
मेरा गाँव बदल गया है – रविशंकर सिंह
- रविशंकर सिंह
मैं सन 70 से 75 तक अपने गाँव में रहा और 75 से 85 तक कॉलेज की पढ़ाई के लिए अपने निकटवर्ती शहर भागलपुर में। उसके बाद नौकरी के सिलसिले में अब तक बाहर बाहर ही रहा हूँ। अपना गाँव तकरीबन छूट ही गया है। इसके कई कारण हैं। सबसे बड़ा कारण है कि जिन लोगों की मौजूदगी से मेरा गाँव मेरा बनता था अब वे लोग भी नहीं रहे।… लेकिन गाँव में घर – घर , आंगन – आंगन जाकर मिलने – बतियाने की आदत नहीं छूटी। जब पढ़ाई से मन उचट जाए या फिर घर की चहारदीवारी से ऊब जाए तो फिर अपना बस्ता समेटकर ताक पर रखिए और किसी आंगन में जाकर भौजाई से बतरस का आनन्द लीजिए अथवा मित्रों के साथ मिलकर ताश की पत्तियां फेंटिए। उस आनन्द के लिए गाँव हरदम याद आता है। यकीन मानिए व्यवहारिक तौर पर तो गाँव छूट गया है, लेकिन तकरीबन हर रात सपने में मैं अपने गाँव में ही रहता हूँ। मेरे सपने का गाँव सचमुच मेरा गाँव होता है। इस गाँव में वे पेड़ होते हैं जो अब नहीं रहे और मेरे वे आत्मीय जन होते हैं , जो गुजर चुके हैं, जिन्हें मेरे गाँव की वर्तमान पीढ़ी भी नहीं जानती – पहचानती है। अब गाँव भी वैसा गाँव कहाँ रहा। अब गाँव में ना तो वैसी मिल्लत रह गयी है और न वह आनन्द रह गया है। गाँव केंचुए की तरह सिकुड़ गया है। अब वहाँ भी लोग अपने – अपने घरों में मुर्गियों की तरह दुबके रहते हैं। हर छत पर एंटीना लगा है, हर घर में टीवी लगी है। लोग अपने आप में ही मशगूल हो गए हैं। खेती लगभग छूट ही गयी है। लोग दूसरों से बटाई पर खेती करवाते हैं। पहले लोग हल, बैल कुदाल, रोपनी , कटनी और फसल की जोगवारी के लिए परस्पर जुड़े रहते थे। गाँव में हल बैल की जगह टैक्टर ने ले ली है। देशी बीजों का चलन खत्म हो गया है। गोबर खाद की जगह रासायनिक खाद ने ले ली है। पूजा पाठ में थोड़ा- सा गोबर के लिए लोग दूसरों का निहोरा करते हैं। गिने चुने लोग हैं जिनके दरवाजे पर पशुधन के नाम पर केवल एक- दो गाय , भैंस बंधी हुई है। खेतों में रासायनिक खाद के प्रयोग का दुष्परिणाम साफ-साफ दिखता है। खेसारी की फसल तो खत्म ही हो गयी है। जिन खेतों में भर जांघ खेसारी की फसल लगी होती थी, उसमें हम लोग कूद जाते थे तो लगता था मखमली गद्दे पर कूद रहे हैं। उन खेतों में अब बीज डालो तो फसल ही नहीं होती। गाँव में कृषि व्यवस्था के टूटने के साथ – साथ संयुक्त परिवार भी टूटा और लोगों का आपसी जुड़ाव भी छूटा। गाँव के पढ़े-लिखे युवकों और मजदूरों ने महानगरों का रुख किया। अब गाँव लगभग सूना – सूना लगता है। होरहा और भुट्टे का स्वाद, होली और बिरहा का राग तो अब अतीत की बात हो गयी है।
लेखक सेवामुक्त प्राध्यापक और हिन्दी के कथाकार हैं।
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