लोक नाट्य परम्परा और हबीब तनवीर
हबीब तनवीर लोकप्रिय भारतीय नाटककारों में से एक हैं। वह एक थिएटर निर्देशक, कवि और अभिनेता थे। भारतीय रंग परम्परा पर नजर डालें तो किसी सुगठित नाट्यलेख से पूर्व नाटक और रंगमंच के सभी कार्यकलापों के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्षों पर गम्भीर मौलिक चिन्तन का ग्रन्थ प्राप्त होता है वह है भरत मुनि का नाट्यशास्त्र। इसकी प्रौढ़ उपस्थिति इस बात की ओर संकेत करती है कि भारत में नाट्य परम्परा उससे भी पहले से चली आ रही होगी। यह भारत की लोक परम्परा थी, जिसके कई रूप आज भी विद्यमान हैं। भारत में विभिन्न सामाजिक और धार्मिक अवसरों के दौरान बृहद पारम्परिक नाटक या लोकनाट्य किया जाता है जिसको गाँव का रंग-मंच बोला जाता है। यह लोकनाट्य भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण तथा धारणाओं को दर्शाता है। मध्ययुगीन भारत के दौरान लोकनाट्य बहुत प्रसिद्ध था।
महेन्द्र भानावत ने लोकनाट्य की परिभाषा लिखी है कि रूढ़ियों की अनुकरणात्मक अभिव्यक्तियों का वह नाट्य रूप, जो अपने-अपने क्षेत्र के लोकमानस को उल्लसित एवं अनुप्राणित करता है, लोकनाट्य कहलाता है। हबीब तनवीर ने रंगमंच का विधिवत प्रशिक्षण लेने के लिए भले ही इंग्लैंड प्रस्थान किया और वहाँ रॉयल एकेडमी ऑफ ट्रैमेटिक आर्ट्स (राडा) में प्रशिक्षण प्राप्त भी किया, लेकिन एक वर्ष के भीतर ही उनका मोह भंग हो गया और उन्होंने ‘राडा’ छोड़ दिया। इस संदर्भ में हबीब तनवीर के लोक की समझ और गहरी सम्बद्धता देखी जा सकती है जब उन्होंने कहा कि “अगर मैं और अधिक सीखता हूँ, यहाँ और अधिक रूकता हूँ, कुछ और ज्यादा समय व्यतीत करता हूँ तो मैं एक अभिनेता के रूप में आडम्बरपूर्ण और अस्वाभाविक हो जाउँगा। मैं अंग्रेजी में नहीं बल्कि अपनी भाषा में अपनी रंग सक्रियता को जारी रखने के लिए वापिस जाउँगा और मेरी भाषा में यहाँ प्रयुक्त होने वाले नियम और सिद्धांत काम में नहीं आयेंगे।” लोक की व्यापक अवधारणा का प्रयोग हबीब तनवीर ने किया है।
लोकसंस्कृति एवं लोकनाट्य परम्परा का खूबसूरत प्रयोग हबीब तनवीर की खासियत है। उनके द्वारा संस्कृत नाटक, लोकनाटक और आधुनिक नाटक से बनी पाँच दशकों की रंगयात्रा आधुनिक रंगमंच की ऐसी परम्परा है जिस परम्परा में नया-नया उन्मेष है। हबीब तनवीर की यह चेतना हठधर्मिता या मोह भंग नहीं है प्रत्युत, प्रायोगिक और व्यवहारिक स्तर पर जाकर स्थापित किया रंगकर्म है। सही अर्थ में यह अनुभवजनित ताप से पैदा हुई वैज्ञानिक चेतना है। उनके सम्पूर्ण रंगकर्म में सरल और सहज जीने वाले जनसमुदाय की झांकी है। यही लोक है तथा लोक नाटय परम्परा का बीज है। हबीब तनवीर का अपने संस्कृति अपने लोक से गहरा जुड़ाव था। इस जुड़ाव के कारण ही उन्होंने नाटय मंचन के गहरे विसंगति की खोज की जब प्रशिक्षण दूसरी भाषा में और प्रस्तुति दूसरी भाषा में की जाती रही थी। उन्होंने इस गतिरोध को समाप्त किया और अभिनेता की उसी की भाषा में प्रशिक्षण की परम्परा शुरू की। उन्होंने छत्तीसगढ़ी भाषा में नाटय लिखे और मंचित किये, जिसके लिए उन्होंने कलाकार भी छत्तीसगढ़ के ही लिए। जो संभवतः उनकी सफलता का राज है।
