ऐसे ही शिक्षकों पर शिष्य अपनी जान लुटाते हैं
- डॉ. योगेन्द्र
राधा बाबू नहीं रहे। यह तथ्य उनके हजारों छात्रों को दुख से भर देगा।वे महज एक व्यक्ति नहीं थे,संस्था थे।वे कक्षा से लेकर समाज में सक्रिय थे।उनके चाहनेवाले और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनेवालों के लिए यह खबर मर्माहत करेगा ही।अब वे नहीं हैं,इसलिए निजी घटनाओं का भी उल्लेख होगा तो वे डांटने आयेंगे नहीं,इसलिए यहां दर्ज कर रहा हूं।मेरी थीसिस उनके निर्देशन में पूरी हुई।उन दिनों मैं बेरोजगार था।उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि देखो,मेरे यहां का नियम है कि जब थीसिस पूरी हो जाती है तो बेरोजगार शोध छात्र को थीसिस टाइप करने का पैसा मैं ही देता हूं।मैं ना ना कहता रहा,मगर वे माने नहीं।पीएच- डी हेतु जो थीसिस मैंने लिखी थी ,उसकी टाइपिंग में उन्होंने पैसा दिया।आज जब यह खबर आती है कि थीसिस के लिए शिक्षक पैसा वसूलते हैं तो उस महान शिक्षक की याद जरूर हो आती है।एक छोटा सा निजी प्रसंग है।मालती दी उस वक्त जीवित थी।
वे छात्र प्रिय थे।मेरे जैसे हजारों छात्र हैं।उन छात्रों को हजारों पत्र लिखे होंगे।मैं जब जब शहर के बाहर रहा।उन्होंने अनेक पत्र लिखे।सितम्बर 1993 को राधा बाबू ने मुझे एक लंबा पत्र लिखा जिसकी कुछ पंक्तियां हैं- “मेरा मानना है ,कोई आदर्श एक काल्पनिक रेखा होता है जो समय द्वारा बार बार मिटाया और बनाया जाता है।व्यक्ति की निजी मान्यताएं किसी सीमा प्रेरक सिद्ध हो सकती हैं पर यह जरूरी नहीं कि वे मान्यताएं सबके लिए / पूरे समाज के लिए हितकर ही हों।ऐसे में ,मान्यताएं अटकाव बनकर व्यक्ति के खुलेपन को बंद करती हैं।खिड़कियां बराबर खुली रहनी चाहिए ; संभव है ,उन खिड़कियों से खुशबू का झोंका आए और कभी दुर्गंध की तेज/ दमघोंटू हवा।खुली खिडकी अगर बंद कर दी जायेगी तो रोशनी भी साथ साथ गुम हो जायेगी ।धैर्य और तपिश ,सहनशीलता और नरमी से ही दुर्गंध की हवा को भी खुशबू में बदला जा सकता है।” यही वजह थी कि मेरे जैसा साधारण छात्र भी उनके विचारों के खिलाफ उनके समक्ष बोल सकता था। वे विचारों में अटकते नहीं थे,न छात्रों को कभी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए मजबूर करते थे।जीवन,पठन पाठन,नाटक आदि में वे इसका पालन करते थे।हां,वे सताये हुए लोगों के पक्षधर थे और यह पक्षधरता हर स्तर पर जाहिर होती है।उनके नाटक अत: किम्, खेल जारी खेल जारी,हे मातृभूमि हो या जालीदार पर्दे की धूप या वह दार्जिलिंग में मिली थी जैसे कहानी संग्रह या फिर एक शिक्षक की डायरी जैसे कविता संग्रह में यह सत्य दृष्टिगोचर होता है। वे पूर्वी जर्मनी गये तो अतिथि आचार्य बन कर ।वहां सक्त पहरा था।सत्ता वैचारिक खुलेपन के खिलाफ थी।पति पत्नी भी आपस में खुल कर नहीं बोल पाते थे।जब वे लौट कर भारत वापस आये,तब उन्होंने एक पुस्तक लिखी- फिर मिलेंगे।यह एक बेमिसाल पुस्तक है।यह अलग बात है कि हिन्दी साहित्य में जितना स्वागत होना चाहिए ,उतना नहीं हुआ।उन्होंने घोषणा की थी कि एक दिन पूर्वी और पश्चिमी जमर्नी एक हो जायेगा।और वह हुआ।
1929 में जन्मे अपने शहर छपरा से आकर भागलपुर में जो बसे तो भागलपुर का होकर रह गए।भागलपुर उनकी धड़कनों में बहता था।जन्म छपरा में ,पढाई इलाहाबाद में और कर्मक्षेत्र बना भागलपुर।बीच में कुछ वर्षों के लिए शांतिनिकेतन भी गये और फिर 1974 में पांच वर्षों के लिए पूर्वी जर्मनी स्थित बर्लिन पहुंचे।हुम्बोल्ड्ट विश्वविद्यालय में अतिथि आचार्य पद पर उन्होंने सफलतापूर्वक काम किया।मैंने जब 1980 में एम ए कक्षा में नामाकंन लिया तो वे विभाग में शिक्षक थे।प्रेमचंद के महान उपन्यास ‘गोदान’ और भाषा विज्ञान वे पढ़ाते थे।वे अकेले शिक्षक थे जो अपनी कमियां स्वीकार करते थे।पढाते वक्त अगर किसी छात्र के प्रश्न का उत्तर वे नहीं जानते थे तो वे बिना बहाना बनाये साफ साफ कहते थे कि मैं कल पढ़ कर आऊंगा तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा।वे बार- बार कहते कि मैं सिर्फ शिक्षक हूं और चाहता हूं कि मुझे शिक्षक के रूप में लोग जानें।उन्होंने कई कविताएं अपने छात्रों पर लिखी हैं।उनमें से एक कविता है-जब जब देखता चेहरा तुम्हारा।उसकी पंक्तियां हैं-“जब जब देखता चेहरा तुम्हारा/ कक्षा में , या कक्षा के बाहर/ अनायास होता अहसास/ तुम नव जन्मे शिशु हो/ तुम्हारी भाषा कोई समझे या न समझे/ मैं समझता तुम्हारी भाषा / इसलिए पढ पाता हूं तुम्हारा परिचय पत्र/ तुम्हारी खिलखिलाहट,तुम्हारी हंसी ,तुम्हारे तेवर/ और उठे हाथ तुम्हारे/लगातार जगाते मुझमें बोध कि इस संसार को बदलना होगा तुम्हारे योग्य।” वे संसार बदलने के आकांक्षी थे और अपने कर्मों और रचनात्मक कृतियों के द्वारा वे संसार बदलते रहे।उन्होंने कहानियां लिखीं,कविताएं लिखीं,लेख लिखे और लिखे नाटक।उनके दो कहानी संग्रह हैं- ‘जालीदार पर्दे की धूप’ और ‘वह दार्जिलिंग में मिली थी’।तीन नाटक हैं- अत: किम्,खेल जारी,खेल जारी और हे मातृभूमि।हे मातृभूमि नाटक संग्रह है।इसमें पांच छोटे छोटे नाटक हैं-ओ कलाकार,एक हड़का कुत्ता,सोच रही हूं,और जिन्दगी और हे मातृभूमि।कविताओं से उन्हें बहुत प्यार था।
डॉ योगेन्द्र लेखक, प्राध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता और प्रखर टिप्पणीकार हैं|
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