काश जननायक कर्पूरी जी आत्मकथा लिखे होते
जननायक कर्पूरी ठाकुर जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन मुझे सदा ये ख्याल आता है कि काश वे अपनी आत्मकथा लिखे होते। अगर असमय वे काल कवलित नहीं होते तो अपना जीवन वृतान्त जरूर लिखते। आचार्य हवलदार त्रिपाठी ने लिखा है कि जब वे 1943 में भागलपुर जेल में 13 महीने रहे तो अपने साथी केदियों को लेनिन, माओत्सेतुंग तथा ट्रावस्की की जीवन गाथा सुनाते थे। उनका मानना था कि क्रांतिकारियों की जीवन गाथा सुनाकर वे कैदियों में नई चेतना जगाते थे। ऐसे जननायक अपनी जीवन गाथा जरूर लिखते। दुनिया के अनेक महापुरूषों ने अपनी आत्मकथा लिखी है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे राजनीति, विज्ञान, साहित्य, धर्म, कला, खेल इत्यादि की जानी मानी हस्तियों ने अपनी जीवनी लिखी है जिसे पढ़कर आनेवाली पीढ़ी का मार्गदर्शन होता है। महापुरूषों की आत्मकथा एक मील के पत्थर की तरह होती है जो जीवन पथ पर चलनेवालों का मार्गदर्शन करती है। प्रसंगवश गाँधी जी की बहुप्रशंसित और बहुचर्चित आत्मकथा का जिक्र करना चाहूँगा। जननायक को गाँधी जी के अहिंसा के सिद्धांत में अटूट आस्था थी और कहा जाता है कि इसी कारण उन्होंने मांसाहार का परित्याग कर दिया था।
जननायक की आत्मकथा में डॉ. राममनोहर लोहिया का जिक्र जरूर होता क्योंकि दोनों के जीवन में अद्भुत समानता है। इतिहास साक्षी है कि दलितों के प्रवक्ता डॉ. लोहिया के पिता हीरालाल जी एक उद्भट देशभक्त और गाँधीवादी थे। लोहिया जी पर पिता का प्रभाव पड़ा और उन्हीं के कारण वे गाँधीजी के सान्निध्य में आए और उनके मार्गदर्शन और आशीर्वाद से आगे बढ़े। कालांतर में एक सच्चे समाजवादी और विश्वमानव के रूप में उभरे। अपने जीवन के अंतिम समय में भी उन्होंने बड़बड़ाते हुए कहा ‘‘मैं आजीवन विरोधी दल का नेता रहूँगा।’’ जननायक की ख्याति भी मुख्यमंत्री के रूप में कम और ‘‘विपक्ष के प्राण’’ के रूप में ज्यादा थी। संसदीय मर्यादा और विधाओं का भरपूर पालन तथा संसदीय व्यवस्था में कर्पूरी जी की अटूट आस्था थी। बिहार विधान सभा तथा लोकसभा में उनकी भागीदारी अत्यंत उच्चकोटि की रही है।
डॉ. लोहिया के विचारों एवं नेतृत्व से प्रभावित होकर कर्पूरी जी समाजवादी विचारों के परिमार्जन में लग गए। प्रसंगवश यह जानना आवश्यक है कि 1962 के तृतीय आमचुनाव में वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पी.एस.पी.) के टिकट पर चुनाव जीते। उन्होंने पार्टी के लिए जी जान से काम किया। जवाहर लाल नेहरू से मतभेद होने पर आचार्य जे.बी.कृपलानी ने ‘‘किसान मजदूर प्रजा पार्टी’’ का गठन किया। इस पार्टी का उद्देश्य गाँधीवादी समाज की स्थापना करना था। प्रथम आम चुनाव के बाद यह महसूस किया जाने लगा कि समाजवादी पुनः एक खेमे में आए और सितम्बर 1952 मे दोनों पार्टियों (सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी) का विलय कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (पी.एस.पी.) का गठन हुआ और सुभाषवादी फॉरवार्ड ब्लॉक भी पी.एस.