इस परिप्रेक्ष्य में यह भी उल्लेखनीय है कि उनके नाटकों में उतना वैविध्य नहीं है, लेकिन पारम्परिक रंगमंच की पुनर्स्थापना कर आधुनिक संवेदना को सम्प्रेषित करने वाला मुहावरा गढ़ने का दुस्साध्य कोई और कर नहीं पाया। इस प्रसंग में देवेन्द्र राज अंकुर का कथन उल्लेखनीय है कि “भारतीय रंगमंच में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व रंगमंच में ऐसे किसी रंग निर्देशक की मिसाल मिलना मुश्किल है जिसने लगातार एक ही दिशा में, एक ही तरह का, एक ही नाट्य दल के साथ और अन्ततः एक रंगकर्म किया हो और जो अब भी उतना ही सक्रिय है। वह निर्देशक है हबीब तनवीर।”
रंगमंच का नया मुहावरा गढ़ने वाले हबीब तनवीर ने भाषा के महत्व को समझा और लोक से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए उसकी संवेदनशीलता को बचाते हुए एक शिल्प तराशे। हबीब तनवीर भाषा में अभिनय जटिल अभिनय की संभावनाएँ तलाशते हैं तथा उन्होंने जिस वर्ग को साधा था यह गीत संगीत का प्रेमी वर्ग था। वह जानते थे कि दैनिक बोल-चाल की भाषा मुहावरेदार और खुबसूरत तो होती है, धरती से जुड़े लोग संगीत को अधिक महत्व देते हैं। अगर गीत संगीत मिल जाएं तो नाटक अधिक प्रभावपूर्ण हो जाता है। हबीब तनवीर अपने नाटकों में गीतों का प्रयोग अधिक करते हैं। ठीक फिल्मों की तरह वे नाटक को बोझिल नहीं होने देते वरन कथ्य के विकास में गति चकित करती है।
हबीब तनवीर के प्रसिद्ध नाटक ‘आगरा बाजार’ में रंगमंच को जनमंच में बदलते आसानी से देखा जा सकता है। इस संदर्भ में महावीर अग्रवाल का यह कथन उल्लेखनीय है कि “हबीब के नाटकों में लोक की स्थानीयता का बहुत विराट स्वरूप है, लेकिन उनके नाटक लोक-नाटक नहीं है, वैज्ञानिक शोध के साथ परिमार्जित आधुनिक नाटक है।”
हबीब तनवीर ने लोक को रंग में जिस प्रकार मिलाया, प्रयोग किया वह भारतीय रंग परम्परा को नया आयाम देती है। शूद्रक ने जब ‘मृच्छकटिकम’ लिखा या फिर भारतेन्द्र ने ‘अंधेर नगरी’ दोनों नाटक इसी परम्परा के पूर्व के पड़ाव है। जिनको शीर्ष पर हबीब तनवीर ले गए। उन्होंने प्रशिक्षण में अनुकरण के बजाय मौलिकता को अधिक महत्व दिया। तुलसीदास के शब्दों में कहे तो ‘जन रंजन सज्जन प्रिया एहा’ हबीब तनवीर के काम को चरितार्थ करती है। लोक नाटय परम्परा के तत्वों का सार्थक और संतुलित प्रयोग उनके लेखन में साफ दिखाई पड़ता है। जीवन में इतनी उँचाई प्राप्त करने के बावजूद वह कभी अपने ‘लोक’ से अलग नहीं हुए। स्पष्ट कहें तो हबीब रंग-कर्म का ऐसा व्यक्तित्व जो जमीन से जुड़ के भी आसमान छूता है।
