स्वप्न और क्रान्ति के कवि गोरख पाण्डेय – मनोज कुमार झा
- मनोज कुमार झा
दुनिया के कई महान और क्रान्तिकारी कवियों ने आत्महत्या की है। कवियों की हत्या भी की गई है। पिछली सदी के अन्तिम दशक में क्रान्तिकारी कवि पाश की आतंकवादियों ने हत्या कर दी, तो एक और क्रान्तिकारी कवि गोरख पाण्डेय ने आत्महत्या कर ली। हत्या हो या आत्महत्या, त्रासद होती है। क्या यह एक हत्यारे समय का ही सच है?
गोरख पाण्डेय की अन्तिम कविताओं में एक है –
हत्या-दर-हत्या
हत्या की खबर फैली हुई है
अखबार पर,
पंजाब में हत्या
हत्या बिहार में
लंका में हत्या
लीबिया में हत्या
बीसवीं सदी हत्या से हो कर जा रही है
अपने अन्त की ओर
इक्कीसवीं सदी
की सुबह
क्या होगा अखबार पर ?
खून के धब्बे
या कबूतर
क्या होगा
उन अगले सौ सालों की
शुरुआत पर
लिखा?
यह एक जलता हुआ सवाल छोड़ कर गोरख पाण्डेय चले गए।
इक्कीसवीं सदी की सुबह आने से पहले ही।
जब आतंकवादियों द्वारा पाश की हत्या कर दिए जाने की ख़बर आई थी, तो गोरख पाण्डेय काफ़ी विचलित हो उठे थे। इसी प्रकार, लखनऊ में बैडमिंटन के नेशनल चैम्पियन सैयद मोदी की हत्या की ख़बर आने के बाद भी वह बहुत दुखी और परेशान नज़र आए थे। उस समय कौन जानता था कि कुछ समय ही बाद गोरख पाण्डेय भी अपने जीवन का अन्त कर लेंगे। गोरख पाण्डेय जैसे क्रान्तिकारी कवि की आत्महत्या हमारे समय के एक भयावह सच से परदा हटाती है। यह वर्तमान पूँजीवादी समाज में एक व्यक्ति के अलगाव, उसके बिखराव और उसके अस्तित्व के विलोपित होते जाने की भयानक पीड़ा को सामने लाती है। जबकि गोरख पाण्डेय कोई सामान्य व्यक्ति तो थे नहीं। वह उस वक़्त स्वयं को सबसे अग्रगामी कहने वाले वाम सांस्कृतिक आन्दोलन के प्रतिनिधि थे। तीसरी धारा के रूप में उभरने वाले वामपन्थी आन्दोलन के सशक्त प्रतिनिधियों में एक और जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय महासचिव। गोरख पाण्डेय प्रखर राजनीतिक चेतना से सम्पन्न कवि थे। अपने समय के अन्य कवियों से पूरी तरह अलग। उन्होंने लिखा था –
समझौता और आत्मसमर्पण नहीं,
नहीं, नहीं तो जीने का प्रण नहीं।
भूलना नहीं होगा कि देश में वामपन्थी आन्दोलनों का जो इतिहास रहा है, वह समझौते और आत्मसमर्पण का ही रहा, जिसके खिलाफ़ नक्सलबाड़ी की जो आग़ भड़की, उसने बड़े पैमाने पर कवियों-लेखकों-कलाकारों, विचारकों, छात्रों-शिक्षकों, बुद्धिजीवियों और राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं को अपनी तरफ़ खींचा। बंगाल से भड़की नक्सलबाड़ी वह आग़ जल्दी ही देश के कई हिस्सों में फैल गई। बिहार, आँध्र प्रदेश और कई अन्य राज्यों में किसान आन्दोलनों का सिलसिला शुरू हो गया। बिहार में भोजपुर इसका केंद्र बना। वर्गशत्रु का अहसास तीखा और सघन हो गया। बाबा नागार्जुन ने उसी समय अपनी प्रसिद्ध ‘भोजपुर’ शीर्षक कविता लिखी थी –
यही धुआँ मैं खोज रहा था
यही आग थी मुझे चाहिए
बारूदी छर्रे की खुशबू
