शख्सियत

आजाद भारत के असली सितारे -6

 

हरित क्रान्ति के जनक प्रो. एम.एस.स्वामीनाथन

 

 देश को आजादी मिलने से पहले 1943 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था, जिसमें लगभग तीस लाख लोगों की मौत भूख से हुई थी। यद्यपि इसके पीछे मुख्यत: ब्रिटिश हूकूमत जिम्मेदार थी, फिर भी यदि देश के पास पर्याप्त अन्न भण्डार होता तो इतनी मौतें नहीं होतीँ।

भारत गाँवों का देश है और यहाँ की बहुसंख्यक आबादी कृषि के साथ जुड़ी हुई है। इसके बावजूद यहाँ कृषि पर निर्भर जनता बड़ी संख्या में भुखमरी से जूझती रही है। यहाँ बार- बार अकाल भी पड़ते थे और लोग भूखों मरते थे। लोग मान चुके थे कि इस देश में भुखमरी से निजात पाना कठिन है। इसलिए आजादी के बाद देश के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “बाकी सभी चीजों के लिए इन्तजार किया जा सकता है, लेकिन कृषि के लिए नहीं।” उस समय हमारे देश की आबादी 30 करोड़ से कुछ अधिक थी। सन 1947 में किसी शादी-ब्याह में 30 से ज्यादा लोगों को नहीं खिलाया जा सकता था, जबकि आज तो जितना पैसा हो, उतने लोगों को दावत दी जा सकती है। आज सरकारी गोदामों में वर्षों के लिए सुरक्षित गेहूँ और चावल का भण्डार मौजूद है। इस गुणात्मक परिवर्तन के सूत्रधार हैं हरित क्रान्ति के जनक प्रो. एम.एस.स्वामीनाथन।आज ही के दिन जन्‍मे थे हरित क्रांति ...

प्रो.एम.एस.स्वामीनाथन का पूरा नाम है मोनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन। उनका जन्म 7 अगस्त 1925 को तमिलनाडु के कुंभकोणम जिले में हुआ था। उनके पिता डॉक्टर थे। जब स्वामीनाथन मात्र 10 वर्ष के थे तभी पिता का निधन हो गया। इस आघात के बावजूद स्वामीनाथन ने अपनी पढाई जारी रखी। 1944 में उन्होंने त्रावणकोर विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. की डिग्री हासिल की। प्रारम्भ से ही उनकी रुचि कृषि में थी। 1947 में उन्होंने कोयम्बटूर कृषि कॉलेज से कृषि में भी बी.एस-सी की डिग्री हासिल की। 1949 में उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान के जेनेटिक्स तथा प्लांट रीडिंग विभाग में एशोसियोट्शिप मिल गयी। उन्होंने अपने बेहतरीन काम से सभी को प्रभावित किया और 1952 में उन्हें कैम्ब्रिज स्थित कृषि स्कूल में आलू पर पी-एच.डी. करने का अवसर मिल गया।

स्वामीनाथन पढ़ाई के साथ-साथ काम भी करते थे। उन्होने नीदरलैण्ड के विश्वविद्यालय में जेनेटिक्स विभाग में यूनेस्को फैलो के रूप में 1949 – 50 में काम किया। 1952 से 1953 तक उन्होंने अमेरीका स्थित विस्कोसिन विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स विभाग में रिसर्च एशोसिएट के रूप में काम किया। विभिन्न जगहों पर छोटी-छोटी नौकरी करने के कारण स्वामीनाथन परेशान हो चुके थे। अब वे ऐसी नौकरी चाहते थे जिसको करते हुए अपना पूरा ध्यान शोध कार्य में लगा सकें।

