संगीतांजलि

‘मेरी आवाज़ ही पहचान है, ग़र याद रहे…’

 

छह फ़रवरी, 2022 की सुबह जब भारत की स्वर-साम्राज्ञी और पूरे देश की लता दीदी के अवसान की खबर आयी, तभी एक छात्रा (डॉ. सरिता उपाध्याय) के मेसेज ने अलग ही भाव-संयोग जोड़ा – वसंत पंचमी के अगले दिन ही भारत की सुर-कोकिला को जाना था…!!

फिर दूरदर्शन पे दूसरा घटना-संयोग जोड़ा गया – ‘ऐ मेरे वतन के लोगों…, जो सबसे मानिंद एवं देशभक्ति व राष्ट्रीय चेतना का प्रबल स्वर बना, उसके कवि प्रदीपजी के जन्मदिन पर ही ‘भारत रत्न’ (2001) से सम्मानित इस अप्रतिम गायिका को जाना था!!

फिर इन सिलसिलों से शुरू होके लता दीदी के जो भी गीत याद आये, टीवी-वीडियोज पर सुनायी पड़े, उनमें बहुतेरे से यही विचार मन में कौंधा और धीरे-धीरे जमकर अंतस् में बैठता गया कि यह स्वर-कोकिला रह-रह के आजीवन ही अंतिम विदा के गीत गाती रही…हम जीवन-गीत समझते रहे। और इस तरह दर्शन के रूप में कहा गया वह सच स्वत: साकार होता रहा कि पहले ही दिन से प्राणी मृत्यु के मुख की ओर प्रयाण करता है – ‘अहनि अहनि भूतानि गच्छन्ति यम मंदिरं’ या ‘मरने को जग जीता है’ – याने पूरा जीवन विदा-गीत है। इसे परखें –

शीर्षक पंक्ति – ‘मेरी आवाज़ ही पहचान है ग़र याद रहे’- गोया इसी दिन के लिए ही गाया गया हो। यह भी गहरे छू गया कि लता दी की अंत्येष्टि में उन्हीं की आवाज़ गूंजती रही और उसी में उन्हें ही विदा करते रहे…। प्रधानमन्त्री-मुख्यमन्त्री-राज्यपाल, फ़िल्म जगत के अमिताभ बच्चन-शाहरुख़…क्रिकेट के सचिन-अंजलि… आदि-आदि ढेरों महनीयों व अनगिन मुरीदों-प्रेमियों की आकुल मौजूदगी में 21 तोपों की सलामी वाले राजकीय सम्मान के साथ ‘गार्ड ओफ़ ऑनर’ का ऐसा भव्य व भावभीना अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ, जो होता तो कई पदासीनों का है, पर इतना भावुक, इतनी श्रद्दा-संवेदना से आपूरित व अश्रु-पूरित हो भरे-भरे गले एवं रुँधे—रुँधे कंठों से मिलता अकूत सम्मान तो त्रिकाल में विरल ही होता है…, जिसका मर्म ‘मेरी आवाज़ की पहचान’ में ही तो निहित है। फिर तो क़तार लग गयी –

  •  तुम मुझे यूँ भुला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे, संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे
  •  …कि फिर ये हसीं रात हो न हो, शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो…
  •  रहें ना रहें हम महका करेंगे बन के कली, बन के सबा बागे वफ़ा में …
  •  ऐ मेरे वतन के लोगो, ज़रा आँख में भर लो पानी…
  •  ये गलियाँ, ये चौबारा…यहाँ आना ना दुबारा…
  •  रुक जा रात ठहर जा रे चंदा…जीवन-सीमा के आगे भी जाऊँगी संग तुम्हारे…
  •  तुम्हारी दुनिया से जा रहे हैं, उठो हमारा सलाम ले लो, इन आंसुओं का पयाम ले लो…
  •  ये कहाँ आ गये हम…हमें मिलना ही था हमदम इसी राह पे निकलते…
  •  नीला आसमाँ सो गया…हमसफ़र जो कल थे, अब ठहरे वो बेगाने…
  •  न जाने क्यों होता है ये जिन्दगी के साथ…अचानक ये मन किसी के जाने के बाद…
  •  गुजरा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा…हाफ़िज़ ख़ुदा तुम्हारा…
  •  तू जहाँ जहाँ चलेगा, मेरा साया साथ होगा…
  • सत्यम शिवम् सुंदरम…सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है…जीवन ज्योति उजागर है…

