पत्रकारिता से साहित्य में चली आई ‘न हन्यते’
आचार्य संजय द्विवेदी की नई किताब ‘न हन्यते’ को खोलने से पहले मन पर एक छाप थी कि पत्रकारिता के आचार्य की पुस्तक है और दिवंगत प्रख्यातों के नाम लिखे स्मृति-लेख हैं, जैसे समाचार पत्रों में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ करते ही हैं; लेकिन पुस्तक का पहला ही शब्द-चित्र मेरी इस धारणा को तोड़ता है। ‘सत्ता साकेत का वीतरागी’ में वे पूर्व प्रधानमंत्री और भारत के महान नेता अटल बिहारी वाजपेयी को देश के बड़े बेटे के तौर पर याद करते हैं; राजनीति से ऊपर जिसके लिये देश था। इसीलिये उनके देहवसान पर पूरा देश रोया और ये संस्मरण फिर उनकी स्मृति से हमें नम कर जाता है।
‘उन्हें भूलना है मुश्किल’ वैचारिकता के शिल्प-स्तर पर एक नये प्रयोग का संस्मरण था, जबकि लेखक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम प्रवक्ता श्री माधव गोविंद वैध के जीवन की अनगिनत उपलब्धियों के बजाय उनको घर के ऐसे बड़े-बुज़ुर्ग के तौर पर याद किया है, जिनका जीवन आगे आने वाली पीढ़ियों के लिये रोशनी का एक स्तंभ रहेगा। ‘बौद्धिक तेज से दमकता व्यक्तित्व’ संस्मरण-रेखाचित्र अनिल माधव दवे को पाठक के ज़हन में राजनेता और प्रचारक के अलावा धरती के हितैषी की छवि और छाप भी देता है। जब लेखक उनकी वसीयत बयान करते हैं कि “…मेरी स्मृति में कोई स्मारक, पुरस्कार, प्रतिमा स्थापन न हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं।” जिस राजनेता का सर्वस्व जल, जंगल, जमीन के नाम रहा हो और जिसके कार्यालय का नाम ही ‘नदी का घर’ हो, उसकी वसीयत वृक्षों के सिवाय और क्या होती।
‘उन्होने सिखाया ज़िंदगी का पाठ’ में लेखक ने अपने पत्रकारिता-गुरु प्रोफेसर कमल दीक्षित को याद किया है; ऐसे ही गुरुजनों के परिश्रम, अनुशासन और मेधा ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलवाई। ‘रचना, सृजन और संघर्ष से बनी शख्सियत’ में शिव अनुराग पटैरया को याद करते हुए संजय जी शब्द-रेखाओं से कैसा अविस्मरणीय चित्र खींचते हैं, “वे ही थे जो खिलखिलाकर मुक्त हंसी हंस सकते थे, खुद पर भी, दूसरों पर भी।” ऐसे पात्र दुर्लभ हैं आज–समय में भी, साहित्य में भी। ‘सरोकारों के लिये जूझने वाली योद्धा’ संस्मरण पाठक को एक ऐसी शिक्षिका दविंदर कौर उप्पल से मिलवाता है, जो सख्त, अनुशासन प्रिय, नर्म और ममतामयी थीं। लेखक ने अपनी शिक्षिका के समग्र व्यक्तित्व को अपनी एक पंक्ति से जैसे अमिट बना दिया है, “पूरी जिंदगी में उन्होंने किसी की मदद नहीं ली।”
‘बहुत कठिन है उन–सा होना’ शिल्प के स्तर पर पुस्तक का सबसे लाजवाब संस्मरण है, जिसमें लेखक ने छतीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी को याद करते हुए लिखा है, “वे दरअसल पढ़ने-लिखने वाले इंसान थे। बहुपठित और बहुविग्य। किंतु वे ‘शक्ति’ चाहते थे, जो साहित्य और संस्कृति की दुनिया उन्हें नहीं दे सकती थी। इसलिये शक्ति जिन-जिन रास्तों से आती थी, वह उन सब पर चले। वे आईपीएस बने, आईएएस बने, राजनीति में गये और सीएम बने।…वे कलेक्टर थे तो जननेता की तरह व्यवहार करते थे, जब मुख्यमंत्री बने तो कलेक्टर सरीखे दिखे।” व्यक्तित्वों का ऐसा मूल्यांकन सिर्फ साहित्य में ही संभव है।