आओ आओ इन नथुनों में इनको भर लूं
बाबा ने लिखा था – भगत सिंह ने यही-यहीं अवतार लिया है…
देश में क्रान्तिकारी फिज़ा बन गई थी। इसने कविता और कला जगत पर ग़ज़ब का असर डाला। उस समय अराजक कविता का दौर था। पर इस नए आन्दोलन से शुरू हुआ एक नया क्रान्तिकारी दौर, जिसके सबसे सशक्त प्रतिनिधि बन कर उभरे गोरख पाण्डेय।
1984-85 में ज्ञानरंजन द्वारा प्रकाशित ‘पहल’ के किसी अंक में गोरख पाण्डेय की कविता देखने को मिली। ज्ञानरंजन पहल के हर अंक में कवर पेज के बाद एक कविता खास तौर पर प्रकाशित करते थे। यह कविता थी-
कविता युग की नब्ज़ धरो
अफ्रीका लातिन अमेरिका उत्पीड़ित हर अंग एशिया
आदमखोरों की निग़ाह में
खंज़र-सी उभरो।
यह गोरख पाण्डेय की कविता से प्रथम साक्षात्कार था। इसके पहले उनका नाम भी नहीं सुना था, जबकि उनका संग्रह ‘जागते रहो सोने वालो’ प्रकाशित हो चुका था और उसे ओमप्रकाश सम्मान भी मिल चुका था।
उस समय हिन्दी कविता में युवा सितारे थे – अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश और दिविक रमेश। गोरख पाण्डेय का कोई नाम नहीं लेता था। सारे आलोचक इन्हीं कवियों को श्रेष्ठ और क्रान्तिकारी बता रहे थे। इनके संग्रह लगातार छप रहे थे और पत्र-पत्रिकाओं में इन पर आलोचनात्मक लेख भी। उस दौरान प्रगितशील लेखक संघ का पुनर्गठन हुआ था। आलोक धन्वा जैसे कवि तो बहुत पहले से ही चर्चित हो चुके थे और प्रगतिशील लेखक संगठन में शामिल नहीं थे, पर आलोचकों का मुख्य जोर अरुण कमल पर था। त्रिलोचन जैसे कवि भी पूछे जाने पर युवा कवियों में सिर्फ अरुण कमल, राजेश जोशी और उदय प्रकाश का नाम लेते थे। यही हाल आलोचकों का था। पर गोरख पाण्डेय की ‘कविता युग की नब्ज़ धरो’ पढ़ते ही लगा कि कलेजे में सच का खन्जर चुभ गया है। लगा कि यह तो अलग ही किस्म का कवि है। इसके तेवर अलग ही हैं। कविता का ये अंदाज़ अलग है, जो प्रगतिशील युवा कवियों के रूप में स्थापित हो रहे और पुरस्कारों से नवाज़े जा रहे कवियों से कहीं साम्य नहीं रखता। जल्दी ही गोरख पाण्डेय का कविता संग्रह ‘जागते रहो सोने वालो’ उपलब्ध किया। एक-एक कविता न जाने कितनी बार पढ़ डाली। और भोजपुरी में लिखे गीत। ये कविताएँ उन कविताओं से पूरी तरह अलग थीं जो युवा प्रगतिशील कवि लिख रहे थे, पुरस्कारों-सम्मानों से नवाजे जा रहे थे और जिन्होंने अपने इर्द-गिर्द एक अच्छा-खासा प्रभामण्डल कायम कर लिया था। प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलनों में इनका जलवा देखने लायक होता था। पर कविता में वही लिजलिजी भावुकता। वही निम्न मध्यवर्गीय संवेदना। वही शब्दों का खेल। गढ़े गए शब्द। खींच-खींच कर और सांचे में ढाले गए। तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी ही कविताएँ दिखाई पड़तीं। आलोचकों ने क्या ख़ूब बाँधे इनके प्रशंसा के पुल, पर गोरख पाण्डेय के बारे में कहीं पढ़ने को नहीं मिलता। शायद ही किसी आलोचक ने महत्वपूर्ण युवा कवि के तौर पर उस वक़्त