स्वामीनाथन भारत आ गये। 1954 से 1972 तक उन्होंने कटक तथा पूसा स्थित प्रतिष्ठित कृषि संस्थानो में गंभीर शोध कार्य एवं अध्यापन किया।  1965 में स्वामीनाथन को कोशा स्थित संस्थान में नौकरी मिल गयी थी। यहाँ उन्हे गेहूँ पर शोध कार्य का दायित्व सौंपा गया था। साथ ही साथ चावल पर भी उनका शोध चलता रहा। यहाँ के वनस्पति विभाग में किरणों के विकिरण की सहायता से उन्होंने परीक्षण प्रारम्भ किया और गेहूँ की अनेक किस्में विकसित कीं। अनेक वैज्ञानिक पहले आशंका व्यक्त कर रहे थे कि एटमी किरणों के सहारे गेहूँ पर शोध कार्य नही हो सकता पर स्वामीनाथन ने उन्हे गलत साबित कर दिया।BJP के 'दलित कार्ड' पर कांग्रेस का ...

 इस अवधि में उन्होने शोध कार्य के साथ साथ अध्यापन भी किया और प्रशासनिक दायित्व भी निभाया। अपने कार्यों से उन्होंने सभी को प्रभावित किया फलस्वरूप भारत सरकार ने 1972 में उन्हें भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का महानिदेशक नियुक्त किया और इसके साथ ही उन्हें भारत सरकार में सचिव भी नियुक्त किया गया। इस अवधि में किए गये अपने संघर्षों और उपलब्धियों के बारे में प्रो. स्वामीनाथन से स्वयं विस्तार से लिखा है। वे लिखते हैं,

“1947 में हमारी जमीन भूखी भी थी और प्यासी भी। उस समय खेती के मुश्किल से 10 फीसदी क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा थी और नाइट्रोजन-फास्फोरस-पोटेशियम (एनपीके) उर्वरकों का औसत इस्तेमाल एक किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम था। गेहूँ और धान की औसत पैदावार आठ किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के आसपास थी। खनिज उर्वरकों का उपयोग ज्यादातर रोपण फसलों में किया जाता था। खाद्यान्न फसलों में किसान जितनी भी देशी खाद जुटा पाते थे, डाल देते थे। पहली दो पंचवर्षीय योजनाओं (1950-60) में सिंचित क्षेत्र के विस्तार व उर्वरकों का उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया। पचास के दशक में वैज्ञानिकों ने धान और गेहूँ की किस्मों पर उर्वरकों के असर को जानने के लिए प्रयोग करने शुरू कर दिये थे। उस समय बोयी जानी वाली किस्में लम्बी और पतली पयाल वाली होती थीं। थोड़ा भी उर्वरक डालने से फसल गिर जाती थी। जल्द ही साफ हो गया कि खाद-पानी का फायदा उठाने के लिए हमें बौनी और कड़े पयाल वाली किस्मों की जरूरत है।

यही वजह थी कि प्रख्यात धान वैज्ञानिक के. रमैया ने 1950 में सुझाव दिया कि हमें जापान से लाई गयी धान की किस्‍मों को अपनी देशी किस्‍मों के साथ मिलाना चाहिए। क्योंकि उस समय धान की जापानी किस्‍में प्रति हेक्टेयर पाँच टन से भी ज्यादा पैदावार देती थीं, जबकि हमारी किस्मों की पैदावार एक से दो टन प्रति हेक्टेयर थी। इस तरह पचास के दशक की शुरुआत में कटक के सेंट्रल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट में भारत-जापान धान संकरण कार्यक्रम की शुरुआत हुई। सन 1954 में थोड़े समय के लिए मैं भी इस कार्यक्रम से जुड़ा रहा। लेकिन साठ के दशक में फिलीपींस के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट और ताइवान से धान की अर्ध-बौनी किस्में विकसित करने के लिए जीन उपलब्ध होने के बाद यह कार्यक्रम अपनी प्राथमिकता खो बैठा।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी वैज्ञानिक जापान में कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र में हुई उल्लेखनीय खोजों की जाँच-पड़ताल में लगे थे। सोलोमन नाम के एक जीव विज्ञानी, नोरीन एक्सपेरिमेंट स्टेशन में गोंजिरो इनाजुका द्वारा विकसित गेहूँ की अर्ध-बौनी किस्‍म देखकर मंत्रमुग्ध हो गये थे। यह किस्म छोटी और मजबूत पयाल वाली थी, लेकिन पुष्प-गुच्छ लम्बे होने से ज्यादा पैदावार की क्षमता रखती थी। सोलोमन ने नोरीन गेहूँ के बीज वाशिंगटन स्टेट यूनिवर्सिटी के ओरविले वोगल को दिये, जिन्होंने शीतकालीन गेहूँ की अर्ध-बौनी गेंस किस्म विकसित की थी, जिसमें प्रति हेक्टेयर 10 टन से ज्यादा पैदावार की क्षमता थी।25 march history : 25 मार्च: हरित क्रांति के ...

