शख्सियत

16 फरवरी : फांसी दिवस पर – सत्तावनी क्रांति के शहीद जैमिग्रीन के नाम एक पत्र

  • सुधीर विद्यार्थी
प्रिय जैमिग्रीन,
तुम्हें ‘प्रिय’ का यह संबोधन लिखते हुए जाने क्यों थम-सा जाता हूं। तुम तो मुझसे बहुत पहले इतिहास के एक कालखंड में अपनी सचेत उपस्थिति दर्ज कराकर 16 फरवरी 1858 को लखनऊ के फौजी कैम्प में सवेरे ही फांसी पर लटका दिए गए थे। तब से तुम्हारी शहादत की ज़मीं पर बहने वाली गोमती और बरेली की जिस सरज़मीं के तुम बाशिंदे थे, वहां की सदानीरा रामगंगा जैसी नदियां कितनी गंदली और उथली हो चुकी हैं इसे तुम किस तरह जानोगे। तुम मरते दम तक अपनी आखिरी कैफियत में बरेली कालिज का नाम लेना नहीं भूले जिसे मृत्यु की प्रतीक्षा के सघन अंधेरे में फ़ारबेस मिशेल को तुमने अपने संघर्षनामे के साथ किसी सितारे की मानिंद टांक दिया था। बरेली कालिज में खास तौर पर अंग्रेजी भाषा में तुमने बड़ी शोहरत हासिल की थी और तुम्हारा असली नाम मुहम्मद अली खां बरेलवी था। कहना चाहता हूं कि आज अपनी प्रतिष्ठा को पूरी तरह धूल में मिला चुका तुम्हारा यह शिक्षा संस्थान तुम्हें पूरी तरह विस्मृत कर चुका है। मैंने कुछ वर्ष पहले इस शैक्षिक परिसर की एक भरी सभा में कहा था कि यहां के छात्र अपनी दलगत और संकीर्ण राजनीतिक प्रतिबद्धताएं छोड़कर 16 फरवरी को प्रतिवर्ष ‘जैमिग्रीन दिवस’ मनाएं। लेकिन मेरे इस कथन पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। छात्रों, न अध्यापकों ने। यह इतिहास विमुख पीढ़ी है जहां शिक्षा ग्रहण करने वालों को तुम्हें याद करने का अवकाश कहां और दूसरी ओर इस महाविद्यालय के अध्यापक भी इस बात से कोई वास्ता नहीं रखते की सत्तावनी संग्राम में यहां रहे फ़ारसी के अध्यापक कुतुबशाह तब के क्रांति के नुमाइंदगी करने वाले

खान बहादुर खां

खान बहादुर खां के प्रकाशक थे और उन दिनों के छपे इश्तिहारों में उनका नाम हुआ करता था। आज़ादी की इस मुहिम में उन्हें भी फांसी की सजा मिली जिसे बाद में देशनिकाला में तब्दील कर दिया गया। जैमिग्रीन, तुम सचमुच जीनियस थे और अपनी इस योग्यता के बल पर उस समय में कोई भी सरकारी ओहदा और सुविधाजनक ज़िन्दगी हासिल कर सकते थे, पर तुमने मुल्क की आज़ादी के लिए क्रांति और बलिदान का रास्ता चुना।

जैमिग्रीन, आज मेरे पास तुम्हारी कोई तस्वीर नहीं है जिसे देखकर तुम्हारी सूरत का कोई अक्स तय कर सकूं। हां, उस दिन के लखनऊ का एक बेहद उदास चित्र मेरे पास सुरक्षित है जो तुम्हारे शोक में बेचैन और खामोश नज़र आता है। मैं नहीं जानता कि तुम्हारी फांसी की खबर पाकर बरेली उस दिन कितना उदास हुआ होगा।
जैमिग्रीन, तुम्हें भी यह जानकर अच्छा लगेगा उस अंग्रेज फौजी अधिकारी मिशेल के प्रति भी मेरे मन में सम्मान का गहरा भाव है जिसने तुम्हारी आखिरी रात में उस कैफियत को तुम्हारे मुख से सुना और लिपिबद्ध किया, इस वादे के साथ कि वह इस क्रान्तिकथा को स्कॉटलैंड और इंग्लैंड में छपवायेगा। और उसने अपने इस कौल को निभाया भी। वह ऐसा न करता तो हम जान ही न पाते कि बारूद से भरा तुम जैसा कोई छात्र भी था जो मुक्तियुद्ध में भभककर ख़ाक हो गया। सही पूछो तो ज़िंदगीनामा इसी इबारत का नाम है जिसे तुमने अपने रक्त की लालिमा से उकेर कर ज़मीन को सुर्खुरु कर दिया।
जैमिग्रीन, बहुत बार मन हुआ कि तुम्हारी वह अंगूठी जिसे तुमने अत्यंत कृतज्ञता के साथ फांसी पर जाने से पहले मिशेल को सौंप दिया और जिसे उस अंग्रेज फौजी अधिकारी ने बाद में अपने बेटों को तुम्हारी विप्लवी गाथा बताते हुए उनके हाथों में थमाया, उसे मैं इंग्लैंड से लाकर बरेली कालिज के किसी संग्रह में रखूँ। पर इस कोशिश को मैंने सिर्फ इसलिए तर्क कर दिया कि जो शिक्षा संस्थान अंग्रेज गवर्नर लाटूश को  सोने के काम से लिखकर दिया गया अपना खोया हुआ इतिहास आस्ट्रेलिया के बर्गन दंपति के द्वारा सौंपने पर संभाल कर नहीं रख सका, जो गहरे सम्मान के साथ शहीद भगतसिंह के चाचा क्रांतिकारी अजीत सिंह (जो एक वर्ष यहां विधि के छात्र रहे) की भेंट कराई गई तस्वीर को अपनी इमारत की किसी दीवार पर कृतज्ञतामय जगह नहीं दे सका, वह तुम्हारी अंगूठी का संरक्षण क्या कर पाएगा ?
अस्तु, अब यह पत्र मैं समाप्त करता हूं। तुम्हारी सम्पूर्ण जीवनगाथा दर्ज करने बैठूं भी तो किसे फुर्सत है कि वह उसे बांच सके। ओ शहीद! मैं यह भी जानता हूं कि यह खत तुम्हारे पास तक किसी भी तरह नहीं पहुंच सकेगा। पर तुम्हारी शहादत का यादनामा मुझे चैन नहीं लेने दे रहा। सच ही इसे लिखने की मैं मूर्खता ही कर रहा हूं। पर मेरी ज़िंदगी इसी तरह की बीहड़ताओं और ऊलजुलूलताओं से भरी पड़ी है। प्रणाम तुम्हें!
.
.
लेखक क्रन्तिकारी इतिहास के अन्वेषक व विश्लेषक हैं|
सम्पर्क- +919760875491, vidyarthisandarsh@gmail.com
.
.
.
सबलोग को फेसबुक पर पढने के लिए लाइक करें|
कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments


डोनेट करें

जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
sablog.in



विज्ञापन

sablog.in






0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x