संजय जी की लेखनी की एक विशिष्टता है कि वे अपनी रचना में ऐसा वातावरण, ऐसी भाषा रचते हैं कि किसी अपरिचित पात्र के वर्णन में भी पाठक को आत्मीय की स्मृति-सा आस्वादन मिलता है। ‘ध्येयनिष्ठ संपादक और प्रतिबद्ध पत्रकार’ संस्मरण में अपने पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति राधेश्याम शर्मा को वे किस तरह याद करते हैं देखिये, “वे आते तो सबसे मिलते और परिवारों में जाते। अपने साथियों और अधीनस्थों के परिजनों, बच्चों की स्थिति, प्रगति, पढ़ाई और विवाह सब पर उनकी नजर रहती थी।”
श्यामलाल चतुर्वेदी पर लिखा संस्मरण ‘समृद्ध लोकजीवन के स्वप्नद्रष्टा’ जहां आपको छत्तीसगढ़ के लोकसेवक पत्रकार से मिलवायेगा, तो ‘पत्रकरिता के आर्चाय’ रेखाचित्र में आप एक पुरोधा डॉ. नंदकिशोर त्रिखा से मिलेंगे, जिन्होंने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की। ‘भारतबोध के अप्रतिम व्याख्याता’ एक मार्मिक रेखाचित्र बन पड़ा है, जिसमें मुज़फ्फर हुसैन से हम मिलते हैं, जिन्होंने सिर्फ लेखन के बूते न सिर्फ जीवन जिया, सत्ता के गलियारों से लेकर आम सभाओं तक में सम्मान पाया, अपने समुदाय की चिंता की और कट्टरपंथियों से कभी नहीं डरे। ‘संवेदना से बुनी राजनीति का चेहरा’ में जे. जयललिता की अपार लोकप्रियता और जनसेवक की छवि का पता और पड़ताल है तो ‘छत्तीसगढ़ का गांधी’ में संत पवन दीवान का भोला संत-व्यक्तित्व। ‘एक ज़िंदादिल और बेबाक इंसान’ में लेखक ने अपने पुराने युवा संवाददाता साथी देवेंद्र कर को याद किया है, वहीं ‘स्वाभिमानी जीवन की पाठशाला’ संस्मरण में बसंत कुमार तिवारी के जुझारू व्यक्तित्व और किरदार को शब्द दिये हैं।
‘माओवादियों के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़’ महेंद्र कर्मा जैसे जनसेवक, जननायक से हमें रूबरू करता शब्द-चित्र है। ‘माटी की महक’ प्रख्यात राजनेता नंदकुमार पटेल और उनके पुत्र दिनेश पटेल के साथ अपने निजी समय और सम्पर्क को याद करते हुए संजय जी नक्सली हिंसा में शहीद अपने इन प्रिय व्यक्तित्वों के बहाने पाठकों से झकझोर देने वाले सवाल करते हैं कि इनका कुसूर क्या था? ‘ध्येयनिष्ठ जीवन’ शब्द-चित्र में लखीराम अग्रवाल को ऐसे मार्मिक ढंग और शैली में याद किया है कि जो इस राजनेता को जानते भी नहीं रहे होंगे, वे भी अब उन्हें सम्मान से याद करेंगे। बलिराम कश्यप पर लिखा शब्द-चित्र ‘जनजातियों की सबसे प्रखर आवाज’ का कथ्य तो पाठक को हिला कर रख देता है। जब हम एक ऐसे राजनेता को जानते हैं जिसके पुत्र को माओवादियों ने मार डाला, फिर भी जो बस्तर के दूर-दराज इलाकों में जाकर जन-जन से मिलता रहा, क्योंकि वंचित आदिवासी ही उनकी संतान थी।
‘न तो थके और न ही हारे’ में एक ईमानदार पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को लेखक ने याद किया है। पुस्तक का अंतिम संस्मरण कानू सान्याल पर ‘विकल्प के अभाव की पीड़ा’ है। नक्सलवाद को हम उसके रक्तरंजित परिचय से याद करते हैं, लेकिन लेखक नक्सलबाड़ी आंदोलन के इस नायक को कानू दा कहते हुए जिन शब्दों में याद करते हैं, वे शब्द न सिर्फ इस अभिशप्त नायक को सम्मान देते हैं; बल्कि लेखक को पत्रकारिता से परे साहित्य की दुनिया का हिस्सा बना जाते हैं। लेखक के ही शब्दों में इस (अ)नायक को नमन, “वे भटके हुए आंदोलन का आख़िरी प्रतीक थे, किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही।”