उस समय मैक्सिको में काम कर रहे नॉर्मन बोरलॉग ने ओरविले वोगल से कुछ बीज लिये, जिनमें नोरीन के बौने गेहूँ वाले जीन मौजूद थे। इस तरह बोरलॉग ने मैक्सिको के प्रसिद्ध ‘बौना गेहूँ प्रजनन कार्यक्रम’ की शुरुआत की। अमेरिका के शीतकालीन गेहूँ हमारी जलवायु में अच्छा परिणाम नहीं देते हैं। जबकि बोरलॉग की सामग्री हमारे रबी सीजन के लिए उपयुक्त थी। इसलिए सन 1959 में मैंने बोरलॉग से सम्पर्क किया और उनसे अर्ध-बौने गेहूँ की प्रजनन सामग्री देने को कहा। लेकिन वे पहले हमारी खेती की दशाओं को देखना चाहते थे। उनका भारत दौरा मार्च, 1963 में सम्भव हो पाया। उसी साल रबी सीजन में हमने उनकी सामग्री का उत्तर भारत में कई जगहों पर परीक्षण किया। इन परीक्षणों से हमें पता चला कि मैक्सिको मूल के अर्ध बौने गेहूँ प्रति हेक्टेयर 4 से 5 टन पैदावार दे सकते हैं, जबकि हमारी लम्बी किस्में करीब दो टन पैदावार देती थीं। खेती की तकदीर बदलने का सामान हमें मिल चुका था।

जुलाई 1964 में जब सी. सुब्रह्मण्यम देश के खाद्य एवं कृषि मन्त्री बने तो उन्होंने सिंचाई और खनिज उर्वरकों के साथ-साथ ज्यादा पैदावार वाली किस्मों के विस्तार को अपना भरपूर समर्थन दिया। तत्कालीन प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री ने मैक्सिको से गेहूँ के बीजों के आयात की मंजूरी दी और इसे ‘समय की माँग’ करार दिया। इन सभी प्रयासों के चलते बौने गेहूँ का क्षेत्र 1964 में महज 4 हेक्टेयर से बढ़कर 1970 में 40 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गया। सन 1968 में हमारे किसानों ने रिकॉर्ड 170 लाख टन गेहूँ का उत्पादन किया, जबकि इससे पहले सर्वाधिक 120 लाख टन उत्पादन 1964 में हुआ था। पैदावार और उत्पादन में आए इस उछाल को देखते हुए जुलाई, 1968 में इंदिरा गाँधी ने गेहूँ क्रान्ति के आगाज का ऐलान कर दिया।

गेहूँ और धान की पैदावार में बढ़ोतरी के साथ-साथ हमारे वैज्ञानिकों ने रॉकफेलर फाउंडेशन के साथ मिलकर मक्का, ज्वार और बाजरे की संकर किस्में तैयार कीं, जिन्होंने इन फसलों की पैदावार और उत्पादन में बढ़ोतरी के नए रास्ते खोल दिए। इसी से प्रेरित होकर भारत सरकार ने 1967 में गेहूँ, धान, मक्का, बाजरा और ज्वार में उच्च उपज वाली किस्मों का कार्यक्रम शुरू किया। स्वतन्त्र भारत में पहली बार किसानों में पैदावार को लेकर जागरूकता आई। परिणाम यह हुआ कि किसानों ने ऐसा क्लब बनाया, जिसका सदस्य बनने के लिए खाद्यान्न का न्यूनतम निर्धारित उत्पादन करना जरूरी होता था। अक्टूबर, 1968 में अमेरिका के विलियम गुआड ने खाद्य फसलों की पैदावार में हमारी इस क्रान्तिकारी प्रगति को ‘हरित क्रान्ति’ का नाम दिया।हरित क्रांति के पर्यावरणीय ...