…याने कितना गिनायें, कितना सुनायें…!! इसी से लगता है कि लता दीदी के पूरे जीवन की तैयारी ही इसी दिन के लिए थी – और जानबूझकर उन्होंने न की थी, क्योंकि गीत की स्थिति एक ने बतायी थी, दूसरों ने लिखे थे, लताजी ने तीसरों के लिए गाये…, पर गाते हुए तीनो तो वे स्वयं होती थीं – ‘अपने में ही हूँ मै साक़ी, पीने वाला, मधुशाला’…।

उन्होंने अपने गायन के मूल मंत्र के लिए बताया है कि वे उस स्थिति (सिचुएशन) पर ध्यान देती थीं, जिसमें वह पात्र ऐसे गीत गा रही है। फिर उसकी भाव-दशा (मूड) में प्रविष्ट होती थीं, उसकी अनुभूति से एकाकार होती थीं …याने दूसरों का दिया-किया भले हो, सबकुछ को अपने में आयत्त करके, समो लेती थीं – तीनो भूमिकाओं में डूबके के फिर शब्दों को गुनगुनाना शुरू होता था…। और इस तरह शब्द तैर के नहीं, बह के आते थे और इसीलिए सबको विभोर कर देते थे।

इस बात को दो और संदर्भों में दो और तरह से भी वे कहती थीं…
… एक में तो उनकी अपनी रुचि की बात थी। जब ‘जैसे मैं चाहूँ, वैसे गाऊँ – गा पाऊँ (याने उक्त प्रक्रिया को गायन में उतारने का मौक़ा पातीं), तो संतोष होता था। ऐसे गीतों को ही गाने के बाद सुनती थीं, वरना तो गाके निकल जाती थी’। और यह दूसरा वाला भाग इधर ज्यादा होने लगा था, जब से टुकड़े-टुकड़े में रेकोर्डिंग का चलन हो गया…युगल-गीत में तो अलग-अलग एकल गाके रेकोर्ड कराना ही होता, एकल गीत भी पालियों (शिफ़्टों) में गवाये जाते…भाव-मूड सब बदल जाते…खींचना-चलाना पड़ता…। फिर भी संतुलन बना के काम तो किया…और कहना होगा कि ख़राब गीत खोजे भी न मिलेगा, लेकिन महबूब खान-नौशाद की युति जैसे वाले उस जमाने के लिए तरसती भी रहीं, जब सारे साज़िंदों सहित गायक-संगीतकार ही नहीं, पूरी यूनिट मौजूद रहती – घंटो व दिनों-दिन अभ्यास भी होते…।

न सबके साथ जो आनंद आता, संगति का लुत्फ़ मिलता, फिर उससे जो चीज़ बनती, उसका सुखानंद ही कुछ और होता…। उसी दौर व नौशाद साहब की युति में बने 144 गीत हैं, जिसमें 36 युगल गीत भी हैं। और उसी में ‘तत्र श्लोको चतुष्टयम’ की तरह 22 युगल गीत मुहम्मद रफ़ी के साथ हैं। वैसे मदन मोहन भी उनके प्रियतर संगीत-निर्देशक रहे…।
…दूसरे में अपनी बहन को उद्धृत करती हैं – ‘आशा खुद कहती कि दीदी दुख-सुख भरे संवेदनशील और व्यावहारिक जीवन के गीत गाती, तो उससे अलग के लिए मैं डांस-कैब्रे…जैसे को चुनती, ताकि अलग पहचान मिले – अपनी छबि बने’। इस तरह उनकी संवेदन-सिक्तता ही गायन का मर्म रहा…।

इस संवेदन ने वह दर्द भी समोया, जिसका एकमात्र उदाहरण दूँगा, लेकिन उतना ही विरल…। वे येशुदास, जिन्होंने आगे चलके दीदी के साथ मधुर हिट युगलगीत गाये, बचपन में एक दुकान के सामने खड़े होकर एक गीत सुना करते थे और स्कूल में देर के लिए अध्यापक की डाँट खाते थे। बाद में पता चला कि वह 1957 की फ़िल्म ‘चंपाकली’ में दीदी का गाया हुआ था – ‘छुप गया कोई रे दूर से पुकार के, दरद अनोखा हाय दे गया प्यार के’। हर मूड के इतने-इतने बेजोड़ गीत हैं…और इसी त्वरा में एक उल्लेख के मुताबिक 36 भाषाओं में गाये हुए 30,000 गीत हैं, जिनमे 10,000 हिन्दी गीत शामिल हैं।

