यह समय पुरानी राजनीति के टूटने और नई राजनीति के बनने का है। पुरानी संरचनाएं और सहमतियाँ टूट रही हैं। उनकी जगह बेहतर राजनीति नहीं ले पा रही है। इसलिए कुंठा, डर, हिंसा जैसे अहसास जनता पर ज्यादा तारी होते जा रहे हैं। अर्थव्यवस्था और लोकतांत्रिक राजनीति के संकट बेहतर दिशा में हल नहीं हो पाने की वजह से ही रूढ़िवादी ताकतें मजबूत हो रही हैं।
हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या यही है कि पूँजीवाद जो दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक प्रणाली है और जिसने 90 के दशक के बाद वैकल्पिक प्रयासों को हराते हुए अपने अपराजित होने की छवि रची थी, वह आज गहरे संकट में है। संसदीय या प्रतिनिधि लोकतन्त्र जिन उदारवादी नागरिक मूल्यों के ऊपर खड़ा हो सका था, उन्हें एक समय उभरते पूँजीवाद ने ही पोसा था। जब से पूँजीवाद नवउदारवादी दौर में पहुंचा है, वह पहले की सर्वसम्मतियों जैसे कि कल्याणकारी राज्य, नागरिक अधिकार आदि से पीछे हट रहा है। नवउदारवाद ने भूमंडलीकरण का एक नया विमर्श गढ़ा था, जिसके सहारे उसने पुरानी सर्वसम्मति को कमजोर करते हुए राज्य की जिम्मेदारियों और संविधानों के प्रति उसकी निष्ठा को कमजोर कर दिया था।
2008 के बाद शुरू हुए अभूतपूर्व आर्थिक संकट के बाद धीरे-धीरे भूमण्डलीकरण का अवसान होना शुरू हुआ। जो अमेरिका और यूरोपीय देश भूमंडलीकरण के चैंपियन बने हुए थे, वे अब संरक्षणवादी आर्थिक नीतियों और राष्ट्रवादी विमर्श की शरण में जाते दिख रहे हैं। पूँजीवाद नाकाम हो रहा है, मगर लोगों को कोई उत्तर-पूंजीवादी ठोस विकल्प नहीं मिल पा रहा है। वहीं डिजिटलटेक्नोलॉजी के अभूतपूर्व जन-फैलाव के चलते विकास की आकांक्षा कम नहीं हुई बल्कि बढ़ी है। इससे एक किस्म की कुंठा व नाराजी पैदा हो रही है।
पूंजीवाद लोगों की अपेक्षाओं और राष्ट्रों के विकास लक्ष्यों को जरूर पूरा नहीं कर पा रहा है, मगर मुट्ठी भर बड़े पूंजीपतियों के हाथ में धन व संपदा का संक्रेंद्रण बढ़ रहा है। डिजिटल मंचों पर विकास के लहराते सपनों से रूबरू होने वाले लोग आर्थिक मुश्किलों का सामना भी कर रहे हैं। मगर वे संगठित विरोध नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें इसी इंटरनेट व सोशल मीडिया के जरिए बरगलाया व बहलाया जा रहा है।
नवउदारवादी पूँजीवाद को इस बात का गहरा अहसास है कि जनता का असन्तोष उसे ले डूब सकता है और नये किस्म की समाजवादी राजनीति सामने आ सकती है। नवउदारवाद को इस संकट से निकलने का एक रास्ता सामाजिक व राजनीतिक रूढ़िवाद ने मुहैया कराया है। दुनिया भर में सामाजिक पहचान या अस्मिताओं की राजनीति बहुत महत्त्वपूर्ण हो गई है। नवउदारवाद ने दुनिया भर में बहुसंख्यकवाद पर अपना दांव लगाया है।जातीयता या धर्म पर आधारितबहुसंख्यकवाद को दूसरी जातीयताओं व धर्मों के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है।
भारत में भी यही हो रहा है। भाजपा की अगुवाई में राजग सरकार का मुख्य एजेंडा अपने यार पूंजीपतियों को देश की सार्वजनिक परिसंपत्ति पर कब्जा दिलवाना है। इसमें रक्षा, रेल्वे, इस्पात, संचार आदि तमाम सार्वजनिक क्षेत्र के उपकरण शामिल हैं। दूसरा लक्ष्य तमाम नियम-कायदों को शिथिल कर चंदपूँजीपतियों को फायदा दिलवाना है। यह इस स्तर तक है कि इसने देश की आर्थिक व्यवस्था पर ही कुठाराघात कर दिया है। देश की अर्थव्यवस्था करीब-करीब हर सूचकांक के हवाले से रसातल की तरफ अग्रसर है। मगर यार पूंजीपति मजे में हैं।
सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन और उससे बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, बैंकों के डूबने, एलआईसी जैसी प्रतिष्ठापूर्ण संस्थाओं की साख पर चोट पहुँचने के बावजूद जनता का गुस्सा उसके खिलाफ नहीं उभर पा रहा है तो उसकी वजह हिन्दू समुदाय के लिए की जा रही घृणा की अबाध आपूर्ति है। सालों से हिन्दू समुदाय में जिस पैमाने पर इस्लाम-द्वेष घोला जा रहा था, उसे अब रिपब्लिक जैसे मीडिया व आईटी सेल जैसे नवाचारों के जरिए एक बड़े जन अभियान में बदल दिया गया है।
सत्तर-अस्सी के दशक में जब आक्रोश शब्द का इस्तेमाल होता था तो उसका संदर्भ अकसर यह होता था कि वंचित या कमजोर तबके के पक्षधरों में सत्ता के खिलाफ गुस्सा इकट्ठा हो रहा है। उस दौर में आक्रोश और अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है जैसी फिल्में भी आई थीं। मगर आज एक बड़ा अजीब दौर है। नब्बे के दशक व नई सदी के पहले दशक में नवउदारवाद मध्यवर्गियों के बीच उपभोक्तावाद, कैरियरवाद और सूचना व मनोरंजन टेक्नोलॉजी के जरिए जनमुद्दों से दूरी की विचारधारा को प्रस्थापित करने में सफल रहा। छात्र आन्दोलन धीमे हो गए। मीडिया ने जनसरोकारों से निश्चित दूरी बना ली। जनपक्षधर बुद्धिजीवी होना चलन में कम हुआ।
दुनिया में नवउदारवाद जब अपने चेहरे पर ढंका भूमंडलीकरण का मुखौटा उतार ही रहा था, उसी समय भारत में भाजपा ने सत्ता पर काबिज होकर एक तरफ नवउदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाने का काम शुरू किया, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यकवाद को काफी आक्रामक ढंग से परोसा जाने लगा। सत्ता पक्ष ने स्वयं आक्रामकता, गुस्से से अपनी बातों को कहना शुरू किया। विपक्ष पर ही नहीं, आन्दोलनरत जनता के किसी भी समूह पर झूठे आक्षेप और आरोप जड़ने और फिर उसे सोशल मीडिया के जरिए फैलाने का काम शुरू हुआ। टुकड़े-टुकड़े गैंग, अवार्ड वापसी गैंग, देशद्रोही जैसे कई नाम रचे गए।
बहुसंख्यकवाद और इसके ज्यादा फासीवादी संस्करण हमेशा ही आक्रामक होते हैं। ये पहचान पर आधारित नाराजियाँ, गुस्सा और नए किस्म के डर पैदा करते हैं। या तो तुम हमारे साथ हो या देश के विरोधी हो, जैसी अलोकतांत्रिक युक्तियाँ पैदा करते हैं। ऐसे समय में जो लोकतांत्रिक व संवैधानिक राजनीति के पक्षधर हैं, उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यही होता है कि वे कौन सी राजनीति करें, आक्रोश की या शांति, विवेक व समझदारी की।
आज भारत में यह स्थिति है कि सरकार के चंद यार पूंजीपतियों की बल्ले-बल्ले के बावजूद आर्थिक ढांचा चरमरा रहा है। वहीं संसदीय लोकतन्त्र की अभी तक चली आ रही परिपाटियों व सहमतियों से सरकार के धीरे-धीरे मुंह चुराने के कारण कुलमिलाकर समाज में लोकतन्त्र की जगह सिकुड़ रही है। मगर समय जन आकांक्षाएं भी बढ़ रही हैं। धैर्य चुक रहा है। इसी रस्साकशी के बीच तानाशाही प्रवृत्तियाँ लोकतन्त्र का मुकाबला लोकलुभावनवाद और बहुसंख्यकवादी घृणा की राजनीति के जरिए कर रही है।
इसी दौर में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ छात्रों का एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है, वही देश भर में एक नए किस्म का नागरिक आन्दोलन शुरू हुआ है। जो संविधान व लोकतन्त्र बौद्धिक विमर्शों में सिमटता जा रहा था, वह सड़कों में आ खड़ा हुआ है। इसे सिर्फ आक्रोश नहीं कहा जा सकता। शुरू में इसमें आक्रोश का रूप हो भी तो इसका भविष्य तभी है, जब यह गांधी के सिविल नाफरमानी आन्दोलन के सिर्फ रूप से ही नहीं बल्कि उसके अहिंसा, समझ, विवेक, भाईचारे आदि के कथ्य से भी खुद को जोड़ेगा।
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