मुद्दा

राजनीति का कॉरपोरेटीकरण

 

वर्तमान कॉरपोरेट्स व्यवस्था अब पुराने पूँजीवादी दौर की पर्देदारी से निकल कर क्रोनी कैपिटलिज़्म के दौर में प्रवेश कर खुलकर सामने आ गयी है। दुनिया भर में पिछले 50-60 सालों में जो प्राकृतिक संसाधनों का मुक्त भाव से मानव समाज के लिये इस्तेमाल व अर्थव्यवस्था के विकास के लिए दोहन हुआ है उसने संसाधनों को इस शताब्दी में ही ख़त्म होने के कगार पर पहुँचा दिया है। प्राकृतिक संसाधनों की सीमितता ने उनपर नियन्त्रण की प्रवृत्ति को पहले की तुलना में काफ़ी बढ़ा दिया है। देशों की सरकारें अपनी नीतियाँ इन उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखकर ही बनाती हैं, जनता महज उनके भाषणों और घोषणापत्रों के केन्द्र में रहती है। 

देश और दुनिया के संसाधनों पर अधिकाधिक नियन्त्रण के लिये जरूरी है कि सरकारों की शक्तियों का केन्द्रीकरण हो ताकि नियन्त्रण में सुविधा हो क्योंकि शक्तियों का विकेन्द्रीकरण विश्व कॉरपोरेट्स के हित साधन में बाधा खड़ी करता है। 

इसी सन्दर्भ में अगर हम वर्तमान राजनीतिक विश्व परिदृश्य पर नज़र डालें तो पाएँगे कि दुनिया भर में एकतन्त्रीय शासन व्यवस्था का प्रचलन बढ़ रहा है। हंगरी, रूस, इज़रायल, मिस्र, ब्राज़ील, फिलीपींस, भारत ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्हें देख कर कहा जा सकता है कि दुनिया के अलग अलग देशों में ऐसे लोकप्रिय (या लोकलुभावन कहना ज़्यादा उचित होगा) नेताओं का उदय हुआ है जो चुनावों के जरिये ही लम्बे समय तक लगातार सत्ता पर काबिज़ हैं या बने रहना चाहते हैं। चुनावी एकतन्त्र , एक ऐसी शासन व्यवस्था जहाँ सर्वोच्च शक्ति एक व्यक्ति के हाथों में केन्द्रित होती नजर आती है, जिसमें लोकतान्त्रिक संस्थाएँ अनुकरणशील होती हैं और सत्तावादी तरीक़ों का पालन करती हैं, मीडिया की स्वतन्त्रता लगभग ख़त्म कर दी जाती है, ताकि वह जनसरोकार के सवाल शासन से न कर सके।

राजनीतिक दमन के जरिये विपक्ष को कमज़ोर किया जाता है और भले ही चुनाव नियमित होते हैं मगर उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध हो जाती है, उनपर स्वतन्त्रता और निष्पक्षता के लोकतान्त्रिक मानकों तक पहुँचने में विफल रहने का आरोप लगाया जाता है। इसके अलावा ऐसे शासक राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक बहुलवाद को नकारते हैं और किसी एक जन समूह के प्रति पक्षपात करते नज़र आते हैं जिससे जनता के भीतर ही आपसी संघर्ष और मनमुटाव की स्थिति बनी रहे और वे अपने अधिकारों और हितों के प्रति लगातार ग़ैर जागरूक रहें। 

कुछ विश्व प्रसिद्ध स्वतन्त्र संस्थाएँ हर साल लोकतान्त्रिक मूल्यों और मापदण्डों को आधार बनाकर दुनिया भर से डेटा इकट्ठा करती है और अलग अलग देशों के लोकतान्त्रिक सूचकांक प्रकाशित करती हैं। ऐसी ही एक संस्था वी-डेम (वेरैटीज ऑफ़ डेमोक्रेसी), जो कि स्वीडन में स्थित है, ये संस्था लोकतन्त्र के पाँच उच्च स्तरीय लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों यथा चुनाव, उदारता, भागीदारी, विचारशीलता, और समतावाद के आधार पर किसी देश के लोकतन्त्र की गुणवत्ता का मूल्यांकन करती है तथा लोकतन्त्र सूचकांक को 4 श्रेणियों में विभाजित करती है। उदार लोकतन्त्र, चुनावी लोकतन्त्र, चुनावी एकतन्त्र (चुनावी तानाशाही) और पूर्ण तानाशाही। 

