तलाशती थीं। उनकी ईच्छा होती थी कि यदि प्रेमी हो तो ॠषि कपूर के जैसा हो। फिल्म सागर का गाना ‘चेहरा है या चाँद खिला है’ तो इतना लोकप्रिय हो गया कि जब भी कोई लड़की, किसी लड़के को अच्छी लगती तो वह कोड वर्ड में लड़की से नाम पूछते हुए ये गाना गाता जिसके बोल होते थें, ‘सागर जैसी आँखों वाली, ये तो बता तेरा नाम है क्या’। प्रेमिका की प्रशंसा में भी इसी गाने को गाया जाता था और आज भी गाया जाता है। फिल्म चाँदनी में एक चुलबूले और बेहद रोमाँटिक अभिनय के साथ-साथ एक अलग अन्दाज से लोगों के दिलों को फिर से एक बार जीत लिया था।
फिल्म दीवाना भी कुछ ऐसा ही साबित हुआ। इस तरह लवर बॉय के साथ-साथ अपने खास अन्दाज और फैशन के कारण ॠषि कपूर फैशन आइकन भी बनते चले गये। रोमाँटिक हीरो से परे फिल्म ‘नसीब अपना अपना’ फिल्म में दो पत्नियों के बीच पीसता एक महत्वकांक्षी व्यक्ति अथवा पति दिखता है, तो फिल्म दामिनी में अपने भाईयों की रक्षा करता एक बड़ा भाई दिखता है, जहाँ पत्नी और समाज से ऊपर परिवार को रखा गया है। ऐसी अनगिनत फिल्में हैं, जो मन पर विभिन्न छाप छोड़ती है।
2000 ई. में पुन: परदे पर वापसी
2000 में जब उनकी पुन: परदे पर वापसी हुई तो ॠषि कपूर के रूप में एक अलग ही अभिनेता दिख रहा था। दर्शकों ने शायद ही कभी सोचा होगा कि उनका प्रिय और मासूम सा दिखने वाला लवर बॉय कभी खलनायक और किसी अन्य रूप में भी दिखेगा। वे अलग-अलग तरह के अभिनय को करना चाहते थें। इसे उन्होंने पूरे शिद्दत के साथ पूरा भी किया। उन्होंने साबित कर दिया कि सिर्फ लवर बॉय का ही अभिनय नहीं, वे हर तरह के अभिनय को पूरी जिन्दादिली के साथ स्वीकार करते हैं और उसे परदे पर जीवन्त कर देने की भरपूर क्षमता भी रखते हैं।
न्यूज चैनल पर जब मैंने ॠषि कपूर के मौत की खबर देखी तो पहले तो विश्वास ही नहीं हो पाया। फिर उनके ऊपर फिल्माया और बेहद लोकप्रिय गाना, ‘चेहरा है या चाँद खिला है’, के बोल ही उस समय मेरे जहन में आने लगा, जिसके अंतरे का बोल था ‘ये अरमाँ हैं, शोर नहीं हो खामोशी के मेले हों’। यह बोल लॉकडाउन के समय बिल्कुल सटीक साबित हो रहा था, जब चारों ओर सिर्फ खामोशी ही खामोशी छाई हुई थी। ऐसा लग रहा था कि इसी पल को ध्यान में रखते हुए विधाता ने इस अभिनेता के भाग्य के अन्तिम अध्याय को लिखा होगा। दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था। नजर आ रहा था, तो बस सोशल मीडिया पर दी जाने वाली श्रद्धांजली और मीडिया पर इनसे जुड़ी यादें और खबरें। मेरे शोध निर्देशक एक बात अकसर कहा करते हैं कि ‘जो रचता है, वे बचता है।’
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अपने शोध निर्देशक की यह बात इन दोनों कलाकारों के जाने के बाद फिर से मेरे दिलों-दिमाग में बैठ गयी और मैं सोच रही हूँ कि सच में जो रचेंगे वे हमेशा बचेंगे। कुछ खूबियाँ और खामियाँ तो हर किसी में होती हैं, लेकिन जिनमें रचनात्मकता होती है, वे दिल और दुनिया दोनों में सदैव जिन्दा रहते हैं। इस तरह फिल्मी दुनिया के ये ॠषि अपनी तपस्या से सब के दिलों पर रात करते रहें और अपनी अमिट छवि हमेशा कायम रखेंगे।
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