लोक परम्परा पर हबीब तनवीर का कहना है कि “मेरी भी यही समझ है। मेरा अनुमान है कि ऋग्वेद के मन्त्रों का आग जलाकर उसके चारों ओर उच्चारण रंगकर्म की भ्रूण अवस्था है और वह लोक परम्परा है। लोक परम्परा पहले हुई जैसा कि नाटयशास्त्र में भी कहा गया है। यूनानी नाटक की संरचना बेकस के अनुष्ठानों, जिन्हें बक्कानालिया कहते हैं, पर आधारित है। वहाँ पहले एस्केलस पैदा हुए, उसके बाद सोफोकेलिस, एरिस्टोफेनिज़ वगैरह आये। इस तरह लोक से शास्त्रीय बना और शास्त्रीय इतना विशाल कि उसमें हरेक अपनी-अपनी जगह अछूता है। कालिदास भी उसका असर कुबुल किये बगैर आगे नहीं बढ़ा। ये अन्तः क्रियाएँ मुस्तकिल चलती रहती हैं। कई साल के अनुभव के बाद जब मैं इस नतीजे पर पहुँचा तो मैंने कहा मैं बिल्कुल ठीक कर रहा हूँ कि मैं लोक और शास्त्रीय इन दोनों को लेकर चल रहा हूँ।”
यह गौरतलब है कि हबीब तनवीर भारतीय रंगमंच पर तब सक्रिय होते हैं जब आजादी के बाद भारतीय रंगमंच के निर्माण के प्रयास हो रहे थे। हबीब तनवीर का रंगकर्म छः दशकों का फैलाव लिये हुए है जिसमें कई पड़ाव हैं। हबीब तनवीर स्वयं भी नाटककार थे, इसलिये प्रयोगशीलता के कई आयाम उनके व्यक्तित्व में देखे जा सकते हैं। उन्हीं आयामों को सूक्ष्म रूप से देखकर ही उनके बहुआयामी नाटकीय जीवन को भी समझा जा सकता है।
हबीब तनवीर ने वास्तविक जीवन और नाटकीय मंच को जोड़ने के लिए लोक का सहारा लिया। उनका मानना था कि साधारण से चौक पर मजमा लगाकर प्रदर्शन कर अधिक प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है, बनिस्बत कि पूरे तामझाम से प्रस्तुति देकर। इस परिस्थिति में व्यापक और मौलिक प्रभाव होता है। उनकी इसी समझ ने उनको लोक परम्परा का वाहक बना दिया। जब महावीर प्रसाद अग्रवाल ने उनसे सवाल पूछा कि उनके द्वारा प्रस्तुत लोक नाट्य देखकर जनता शिक्षित हो, उसकी चेतना विकसित हो इस दिशा में वह क्या सोचते हैं? इस पर हबीब कहते हैं- “शोषण, उत्पीड़न और उपेक्षा के ज्वलंत प्रश्न मुझे लागातार मथते रहे हैं। मैं यह मानता हूँ कि नाटक की प्रस्तुति उपदेशात्मक नहीं होनी चाहिए। इसके बाद भी मैं अपनी चेतना के अनुसार यह मानकर चलता हूँ कि मेरा कोई भी नाटक ऐसा नहीं है जिसमें सामाजिक पहलू न हो। राजनैतिक पकड भी आवश्यकतानुसार होनी चाहिए। अपने सभी नाटकों में मैंने एक इंटरप्रिटेशन तलाश किया है।”
उल्लेखनीय है कि यह बात उनके सभी नाटकों में देखा जा सकता है। ‘मिट्टी की गाड़ी’ में शूद्रक ने लफंगे, बदमाश, चोर जुआरी और वेश्याओं के अंदर से एक बेहद सुन्दर कामेडी निकाली जो कि अद्भुत थी। ‘आगरा बाजार’ के माध्यम से नजीर अकबरावादी के जीवन और कलाम को सबके सामने रखा। ‘बहादुर कलारिन’ और ‘चरणदास चोर’ ने भारतीय तंगदिलों पर करारा प्रहार किया और ‘हिरमा की अमर कहानी’ में आदिवासी जीवन के सामाजिक पहलू पर प्रकाश डाला।