हरित क्रान्ति का अर्थ ऐसी स्थिति से है, जब अधिक उत्पादकता के जरिये उत्पादन में वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया जाए। हरित क्रान्ति के लिए सरकारी नीतियों, नयी तकनीक, सेवाओं और किसानों के उत्साह के बीच समन्वय होना जरूरी है। हमारे किसानों, खासकर पंजाब के किसानों ने एक छोटे से सरकारी कार्यक्रम को जन आन्दोलन में बदल दिया था। उनका उत्साह हरित क्रान्ति का प्रतीक बन गया।

खनिज उर्वरकों और रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल के जरिये पैदावार बढ़ाने वाली तकनीक पर्यावरण के लिए नुकसानदेह है, इस आधार पर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने हरित क्रान्ति की आलोचना की थी। इसी तरह कुछ अर्थशास्त्रियों को लगा कि छोटे व सीमांत किसान नयी तकनीक से अछूते रह जाएँगे। यही कारण था कि मैंने पर्यावरण को नुकसान पहुँचाए बगैर पैदावार में निरन्तर वृद्धि पर जोर देने के लिए ‘एवरग्रीन रिवाल्यूशन’ यानी ‘सदाबहार क्रान्ति’ की बात कही थी।

भविष्य की ओर देखें तो भारतीय कृषि की स्वर्णिम संभावना उत्पादन में वृद्धि की भारी गुंजाइश पर टिकी हैं। उदाहरण के तौर पर, फिलहाल चीन में खाद्यान्न की पैदावार 5,332 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है, जबकि भारत में यह 1,909 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। इस भारी अंतर को पाटने के लिए तुरन्त एक अभियान छिड़ना चाहिए। पर्यावरण और अर्थव्यवस्था भारतीय कृषि की चुनौतियां हैं। भूजल के अत्यधिक दोहन और खारापन बढ़ने की वजह से हरित क्रान्ति के गढ़ रहे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी आज भीषण पर्यावरण संकट झेल रहे हैं। अगर ग्लोबल वार्मिंग की वजह से औसत तापमान 1 से 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो उससे भी यह क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित होगा। पर्यावरण के खतरों से निपटने में जलवायु अनुरूप खेती कारगर साबित होगी।   

आज भी ग्रामीण भारत में 70 फीसदी आबादी 35 साल से कम उम्र के महिला-पुरुषों की है। एनएसएसओ का सर्वे बताता है कि अगर आजीविका का कोई दूसरा जरिया हो तो 45 फीसदी किसान खेती छोड़ना पसन्द करेंगे। नौजवानों को खेती की तरफ आकर्षित करना और उन्हें खेती में रोके रखना एक बड़ी चुनौती बना गया है। यही वजह है कि कृषि में तकनीकी सुधार और आजीविका के विभिन्न साधनों की अहमियत बढ़ जाती है। हमें खेती को आर्थिक रूप से फायदेमंद बनाना ही होगा। इसके लिए हमारे परम्परागत ज्ञान और पर्यावरण चेतना को जैव प्रौद्योगिकी, सूचना एवं संचार की अग्रणी तकनीकों से जोड़ने की आवश्यकता है।…………दाव पर हरित क्रांति – Sharma Enterprises

कुल मिलाकर भारतीय कृषि एक चौराहे पर है। वर्ष 2050 तक हमारी आबादी 1.75 करोड़ तक पहुँच जाएगी। तब प्रति व्यक्ति कृषि भूमि 0.089 हेक्टेयर होगी और प्रति व्यक्ति ताजे पानी की सालाना आपूर्ति 1190 घन मीटर रहेगी। हमारा खाद्यान्न उत्पादन दोगुना होना ही चाहिए जबकि सिंचाई का दायरा वर्तमान 6 करोड़ हेक्टेयर से बढ़कर साल 2050 तक 11.4 करोड़ हेक्टेयर तक बढ़ना चाहिए। खराब होती मृदा में भी सुधार जरूरी है। सवाल यही है कि सबके लिए पर्याप्त अन्न पैदा करने के लिए हम अपनी आबादी और क्षमताओं के बीच कैसे तालमेल बैठा पाते हैं?”