उदाहरण यदि ‘प्यार किया, तो डरना क्या’ का न दूँ, तो उसे हज़ारों बार सुनने वाला मन (वैसे फ़िल्माया यूँ गया है कि देखने वाली आँखें) उस लोक में भी मुझे माफ़ न करेगा। और 36 तो नहीं, लेकिन हिन्दी के साथ अपनी भोजपुरी को कैसे छोड़ूँ…? उस जमाने में जो क्लासिक सिद्ध हुए, हमें आज भी याद हैं, लतादी के ही गाये हुए हैं – ‘हे गंगा मैया, तोहें पियरी चढ़ैबों, सैयां से कइ दा मिलनवां; लागी नाहीं छूटे राम चाहे जिया जाये; लाले-लाले होंठवा से बरसे ले ललइया हो कि रस चूवे ला – जइसे अमवा के मोजरा से रस चूवे ला… और स्वयं मोजरा शैली में ‘लुक-छिप बदरा में चमके जैसे चनवा मोर मुख दमके, मोरी कुसुमी रे चुनरिया इँतर गमके…’ आदि ने तो जान ही मार डाले थे…। और हिन्दी के मोज़रे तो ‘पाकीज़ा’ से बेहतर कहाँ मिलेंगे…और उसमें भी ‘ठाड़े रहियो ओ बाँके यार…’!

इस अनुपमेय कला में चार चाँद लगा देते – हर सामने वाले के प्रति उनके स्वभाव में निहित विनम्रता, आदर, प्रेम, सौहार्द्र-सत्कार के भाव…इस रूप में ‘यथा नवहिं बुध विद्या पाये’ का तुलसी का मानक साकार होता। इस विद्या शब्द को उस विद्यालयीन शिक्षा के रूप में न लें, क्योंकि विद्यालय में तो वे चंद गिने-चुने दिनों ही जा पायीं। दर्जा एक की अंकतालिका भी नहीं थी उनके पास, लेकिन छह-छह विश्वविद्यालयों की मानद डॉक्टरेट की उपाधियों से वे सादर सम्मानित थीं, जो उनकी असली कला-मर्मज्ञता की प्रमाण हैं। तो, कला व व्यवहार के उच्चतम मानकों से मिलाकर बने इस अद्भुत व्यक्तित्त्व के बारे में ‘ख़राब गाने न मिलने’ की तरह ही कुछ भी अप्रिय कहने वाला – याने ऐसा हर दिल-अजीज़ कलाकार- शायद ही कोई मिले। वे स्वयं मानतीं कि उनकी कला का साठ प्रतिशत ईश्वर-प्रदत्त है, जिसके लिए वे परम पिता के साथ अपने पिता-माता के आशीर्वाद को श्रेय देतीं और उनके जीवन के सबसे दुखद क्षण पिता-माता की मृत्यु ही रहे…।

पिता की असमय मृत्यु के समय तीन बहनों व एक भाई में बड़ी (13 साल की) होने ने ही लताजी की जिन्दगी बदल दी। उन्हें घर चलाने के लिए मराठी फ़िल्मों में बाल कलाकार की छोटी-मोटी भूमिकाएँ करनी पड़ीं, जिसमें उनकी रुचि न थी। उन दिनों ‘नवयुग’ फ़िल्म कम्पनी के मालिक मास्टर विनायक दामोदर कर्नाटकी ने काफ़ी मदद की, जिन्हें बड़ी शिद्दत से याद करती रहीं लताजी आजीवन…। मंगेशी (मंदिर भी), गोवा के मूल निवासी इस परिवार का बसेरा इंदोर में था। वहीं लताजी का बचपन परवान चढ़ा और उसे जिन्दगी भर प्यार करती रहीं। वहाँ धुर बचपन में उनका नाम भी हेमा था, जो एक नाटक में लतिका नामक पात्र को सफलता से निभाने के बाद पिता द्वारा ‘लता’ कर दिया गया।