इस विषय में दूसरे निर्देशक उनको कैसे देखते हैं यह भी देखा जा सकता है। ब. व. कारन्त कहते हैं कि “हबीब तनवीर के नाटक ‘मिट्टी की गाड़ी’ की आलोचना 1957 में मैंने ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में पढ़ी थी। तब से मन में मिलने की ललक थी। जहाँ तक मुझे स्मरण है 1960 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली पहुँचने के बाद मैंने पहली बार उनका नाटक ‘आगरा बाजार’ ही देखा था। एक साधारण चौराहे पर मजमा लगाकर उनके कलाकारों ने उनाल कर दिखाया। बहुत साधारण, बहुत सहज होने के बाद भी कल-कल करते झरने की अनुगूँज से भरा हुआ नाटक देखकर मैं अभिभूत हो गया। उनके नाटकों से भी अधिक मैं उनके चुंबकीय व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ। बाद के वर्षों में उनसे जब भी बातचीत हुई, किसी भी विषय पर बातचीत हो, उनके व्यापक अध्ययन और मौलिक सोच को सुनकर मैं चकित रह जाता हूँ। रंगमंच के लिए ऐसा समर्पण मैंने कम देखा है।”
हबीब तनवीर ने लोक से चीज़ें उठाईं। लोक नाट्यों की प्रस्तुति में संगीत, नृत्य और आधुनिक उपकरणों की आवश्यकता होती है जिसका उन्होंने भरपूर प्रयोग किया। उनका स्पष्ट मानना था कि कला की कोई सीमा नहीं होती। हालाँकि हबीब तनवीर ने उन उपकरणों के बिना भी अच्छे नाटक की उम्मीद जताई और माना कि एक कुशल अभिनेता अपने अभिनय से नाटक को गतिशील और आकर्षण बनाए रखता है।
नामवर सिंह कहते हैं कि “देखिए, कायदे से हमारे यहां तीन परम्पराएँ थीं। पहली पारसी थियेटर की दूसरी इप्टा की और तीसरी शेक्सपीरयन थियेटर की। हबीब इन सारी परम्पराओं से केवल परिचित ही नहीं थे वरन इन परम्पराओं में दक्ष थे। बचपन में उन्होंने पारसी रंगमंच देखा और उसमें अभिनय भी किया। जवानी के दिनों में यूरोप में घूम घूमकर नाटक देखे। 1955 में उन्होंने लंदन की ‘रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्टस्’ में प्रवेश लिया। ट्रेनिंग के बाद छुट्टियों में लंदन में ही ‘एसोसियेट आफ द ड्रामा बोर्ड’ (ए.डी.बी.) से भी नाट्य प्रशिक्षण की एक डिग्री प्राप्त की।
यूरोप में अल्जीरिया, ट्रीस्ट, बेलग्रड, जैगरेव, दुब्रोबनिक और यूगोस्लाविया में नाटक देखे तथा हंगरी और बुडापोस्ट होते हुए 1957 में दिल्ली वापस आ गए। ऐसा उन्होंने बाद की चर्चाओं में बताया था। वे डंकन रास को अपना गुरु मानते हैं लेकिन उस समय ‘इप्टा’ पर बम्बई और कलकत्ता की गहरी छाप थी। हबीब ने इसके साथ लोक रंगमंच को जोड़ा। ब्रेख्त की थ्योरी का भी प्रयोग किया। अपनी मिट्टी के साथ जुड़कर काम किया। उन्होंने अपने थियेटर का नाम रखा, ‘नया थियेटर’। केवल नाम ही नहीं रखा, नाम के अनुरूप ही नया और सार्थक काम भी करके दिखाया। दूसरी विशेषता उनके नाटकों में यह है कि पारसी रंगमंच की तड़क भड़क और शेक्सपीयरन थियेटर की चमक दमक के साथ परम्परागत ढांचे को छोड़ दिया। पर्दा उठाने और गिराने के काम को छोड़कर वे आगे बढ़ गए। संस्कृत के गीत प्रधान नाटकों की परम्परा को अपनाया। उसके साथ ही लोक परम्परा का, लोक संगीत का खूब इस्तेमाल किया।”