प्रो. स्वामीनाथन के नेतृत्व में दिल्ली में कई गाँव विकसित किये गये, जहाँ किसान सिर्फ बीज की पैदावार करते थे। इन किसानों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था। डॉ. स्वामीनाथन ने हर प्रकार के अनाजों पर शोध को बढ़ावा दिया। उन्होने अलसी की नयी किस्म अरुणा को जन्म दिया। उन्होंने ज्वार, जौ, पटसन आदि की भी नयी किस्में विकसित कीं।

डॉ. स्वामीनाथन के नेतृत्व में कृषि के क्षेत्र में क्रान्तिकारी अनुसंधान से भारत अनाज के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना। इंदिरा गाँधी ने इन पर एक डाक टिकट भी जारी किया। उन्हें अप्रैल 1979 में योजना आयोग का सदस्य बनाया गया। 1982 तक वे योजना आयोग में रहे। उनके कार्यों को हर जगह सराहा गया। अपने कार्यो की सफलता से प्रो. स्वामीनाथन को अंर्तराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई।

अन्न की आपूर्ति को भरोसेमंद बनाने और किसानों की दशा सुधारने के उद्देश्य से केन्द्र की सरकार ने स्वामीनाथन आयोग का गठन किया था जिसके प्रो. स्वामीनाथन अध्यक्ष थे। स्वामीनाथन आयोग का गठन 18 नवम्बर, 2004 को किया गया था।  इस आयोग ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 को सौंप दी लेकिन इस रिपोर्ट की सिफारिशें अभी तक लागू नहीं की गयीं।  किसान बार-बार आन्दोलनों के जरिए स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की माँग करते रहे हैं। 

जानिए क्या थी किसानों के लिए ...