उनके नाम का उल्लेख किया हो। इनमें तमाम मार्क्सवादी आलोचक आ जाते हैं। उस वक़्त तो कुछ मार्क्सवादी विद्वान और आलोचक एक ऐसे कवि को आगे बढ़ाने या कहें लॉन्च करने में कठिन परिश्रम कर रहे थे, जिन्होंने बाबा नागार्जुन पर ‘नागार्जुन की राजनीति’ नाम से एक बुकलेट प्रकाशित करा पर्याप्त नाम कमाया था, जिसमें नागार्जुन की इसलिए आलोचना या कहें निन्दा की गई थी कि वे सीपीआई की नीतियों का समर्थन क्यों नहीं करते और सोवियत संघ की यात्रा से लौटने के बाद वहाँ की व्यवस्था के ख़िलाफ़ टिप्पणी क्यों की। बाबा पर यह कह कर कीचड़ उछालने की कोशिश की गई थी कि उन्होंने इमरजेंसी के विरोध में पटना की सड़कों पर कविता पाठ किया था और जेल भी गए थे। पटना की सड़कों पर इमरजेंसी के विरोध में फणीश्वरनाथ रेणु और आलोक धन्वा भी उतरे थे। बहरहाल, प्रगतिशील लेखक संघ के बाद जनवादी लेखक संघ का भी गठन हुआ, क्योंकि प्रगतिशील लेखक संगठन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन था, महासचिव, अध्यक्ष एवं हर स्तर के पदाधिकारी वही हो सकते थे, जो सीपीआई के कार्ड होल्डर हों। फिर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने अपने सदस्य लेखकों का जनवादी लेखक संगठन बनाया। इस तरह साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई बन गई, जबकि सन् 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचन्द ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे नहीं, बल्कि उसके आगे-आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है। जो भी हो, गोरख पाण्डेय की चर्चा कोई नहीं करता था। उस दौर की पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ शायद ही देखने को मिलती थीं। न ही किसी साहित्यिक गोष्ठी, कार्यक्रम, सम्मेलन में उनके बारे में कुछ सुनने को मिला।
ज़ाहिर है, साहित्यिक समाज में गोरख पाण्डेय घोर उपेक्षा के शिकार थे। आख़िर क्यों? दरअसल, हिन्दी साहित्य परम्परा में जनकवियों की उपेक्षा कोई नई बात नहीं है। इसका इतिहास रहा है। हिन्दी में दरबारी परम्परा के कवियों को ही नाम और नामा मिलता रहा है। वामपन्थी लेखकों और उनके संगठनों की बात की जाए तो वे भी सत्ता प्रतिष्ठानों से ही जुड़े रहे हैं। भारत में वामपन्थी राजनीति हमेशा से कांग्रेस की पिछलग्गू रही और सत्ता प्रतिष्ठानों से इसका गहरा नाता रहा। आगे चल कर कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने वाम मोर्चा बना कर पश्चिम बंगाल और केरल में सत्ता हासिल की। वहाँ उनकी नीतियाँ कितनी जनसमर्थक रहीं, सभी जानते हैं। पश्चिम बंगाल के वाम मोर्चा शासन के ख़िलाफ़ ही नक्सलबाड़ी का किसान आन्दोलन चारु मजुमदार के नेतृत्व में सामने आया, जो तीसरी धारा के नाम से मशहूर हुआ।