 इस संस्था द्वारा 2024 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशकों में दुनिया में लोकतन्त्र की स्थिति में सबसे अधिक गिरावट आयी है और निरंकुशता की प्रवृत्ति बढ़ी है। 10 साल पहले की तुलना में आज किसी प्रकार के निरंकुश शासन में रहने वाली जनसंख्या में क़रीब 48% की बढ़ोतरी हुई है। विश्व की 71% जनसंख्या किसी प्रकार के निरंकुश शासन में रह रही है जिसमें चुनावी एकतन्त्रीय शासन में रहने वालों का प्रतिशत 44% है, वहीं महज 29% विश्व की जनसंख्या ही लोकतान्त्रिक देशों में रह रही है। 

रिपोर्ट कहती है कि लोकतन्त्र के जिन घटकों को सबसे अधिक धक्का पहुँचा है उसमें पहले नम्बर पर है लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता, उसके बाद बारी आती है चुनावों की स्वच्छता और निष्पक्षता की, और तीसरा घटक है संघ या समुदाय निर्माण की स्वतन्त्रता और अधिकार। संघ निर्माण की स्वतन्त्रता यानी व्यक्ति को स्वतन्त्रता है कि वह अपनी पसन्द के समूहों के साथ जुड़ सके, संगठनों का निर्माण कर सके, सहकारी समितियाँ बना सके। संघ अथवा यूनियन की स्वतन्त्रता सरकार के अलावा सत्ता और संगठन के बहुलवादी स्रोतों को मान्यता देती है। भारत का संविधान अनुच्छेद 19 में यह स्वतन्त्रता नागरिकों को देता है। 

इस रिपोर्ट में भारत को दुनिया की सबसे ख़राब चुनावी निरंकुश शासन व्यवस्था करार दिया गया है। उदार लोकतान्त्रिक सूचकांक पर 179 देशों में भारत 104 वें पायदान पर है।

इसी तरह एक अन्य लोकप्रिय और प्रसिद्ध संस्था है- ईयूआई (द इकोनोमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट) ये संस्था ब्रिटेन में स्थित है, किसी देश की लोकतान्त्रिक गुणवत्ता के मूल्यांकन के लिये यह उसे पाँच लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों यथा चुनावी प्रक्रिया और बहुलवाद, सरकार के कामकाज, राजनीतिक भागीदारी, राजनीतिक संस्कृति और नागरिक स्वतन्त्रता के मापदण्डों पर परखती है और लोकतान्त्रिक सूचकांकों को चार श्रेणियों में विभाजित करती है- पूर्ण लोकतन्त्र, दोषपूर्ण लोकतन्त्र ,   हाइब्रिड शासन और  अधिनायकवादी शासन। इस संस्था की रिपोर्ट के अनुसार भी दुनिया भर में पिछले कुछ सालों में लोकतन्त्र की स्थिति में अवमूल्यन हुआ है, इस वक़्त विश्व जनसंख्या के मात्र 7.8% लोग पूर्ण लोकतन्त्र में रह रहे हैं, 37.6% दोषपूर्ण लोकतन्त्र में, 15.2% हाइब्रिड शासन में (जहाँ अधिकनायकवाद कुछ लोकतान्त्रिक घटकों के साथ लागू रहता है) और 39.4% जनसंख्या तानाशाही शासन में रहती है। इस संस्था ने भारत को दोषपूर्ण लोकतन्त्र की श्रेणी में रखा है। 

2014 से ईयूआई ने क्रोनी कैपिटलिज़्म सूचकांक की शुरुआत भी की, यह देखने के लिए कि दुनिया के ऐसे चुनिंदा व्यापारिक टाइकूनों के पास कितनी पूँजी संकेन्द्रित है जो कि राज्य के करीब माने जाते हैं। इस सूचकांक की गणना के लिये 2023 में विश्व के 43 ऐसे देशों को जाँचा गया जिनकी जीडीपी 250 बिलियन डॉलर से ऊपर है। भारत इस सूचकांक में 10 वें पायदान पर है। रिपोर्ट के अनुसार पिछले दस सालों में क्रोनी कैपिटलिज़्म सेक्टर की पूँजी में भारत की कुल जीडीपी के 5 प्रतिशत से 8 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है। 