पी. में आ गया। इस प्रकार पार्टी ने मार्क्सवादी और गाँधीवादी समाजवाद को अपनाया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के राजनीति से संन्यास लेने के बाद कर्पूरी जी ने ही पी.एस.पी. पार्टी का सिंचन और पोषण किया। लोहिया के नेतृत्ववाली सोशलिस्ट पार्टी और पी.एस.पी. का विलय हो गया। 29 जून 1964 को विलय हुआ। मगर इसके बाद कुछ समाजवादी नेताओं के आपसी विवाद के कारण पी.एस.पी. में टूट आ गई तो ऐसी परिस्थिति में कर्पूरी जी ने लोहिया जी के नेतृत्व में रहना पसन्द किया।
डॉ. लोहिया ने सन् 1958 में कहा था ‘‘संविधान लागू होने के 15 वर्षो के बाद भी भारतीय सरकार अंग्रेजी भाषा को सार्वजनिक कार्यो के माध्यम के रूप में समाप्त न कर पायेगी।’’ शायद कर्पूरी जी पर इस वक्तव्य का गहरा असर हुआ होगा तभी तो 1977 में दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद हिन्दी गरिमा को स्थापित करने के लिए प्रयास किया। हिन्दी को आवश्यक बनाने का आदेश दिया बल्कि मैट्रिक परीक्षा में अंग्रेजी के कारण अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों के लिए अंग्रेजी के बिना उत्तीर्ण होने का प्रावधान करवा दिया।
कर्पूरी जी ने कहा ‘‘मुख्यमंत्री ने कहा है कि जो सरकार बन गई है उसे रोका नहीं जाए तो मैं डॉ. राममनोहर लोहिया के शब्दों में कहूँगा। ‘‘जो सरकार काम नहीं करती है, जनता के हित का काम नहीं करती है, जिस पर जनता का अंकुश न हो, जो जनता के कल्याण के लिए काम न करे, जो देश के हित के लिए कोई काम न करे तो वैसी सरकार को हम पाँच साल तक अपने माथे पर लादे नहीं रहेंगे, उसे हटायेंगे।’’ उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकालते हैं कि जननायक के जीवन पर डॉ. लोहिया के विचारों का गहरा प्रभाव था।
मेरा सौभाग्य है कि मैं जननायक कर्पूरी जी का आत्मज हूँ। समस्तीपुर की सड़क से समाज सेवा के बल पर राज्यसभा सांसद का सफर तय करते हुए मैंने हमेशा यह महसूस किया है कि काश जननायक अपनी आत्मकथा लिखे होते तो आपलोग इस सच्चाई से रू-ब-रू होते कि वे अपने दोनों पुत्रों को राजनीति में नहीं लाना चाहते थे। लेकिन मेरे अंदर का जननायक का वो डी.एन.ए. है जिसके प्रभाव से मैं समाजसेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया। जननायक का आत्मज होना निसंदेह गौरव की बात है लेकिन कर्तव्यबोध भी होता है कि हम सदैव आहत को राहत पहुँचाते रहे।
आधुनिक युग में ‘‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’’ को चरितार्थ करते हुए बहुत से नेता मिलते हैं किन्तु ‘‘कथनी और करनी में एक’’ हम जननायक कर्पूरी जी को देखते हैं। कर्पूरी जयंती के मौके पर हम उनके विचारों को जीवन में उतारने का संकल्प लें। मेरी हार्दिक इच्छा है कि ‘‘जननायक की आत्मकथा’’ ने होने की कमी मैं उनकी जीवन गाथा लिखकर पूरा करूँ। ये होगी कर्पूरी जी की जीवनी उनके आत्मज की जुबानी।
अंत में मैं निम्नांकित पंक्तियों के माध्यम से जननायक को श्रद्धासुमन अर्पित करता हूँ-
‘‘इल्मों अदब के सारे खजाने गुजर गए,
क्या खूब थे वो लोग पुराने गुजर गए।
बाकी है जमीं पे फकत आदमी की भीड,
इंसां को मरे हुए तो जमाने गुजर गए।।
जय हिन्द! जय भारत! जय बिहार।