शायद उसी में मात्र 5 साल की उम्र में पिता के साथ पहला गीत भी गाया। और 13 साल की उम्र में फिर फ़िल्म ‘किती हासिल’ में पार्श्व गायन का मौक़ा मिला, लेकिन वह पहला मराठी गीत रेकोर्ड होकर भी संपादन का शिकार हो गया…। तो 16-17 साल की उम्र में ही फिर अवसर बन पाया…। 1945 में इंदोर से मुम्बई आ गयी। उन दिनों वे तांगे में या पैदल चलके स्टूडियो जाती थीं और सरल इतनी कि पता ही न होता कि वहाँ कैंटीन भी होती है। भूखे-प्यासे बैठी रहती थीं – जब तक कि काफ़ी दिनों बाद एक दिन किसी ने बताया नहीं…। उन संघर्षों की बातें भी लता दीदी इतने नामालूम-सहज ढंग से बतातीं कि न कोई गर्व, न दिखावा।

फिर आया 1949 में ‘महल’ फ़िल्म का ‘आयेगा, आयेगा, आयेगा…आने वाला…’। वह आने वाला तो आया ही, लताजी के दिन भी आये – और क्या खूब आये…!! वह जमाना शमशाद बेगम व नूरजहाँ का था, जिनके सामने लताजी की आवाज़ को पतली कहकर टाल दिया जाता। उनकी क़द्र के साथ ही इसी के बीच लताजी ने अपनी राह बनायी और फिर उनकी गायकी में में वह निखार आया, वह आभा फूटी, जिसके चलते 29 साल की उम्र में ही लाता मंगेशकर ने वह सब कुछ पा लिया, जिसके आकांक्षी होते हैं कलाकार…। फिर वह मुक़ाम आया, जिसके उपराम की चर्चा से इस लेख की शुरुआत हुई है।

जीवन व कला की उनकी परिधि इतनी व्यापक थी कि कल्पना करना भी दूभर हो…। देश-विदेश की इतनी नामचीन हस्तियों से उनके सम्बन्ध पारिवारिक व बेहद आत्मीय रहे। उदाहरण देश से ही उच्चतर व महनीय नागरिकों में अब तक के प्रधानमंत्रियों को लें – नेहरूजी ने ‘ऐ मेरे वतन…’ को सुनकर न आंसू रोक पाए, न उसी शाम चाय पर घर बुलाने से रह पाये। अपने घर के सामने से गुजरते इंदिराजी के क़ाफ़िले का जब लताजी फ़ोटो लेने लगीं, तो भारत की अब तक की एक मात्र महिला प्रधानमन्त्री ने अपने क़ाफ़िले की न ही गति धीमी करा दी, वरन स्वर-साम्राज्ञी का अभिवादन भी किया। अटल बिहारीजी तो लताजी के सर्वप्रिय (मोस्ट फ़ेवरिट) व्यक्तित्त्व रहे, जिसके दस्तावेज़ी प्रमाण हैं। और वर्तमान के मोदीजी की रुचि के गुजराती भोजन पर दावतें सर्व विदित हैं।

इसी प्रकार कलाक्षेत्र में मधुबाला से शुरू होकर शर्मीला साधना हेमा पद्मिनी रेखा श्रीदेवी काजोल माधुरी ऐश्वर्या…तक की पीढ़ियों को अपने स्वर दिये। बेहद लोकप्रिय क्षेत्र क्रिकेट के प्रति दीदी के अतिशय गहन अनुराग के क़िस्से अनेककनेक हैं। पहला टेस्ट मैच उन्होंने 1946 में भारत बनाम आस्ट्रेलिया का देखा। ब्रैडडमैन के पास लताजी का ऑटोग्राफ रहता, तो सचिन तेंदुलकर उनके बेटे समान रहे…। 1983 में क्रिकेटरों के लिए फंड जुटाये, तो 2011 में जीत के लिए व्रत रखे।

चौपाटी के पहले के ख़ास अभिजात इलाक़े में सादा-सुथरा आलीशान ‘प्रभुकृपा’ ही उनका आवास रहा। बीमारी के दिनों पास स्थित ‘ब्रीच कैंडी’ जाना होता, जहाँ वे इस अंतिम दिनों में लगभग महीना भर रह गयीं। वहीं सुबह 8 बजके 12 मिनट पर अंतिम साँसें लीं…। शव-यात्रा उसी ‘प्रभु कृपा’ से शिवाजी पार्क आयी। इस वक्त वे 92 साल की थीं। ऐसी श्रुति है कि दुनिया को रश्क है – भारत के ताजमहल से और लता मंगेशकर से…। दुनिया कुछ भी कहे, मै तो कहूँगा – बानबे साल की ‘इस बाली उमर को सलाम’…!!

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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