अंतरराष्ट्रीयसामयिक

फ़र्क़.. अलग अलग सोच का 

न्यूज़ीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा आरडेर्न आतंकी हमले के बाद सारे अपॉइंटमेंट रद्द कर बैठती हैं। प्रेस के सवालों के जवाब देती हैं और लोगों से धैर्य रखने की अपील कर रही हैं जबकि हत्यारा मानता है कि ये जो आप्रवासी मुसलमान और अन्य हमारे देश में आ रहे हैं ये हमारी ‘पहचान’ के लिए ख़तरे हैं।
 फ़र्क़.. अलग अलग सोच का है। एक सोच अमन, शांति और मानवता का पैरोकार है तो दूसरा, अपने देश में अप्रवासी लोगों का विरोधी और दाढ़ी टोपी वाले आतंकियों का बदला मुसलमान क़ौम से लेने वाला है।
यह देखकर ताज्जुब हुआ कि कुछ लोगों द्वारा ‘न्यूज़ीलैंड की मस्जिद में नमाज़ पढ़ रहे लोगों के क़त्लेआम की ख़बर को फेसबुक पर अपलोड करके खुशियाँ मनाई जा रहीं हैं। ऐसा करने वाले लोगों को आप अनपढ़ या नासमझ नहीं कह सकते। यह पढ़े लिखे लोग हैं, जिनमें अधिकांश युवा हैं लेकिन प्रौढ़ भी कम नहीं हैं। ये नौकरी करते हैं, इनका घर परिवार है, मासूम बच्चे भी हैं, लेकिन इन्होनें सीखा है और इन्हें सिखाया गया है कि तुम हिन्दू हो, मुसलमान हो,ईसाई हो..वग़ैरह..वग़ैरह.. उसके बाद इंसान हो। इसलिए इनके लिए खून का रंग भी अलग अलग धर्म जातियों में बटा हुआ है। सोचें इन घटनाओं पर ख़ुशियां मनाने के बाद आप अपने पीछे आने वाली नस्लों के लिए क्या छोड़कर जाना चाहते हैं ??
 सिर्फ़ और सिर्फ़ नफ़रत.. खंडहर..सन्नाटा..अवसाद..इससे ज़्यादा कुछ नहीं।
हिटलर भी सब कुछ बदल देना चाहता था यहूदियों को दुनिया से मिटाकर..जैसे फिल्वक़्त कुछ लोग बदल देना चाहते हैं मुसलमानों को दुनिया से मिटाकर। लाखों लोगों को साथ लेकर चलने वाले हिटलर की मौत के सिर्फ़ चार साल बाद ही उसके बंकरों में..मकबरे में..सन्नाटा पसरा हुआ था। लाखों अनुयायी होने के बाद भी उसकी मौत के बाद कोई भी उसको श्रद्धांजलि  देने नहीं आया। हिटलर बहुत बड़ी ताक़त रखता था लेकिन यह नहीं जानता था कि ‘बंदूक़ से इंसान को मारा जा सकता है सभ्यताओं को नहीं।’
अपने यहाँ की एक हृदयविदारक घटना और उसके बेहद मार्मिक पक्ष की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। मुंबई में जो पुल गिरा उसमें छह लोग मारे गए और 31 घायल हुए। मगर बचने वालों में एक साठ साल के बुज़ुर्ग सिराज ख़ान हैं। उनकी जान बचाने के लिए उनके 32 साल के बेटे ने उन्हें  धक्का दे दिया, ताकि वो नीचे गिरने से बच जाएं। लेकिन इस कारण बेटे ज़ाहिद की जान चली गई। ज़रा सोचें कि उस युवा को पहले अपने पिता की जान का ख़्याल आया, अपना नहीं, जबकि जान उसकी भी ख़तरे में थी और यह भी सोचें कि उस पिता को चोटें तो लगीं लेकिन वो बच गए और उनका बेटा चला गया। इस तकलीफ़ को सहना और जीना उस पिता के लिए कितना कठिन होगा, कितना कठिन!
दिल दहल उठता है ये सोचकर, और वैसे बेटे की तरफ़ से भी सोचें, जो ख़ुद को बचाने के लिए अपने बाप को मरने देता! फ़र्क़.. अलग अलग सोच का है।
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अब्दुल ग़फ़्फ़ार

लेखक कहानीकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं, तथा लेखन के कार्य में लगभग 20 वर्षों से सक्रिय हैं। सम्पर्क +919122437788, gaffar607@gmail.com
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