भारत सरकार द्वारा पिछले दशक में महज एक या दो औद्योगिक घरानों को जिस प्रकार और जिस तादाद में राष्ट्रीय सम्पदा सौंपी गयी वह क्रोनी पूँजीवाद का ज़ाहिरी नमूना है। व्यापारिक ठेकों के लिये न सिर्फ़ राष्ट्रीय उपक्रमों की दावेदारी को दरकिनार किया गया बल्कि लोकतान्त्रिक संस्थाओं जैसे ईडी, सीबीआई के बल पर अन्य दावेदार व्यापारिक कम्पनियों पर कार्रवाई कर सैन्य, इंफ्रास्ट्रक्चर व सर्विस सेक्टर के महत्वपूर्ण ठेके भी उन्ही मनचाहे औद्योगिक घरानों के हवाले किये गए। इसके अलावा हाल ही में एलोक्ट्रोल बौंड के खुलासे ने भी ये और स्पष्ट कर दिया कि किस प्रकार वर्तमान सरकार ने इन बॉन्ड्स को व्यापारिक ठेके देने के लिए रिश्वत के तौर पर इस्तेमाल किया और ईडी, सीबीआई की कार्रवाई की धमकी देकर कम्पनियों से जबरन वसूली की। देश के सुप्रीम कोर्ट ने सत्तापार्टी को अकूत लाभ पहुँचाने वाली इस एलोक्ट्रोल बौंड योजना को अन्ततः असंवैधानिक घोषित कर दिया।

एकतरफ जहाँ भारत का मीडिया इन सब मुद्दों पर चुप्पी साधे है, सोशल मीडिया पर भी अब स्वतन्त्र विचाराभिव्यक्ति सम्भव नही रह गयी है, नागरिकों की व्यक्तिगत अभिरुचियों खान पान, पहनावा, धार्मिक क्रियाकलापों की स्वतन्त्रता पर भी शिकंजा कसा जा रहा है।

बाबा साहब अम्बेडकर ने संविधान सभा के अपने अन्तिम भाषण में कहा था कि संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो अगर देश ग़लत लोगों के हाथ में हुआ तो यह बुरा साबित होगा। भारत में विश्व के अन्य देशों की तुलना में भक्ति और नायक पूजन की परम्परा अधिक है, अगर यही परम्परा राजनीति में लागू की गयी तो पक्के तौर पर तानाशाही का मार्ग प्रशस्त करेगी। लोकतन्त्र के लिये स्वतन्त्रता के साथ समानता और बन्धुत्व भी उतना ही ज़रूरी है, समाजिक समानता और सामाजिक लोकतन्त्र के बिना राजनीतिक लोकतन्त्र भी सम्भव नहीं।

इस साल यूरोपियन यूनियन सहित कम से कम 64 देशों में चुनाव हुए हैं या होने जा रहे हैं; जिनमें भारत सहित रूस, अमेंरिका, फ्रांस जैसे बड़े देश शामिल हैं। देश और दुनिया की जनता को इस साल अपना भविष्य चुनना है। न सिर्फ़ जनता पर यह जिम्मेदारी आ जाती है कि वह अपने भीतर नागरिक बोध पैदा करे, अपने हित और अधिकारों के लिये जागरूक रहे, प्रजा बनने से इनकार करे, बल्कि अपने मतदान के जरिये राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाए कि वे लोक हित में काम करें, यह कहना ग़लत न होगा कि देश दुनिया में स्वतन्त्र, उदार एवं लोकहितकारी तन्त्र बनाए रखने और अपने आस्तित्व के लिये प्रकृति-पर्यावरण को बचाए रखने का उत्तरदायित्व अन्तिम तौर पर विश्व नागरिकों पर ही है

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कनुप्रिया

लेखिका स्त्रीकाल से सम्बद्ध, पेशे से इंजीनियर और सामाजिक एवं राजनीतिक टिप्पणीकार हैं। सम्पर्क +919278229495, ekanupriya@gmail.com
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