बनारस में अध्ययन करने के दौरान गोरख पाण्डेय नक्सलवाद की इसी विचारधारा से जुड़े और किसान आन्दोलनों के गहरे सम्पर्क में आए। इसने उनकी रचनाशीलता की धारा को बदल दिया। आन्दोलनों और ज़मीन से जुड़े होने के कारण ही गोरख पाण्डेय की कविता की अन्तर्वस्तु और रूप में भिन्नता दिखाई पड़ती है। और चूँकि वे कभी सत्ता प्रतिष्ठानों से नहीं जुड़े और न ही उनमें आत्मप्रचार-प्रदर्शन की मध्यमवर्गीय प्रवृत्ति थी, इसलिए घनघोर उपेक्षा के शिकार हुए। आज भी साहित्याचार्यों की नज़र में गोरख पाण्डेय का मोल शायद ही कुछ हो, वैसे जहाँ भाषणों की बात है तो स्वनामधन्य आलोचकों ने उन्हें भारत का लोर्का तक कहा। उनकी आत्महत्या को भी गौरवान्वित करने की कोशिश की गई। दरअसल, गोरख पाण्डेय हिन्दी के कोई पहले कवि नहीं हैं, जिनकी इतनी उपेक्षा हुई हो। जितने भी जनकवि हुए, नागार्जुन से लेकर त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल तक, शुरू में जबरदस्त उपेक्षा के शिकार रहे। स्वयं साहबी संस्कृति में डूबे प्रगतिशीलों ने ही उनकी उपेक्षा की। पर जनता के लिए, मेहनतकश अवाम के लिए लिखने वाले संघर्षधर्मी ये कवि अपनी उपेक्षा से कतई विचलित नहीं हुए। त्रिलोचन ने तो इन पर कटाक्ष करते हुए यहाँ तक लिखा था – ‘प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है, देखा त्रिलोचन का कहीं नाम नहीं था।’ इसी प्रकार शलभ श्रीराम सिंह और अदम गोंडवी जैसे कवि हैं, जो जनता के बीच काफी लोकप्रिय हुए, पर हिन्दी के प्रगतिशील-जनवादी यानी मार्क्सवादी आलोचकों ने इन्हें तरजीह नहीं दी।
गोरख पाण्डेय की कविता वास्तव में लोक कविता है, इसलिए उन्हें आलोचकों की प्रशंसात्मक टिप्पणियों-लेखों की कोई खास ज़रूरत भी नहीं थी। उनकी कविता स्वयं अपनी ताकत के दम पर पाठकों के बीच अपना स्थान बना रही थी। खासकर भोजपुरी में लिखे गए उनके गीत तो जन आन्दोलनों के दौरान खूब गाए जाते थे, उसी तरह जैसे शलभ श्रीराम सिंह की नज़्म – नफ़स-नफ़स कद़म-कद़म की पंक्तियाँ – घिरे हैं हम सवालों से हमें जवाब चाहिए
जवाब-दर-सवाल है इंक़लाब चाहिए।
लेकिन इसे वामपन्थी साहित्यिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की विडम्बना ही कहेंगे कि सीपीआई के प्रगतिशील लेखक संघ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जनवादी लेखक संघ के तर्ज पर इंडियन पीपुल्स फ्रन्ट ने जन संस्कृति मंच का गठन किया और गोरख पाण्डेय को इसका महासचिव बना दिया गया। उस समय भूमिगत मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन ने इस फ्रन्ट को चुनावी राजनीति में खुली भागीदारी करने के लिए बनाया था। दरअसल, पार्टी लाइन पर लेखक संगठनों का गठन ही एक ग़लत विचार था, पर उस दौर में यही विचार हावी था। इससे जो नुकसान हुआ, वह उस समय लोगों को समझ में नहीं आया और अब तो ये संगठन भी बस नाम भर के ही रह गए हैं। इनकी अब कहीं कोई मौजूदगी नज़र नहीं आती। वैचारिक संकीर्णता ने इनका एक तरह से लोप ही कर दिया। लेकिन ऐसा लगता है कि गोरख पाण्डेय समान विचार और उद्देश्य वाले लेखकों का इस तरह से अलग-अलग संगठन