नृत्य, गीत और संगीत लोक नाटक के प्राणतत्व होते हैं हबीब जी का मानना है कि “इन तीनों का बहुत गहरा सम्बन्ध है। तुमने देखा होगा कि हमारे नाटकों में अभिनेत्रियां गाते गाते नाचती भी हैं। नाटक की आत्मा होते हैं। ‘चरणदास चोर’ में छत्तीसगढ़ का पन्थी नृत्य है। उसमें मैंने नर्तकों से कहा कि यह नृत्य ज़रा तरीके से करो। वे इस नृत्य में छाती पर चढ़कर नाचते हैं। उसका गहरा असर होता है क्योंकि वहाँ मेसोचिज़्म है। चरणदास ने अपने आप तकलीफ मोल ली है फिर नाटक का अन्त करीब है और अन्त में मृत्यु शामिल है। उसकी तरफ हम दर्शकों को नृत्य के सहारे ले जा रहे हैं। हँसी बहुत हो चुकी, हँसते-हँसते यहाँ तक पहुँच गये हैं। उसमें ‘यम के चोरी तै मत करबे’, यह गाना है और साथ ही साथ पन्थी नृत्य है जिसमें मेसोचिज़्म, दुःख और क्रूरता शामिल है।”
लोक और शास्त्र की यह समझ तभी विकसित हो सकती है जब आपको इसकी बुनियादी समझ हो हबीब को था। तभी तो उन्होंने इसको गहरे से पकड़ा था। हबीब ने कई नाटक लिखे जो प्रसिद्ध हुए जिनमें आगरा बाजार, चरणदास चोर, गाँव के नाम ससुराल और मोर नांव दामाद, हिरमा की अमर कहानी, कामदेव का अपना बसन्त ऋतु का सपना, बहादूर क्लारिन, पोंगा पंडित, प्रमुख हैं। हबीब तनवीर ने बच्चों के लिए भी नाटक लिखे जिनमें दूध का ग्लास, परम्परा, चाँदी का चमचा, हर मौसम का खेल, आग की गेंद, किस्सा ठेलाराम का, कारतूस प्रसिद्ध हैं। हबीब कविता लिखने के भी शौकीन इंसान थे उन्होंने अपने नाटकों में तो लिखा ही कुछ स्वतन्त्र रचनाएँ भी मौजूद हैं। जिनका पुस्तकाकार प्रकाशन तो कहीं नहीं हुआ लेकिन कई पत्रिकाओं में छपा जरूर।
हबीब तनवीर का मानना था कि लोक से शास्त्र का जन्म हुआ है। उन्होंने शास्त्रीय शैली और लोक शैली के विभिन्न तत्वों को गहराई से समझा। उन्होंने नाट्यशास्त्र के सामान्य निर्देशों का अनुपालन करते हुए नाटक के प्रतिपादन में सहायता देने वाले रंगभाषिक तत्वों में छूट ली, जो उस नाटक को कलात्मक एकरूपता में ढालने में समर्थ हो, भले ही वह शास्त्रीय हो, लोक हो या विदेशी रंगभाषा।
बसन्तसेना जैसी राज नर्तकी के लिए उन्होंने किसी शास्त्रीय नृत्यांगना की बजाय फिदा बाई को लिया। उन्होंने अपनी भाषा में पूरी आँचलिकता से सहज होकर पूरी क्षमता से अभिनय किया। सम्भवतः हिन्दी भाषी क्षेत्र में ऐसा रंगमंचीय प्रयोग पहली बार हो रहा था। क्योंकि हबीब तनवीर ने प्रारम्भ से ही लोक से खुद को जोड़ लिया था। उन्होंने प्रशिक्षण से उस शास्त्रीय परम्परा को भी जाना समझा और आत्मसात किया जिसकी चमक रंगजगत में संजीदगी से समझी जाती है। उन्होंने इसको समन्वित किया और रंग कर्म को नयी दिशा दी। शास्त्र और लोक का ऐसा समन्वय अन्यत्र दुर्लभ है। इस विषय में वह स्पष्ट राय रखते हैं कि लोक से ही शास्त्र बना है। हबीब तनवीर जैसे रचनाकार वैसे प्रतिबद्ध रचनाकार है जिनका सम्बन्ध लोकजीवन से है। वह लोकजीवन जिसे समाज का बड़ा वर्ग भूलते, दरकिनार करते जा रहा है। वे उन मूल्यों की बात करते हैं जिसे आज त्याज्य समझा जा रहा है। इन सब कारणों से हबीब तनवीर सदा प्रासंगिक बने रहेंगे। उनके नाटक जिसने रंगमंच को जनमंच में बदल दिया आने वाले समय में नए लेखकों को निर्देशित करते रहेंगे।