बनाए जाने को दिल से स्वीकार नहीं कर पाए थे, जैसे नागार्जुन, त्रिलोचन और कुछ अन्य साहित्यकार। यही कारण है कि वह हर संगठन और गुट के लेखकों से खुल कर मिलने और संवाद कायम करने में यक़ीन रखते थे, जिसके लिए उन्हें पीपुल्स फ्रन्ट के कुछ नेताओं की नाराज़गी भी झेलनी पड़ी थी। पर गोरख पाण्डेय ने प्रलेस और जसम के साथी लेखकों से मिलना और संवाद कायम करना बंद नहीं किया। गोरख पाण्डेय बहुत ही खुले दिल और विचारों के व्यक्ति थे। वैचारिक संकीर्णता से कोसों दूर। उनमें यह क्षमता थी कि वह व्यक्ति के मन को समझ लेते थे, जो संभवत: उनकी सच्ची प्रतिबद्धता से पैदा हुई थी। असली-नकली और करियरवादी वामपंथियों को समझ लेना उनके लिए कठिन नहीं था। पर यह भी एक सच्चाई थी कि गोरख पाण्डेय जिस स्तर पर किसी व्यक्ति से जुड़ जाते थे, वह व्यक्ति उनसे उस स्तर पर नहीं जुड़ पाता था। गोरख पाण्डेय एक सच्चे मार्क्सवादी विचारक और लेखक इसलिए थे कि वह वास्तव में मनुष्य की समानता में यक़ीन करते थे। उनके लिए हर मनुष्य बराबर था। वह पद, पैसे और अधिकार के कारण किसी को बड़ा-छोटा नहीं मानते थे। यह उनका मूल स्वभाव था, जो दुर्लभ ही कहा जा सकता है।
1986 में दिल्ली जाने पर एक दोस्त के मार्फ़त गोरख पाण्डेय से मिलना हुआ। गोरख पाण्डेय जेएनयू ओल्ड कैंपस की लाइब्रेरी में सुबह ही चले जाते थे और देर शाम तक वहाँ पढ़ते थे। बीच-बीच में चाय-सिगरेट पीने बाहर निकला करते थे। ओल्ड कैंपस स्थित होस्टल में रहते थे। लाइब्रेरी के बाहर ही उनसे मुलाकात हुई और फिर तो लगभग रोज ही मिलने का सिलसिला चल पड़ा। पहली मुलाकात में ही उन्होंने मुझसे कविता सुनाने को कहा। एक कविता सुनाई जो आत्महत्या पर थी। उन्होंने कहा कि कविता अच्छी है, पर कुछ झाड़पोंछ की ज़रूरत है। मुझे याद आया कि बाबा नागार्जुन भी कविता की झाड़पोंछ करनी बाकी है, जैसी बात कहा करते थे। गोरख पाण्डेय ने अपनी भी कविताएँ सुनाई। वह ज़्यादातर भोजपुरी के गीत सुनाया करते थे। जेएनयू ओल्ड कैंपस स्थित कैफेटेरिया में जहाँ अभिजात वर्गीय स्टूडेंट्स की भरमार होती थी, कुर्ता-धोती पहने गोरख पाण्डेय जब ‘गुलमिया अब हम नाहीं बजइबो अजदिया हमरा के भावे ले’ गाने लगते थे, तो समाँ ही बन्ध जाता था। वह अभिजात के छल-छद्म और अहंकार को कहीं भी तोड़ देते थे। जेएनयू के न्यू कैंपस में केदारनाथ सिंह का आवास था। वहाँ अक्सर कविता गोष्ठी होती थी, जिसमें गोरख पाण्डेय शामिल होते थे। होस्टल के उनके कमरे पर भी साथियों का जमावड़ा होता था।
गोरख पाण्डेय का स्वभाव बच्चों जैसा सरल था। उनमें जरा भी कृत्रिमता नहीं थी। बड़ा हो या छोटा, सबसे वह एक ही तरह मिलते थे। होस्टल के उनके कमरे पर विद्यार्थियों से लेकर राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं, लेखकों-कवियों और जान-पहचान के कई लोगों का आना-जाना लगा रहता था। आईपीएफ के कई बड़े नेता अक्सर उनके पास आया करते थे। कहानीकार अरुण प्रकाश जब दिल्ली आए तो सबसे पहले गोरख पाण्डेय के कमरे पर ही आए और जब तक उनके रहने की स्थाई व्यवस्था नहीं हुई, वहीं रहे। जेएनयू के कई पुराने विद्यार्थी भी उनके पास आकर रहते थे, लेकिन उनका पूरा दिन प्राय: जेएनयू की लाइब्रेरी में ही बीतता था। संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान और दर्शनशास्त्र के अध्येता गोरख पाण्डेय अति सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक थे। बड़े-बड़े घुंघराले बाल और धोती-कुर्ते में उनका व्यक्तित्व बहुत ही प्रभावशाली लगता था। गोरख पाण्डेय ने सार्त्र के अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद पर पीएचडी की थी और इसी से सम्बन्धित विषय पर पोस्ट डॉक्टरल रिसर्च कर रहे थे। साथ ही, पत्र-पत्रिकाओं के लिए वह लगातार लेख भी लिखा करते थे।
बहरहाल, उनके जीवन पर विचार किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि बहुत ही कम उम्र में ही अपना जीवन जन आन्दोलनों को समर्पित कर देने वाले गोरख पाण्डेय बहुत ही अकेले होते चले जा रहे थे। 1945 में जन्मे गोरख पाण्डेय की माँ का निधन तभी हो गया था, जब वह बहुत छोटे थे। बड़ी भू-सम्पत्ति के मालिक उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली थी। गोरख पाण्डेय का बचपन अपनी बुआ के सानिध्य में बीता, जिन पर उन्होंने ‘बुआ के प्रति’ जैसी अद्भुत कविता लिखी है, जिसकी तुलना निराला की ‘सरोज-स्मृति’ से की जा सकती है। गोरख पाण्डेय की शादी बहुत ही कम उम्र हो गई थी और दुर्भाग्य से उनकी पत्नी का निधन भी जल्दी हो गया। गोरख पाण्डेय ने दोबारा शादी नहीं की, पर स्वभाविक तौर पर कुछ प्रेम प्रसंग हुए और विडम्बना ये रही कि ये इकतरफा रहे। संभवत: इसका मलाल उन्हें रहा हो। दूसरी तरफ, करियरवादी सुविधाभोगी कतिपय वामपन्थी लेखकों ने समय-समय पर उनका मजाक उड़ाने की कोशिश भी कम नहीं की। परिवार से गोरख पाण्डेय का नाता लगभग टूट ही चुका था, दूसरी तरफ वो दोस्त भी उनसे उस स्तर पर नहीं जुड़ सके, जिस स्तर पर गोरख पाण्डेय स्वयं उनसे जुड़ाव महसूस करते थे। यह बात तब सामने आई जब गोरख पाण्डेय गम्भीर रूप से बीमार पड़ गए। यद्यपि नामुराद मानसिक बीमारी सीजोफ्रेनिया के लक्षण उनमें पहले से ही उभरने लगे थे, पर उनका इलाज तब शुरू हो पाया जब बीमारी चरम पर पहुँच गई। बीमारी के दौरान उसे गम्भीरता से लेने की जगह उनका मजाक उड़ाने वाले ज़्यादा थे। जिन लोगों की गोरख पाण्डेय ने हर स्तर पर लगातार मदद की थी, वो भी गाढ़े वक़्त में किनाराकशी करते नज़र आए। इससे गोरख पाण्डेय संभवत: भीतर से टूट गए। बीमारी जब अन्तिम अवस्था में पहुँची तो ऑल इंडिया ऑफ मेडिकल सांइसेज में उनका इलाज शुरू हुआ। बुलाने पर परिवार वाले भी आए, पर चन्द दिनों के लिए। बहरहाल, लम्बे इलाज के बाद गोरख पाण्डेय सामान्य हो गए थे। हॉस्पिटल से डिस्चार्ज होकर होस्टल लौट आए थे। पर अब कोई देखरेख करने वला नहीं था। रिसर्च प्रोग्रेस रिपोर्ट नहीं देने के कारण स्कॉलरशिप बंद हो चुकी थी। वह गहरे आर्थिक संकट में फँस चुके थे। उन्हें लम्बे समय तक दवा खानी थी, पर दवाइयों के पैसे भी नहीं थे। एक समय जिन लोगों की उन्होंने खुले दिल से मदद की थी, वो झांकने भी नहीं आ रहे थे। जिस जनसंस्कृति मंच के वह महासचिव थे, उसके नेता, आइपीएफ के नेता कहाँ थे, कुछ पता नहीं था। दिल्ली का वामपन्थी साहित्यिक समुदाय गोरख पाण्डेय की स्थिति से जानबूझकर बेख़बर था। सबसे बड़ी बात तो ये कि जिस व्यक्ति ने आन्दोलन के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था, क्या उसके प्रति संगठन का कोई दायित्व नहीं बनता था? यह एक ऐसा सवाल है, जिससे मुँह नहीं चुराया जा सकता। और अगर इसका जवाब देना हो तो कहा जा सकता है कि भारतीय वामपंथ की जो दुर्दशा हुई है और आज जिस प्रकार यह रजनीति से लेकर संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में हाशिए पर चला गया है, उसके पीछे वामपन्थी संगठनों का अवसरवाद, सत्तलोलुपता और परमुखापेक्षिता ही है। जाहिर है, गोरख पाण्डेय जैसे सच्चे मनीषी और कवि के महत्व को वो कभी नहीं समझ सकते थे। वह उनका इस्तेमाल कर सकते थे, जो उन्होंने करने की कोशिश भी की, और जब उन्हें लगा कि वह उनके काम के नहीं रह गए तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। परिवार ने तो छोड़ ही रखा था, दोस्तों ने भी छोड़ दिया, और सबसे बढ़कर संगठन ने। यह संगठन अब उन्हें याद करने की रस्मअदायगी करता है।
पर यह भूला नहीं जा सकता कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में गोरख पाण्डेय का नाम अमिट है। राजनीतिक विचारधाराएँ अपनी जगह हैं, पर साहित्य तो मनुष्य और मनुष्यता से जुड़ा है। इससे बड़ा सच और कोई नहीं। गोरख पाण्डेय की कविता उत्पीड़ित मनुष्य की आवाज़ बुलंद करती है। उनकी कविता आज़ादी का उद्घोष है, संघर्ष की रणभेरी है और उत्पीड़ित मनुष्यता की करुण पुकार ही नहीं, उसकी मुक्ति के लिए युद्ध का आह्वान है।
गोरख पाण्डेय लघुमानवों के कवि नहीं, सर्वहारा के कवि हैं, किसानो के कवि हैं, खेतों-खलिहानों में श्रमरत स्त्रियों की आवाज़ को सामने लाने वाले कवि हैं। गोरख पाण्डेय का कवि व्यक्तित्व विराट है। वह भारतेंदु, निराला, नागार्जुन और शमशेर बहादुर सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की परम्परा के कवि हैं। गोरख पाण्डेय के कृतित्व-व्यक्तित्व का मूल्यांकन इतिहास करेगा। फिलहाल, जो दौर है वह भटकाव और पतन का है। छद्म वाम पर गोरख पाण्डेय ने भी जम कर प्रहार किया था अपनी कविताओं के माध्यम से। लेकिन वह समय आएगा जब जनता का संघर्ष रंग लाएगा और सच्चे अर्थों में मनुष्यता ती स्थापना होगी। युगो-युगों से चला आ रहा क्रान्ति का स्वप्न पूरा होगा। गोरख पाण्डेय स्वप्न और क्रान्ति के ही कवि हैं।
लेखक कवि, समीक्षक और राजनीतिक विश्लेषक हैं|
सम्पर्क- +917509664223, manojkumarjhamk@gmail.com