स्वामीनाथन आयोग की प्रमुख सिफारिशें निम्न हैं-

  1. खेती से जुड़े रोजगार बढ़ाए जाने चाहिए। आयोग ने कहा है कि साल 1961 में कृषि से जुड़े रोजगार में 75 फीसदी लोग लगे थे जो कि 1999 से 2000 तक घटकर 59 फीसदी हो गया है। इसके साथ ही आयोग ने किसानों के लिए ‘नेट टेक होम इनकम’ को भी तय करने की बात कही है।
  2. आयोग ने अपनी सिफारिश में भूमि बंटवारे को लेकर चिन्ता जताई है। इसमें कहा गया है कि 1991-92 में 50 फीसदी ग्रामीण लोगों के पास देश की सिर्फ तीन फीसदी जमीन थी, जबकि कुछ लोगों के पास ज्यादा जमीन थी। इसके उचित वितरण की जरूरत है।
  3. सिंचाई व्यवस्था को लेकर भी आयोग ने गहरी चिन्ता जताई है और सलाह दी है कि सिंचाई के पानी की उपलब्धता सभी के पास होनी चाहिए। इसके साथ ही पानी की सप्लाई और वर्षा-जल के संचय पर भी जोर दिया गया है। आयोग ने पानी के स्तर को सुधारने पर जोर देने के साथ ही ‘कुआं शोध कार्यक्रम’ शुरू करने की बात भी कही है।
  4. आयोग ने बेकार पड़ी और अतिरिक्त जमीन की सीलिंग और बंटवारे की भी सिफारिश की है। इसके साथ ही खेतिहर जमीन के गैर कृषि इस्तेमाल पर भी चिन्ता जताई है। जंगलों और आदिवासियों को लेकर भी विशेष नियम बनाने की बात कही गयी है।
  5. आयोग का कहना है कि कृषि में सुधार की जरूरत है। इसमें लोगों की भूमिका को बढ़ाना होगा। इसके साथ ही आयोग ने कहा था कि कृषि से जुड़े सभी कामों में ‘जन सहभागिता’ की जरूरत बढ़ानी होगी, चाहे वह सिंचाई हो, जल-निकासी हो, भूमि सुधार हो, जल संरक्षण हो या फिर सड़कों और कनेक्टिविटी को बढ़ाने के साथ शोध से जुड़े काम हों।
  6. आयोग ने समान जन वितरण योजना की सिफारिश की है। साथ ही पंचायत की मदद से पोषण योजना को अन्तिम व्यक्ति तक पहुँचाने की भी बात कही है। इसके अलावा स्वयं सहायक समूह बनाकर खाद्य एवं जल बैंक बनाने की बात भी कही गयी है।
  7. आयोग का कहना है कि ऋण प्रणाली की पहुँच सभी तक होनी चाहिए। फसल बीमा की ब्याज-दर 4 फीसदी होनी चाहिए। कर्ज वसूली पर रोक लगाई जानी चाहिए। साथ ही कृषि- जोखिम फण्ड भी बनाने की बात आयोग ने की है। पूरे देश में फसल बीमा के साथ ही एक कार्ड में ही फसल भण्डारण और किसान के स्वास्थ्य को लेकर व्यवस्थाएँ की जानी चाहिए।
  8. वितरण प्रणाली में सुधार को लेकर भी आयोग ने सिफारिश की है। इसमें गाँव के स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पूरी व्यवस्था का खाका खींचा गया है। इसमें किसानों को फसलों की पैदावार और उन्हें अपेक्षित सुविधाएँ पहुँचाना शामिल है। विदेशों में फसलें आसानी से भेजने की व्यवस्था भी होनी चाहिए। फसलों के आयात और उनके भाव पर नजर रखने की सिफारिश भी की गयी है।
  9. आयोग ने किसानों में प्रतिस्पर्धा बढ़ाने की बात भी कही है। इसके साथ ही अलग-अलग फसलों को लेकर उनकी गुणवत्ता और वितरण पर विशेष नीति बनाने की सिफारिश की गयी है। आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की भी सिफारिश की है।
  10. किसानों की बढ़ती आत्महत्या को लेकर भी आयोग ने चिन्ता जताई है। आयोग ने ज्यादा आत्महत्या वाले स्थानों को चिह्नित कर वहां विशेष सुधार कार्यक्रम चलाने की बात कही है। इसके अलावा सभी तरह की फसलों के बीमा की जरूरत बताई गयी है। साथ ही आयोग ने कहा है कि किसानों के स्वास्थ्य को लेकर खास ध्यान देने की जरूरत है। इससे उनकी आत्महत्याओं में कमी आएगी।

खेद है, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू होने की आज भी प्रतीक्षा की जा रही है।

डॉ. स्वामीनाथन को 1971 में ‘पद्मश्री’ पुरस्कार से अलंकृत किया गया। समाज के खाद्यान समस्या के निवारण हेतु उन्हें अंर्तराष्ट्रीय रेमन मेग्सेसे पुरस्कार प्राप्त हुआ। 1972 में उन्हें ‘पद्मभूषण’ और 1989 में ‘पद्मविभूषण’ से अलंक़त किया गया।

डॉ. स्वामीनाथन ने 1955 में मीना स्वामीनाथन से विवाह किया जो एक प्रतिष्ठित शिक्षाविद् हैं। उनकी बेटी सौम्या स्वामीनाथन भी बालरोग विशेषज्ञ तथा भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् की महानिदेशक हैं।Soumya Swaminathan appointed in United Nations Group

प्रो. स्वामीनाथन की अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें ‘भूख मुक्त विश्व’, ‘मेजर फ्लावरिंग ट्रीज ऑफ ट्रॉपिकल गार्डेन्स’, ‘कम्बैटिंग हंगर एँड अचीविंग फूड सेक्योरिटी’, ‘एग्रीकल्चर कैन नॉट वेट : न्यू होरिजन्स इन इंडियन एग्रीकल्चर’, ‘टूवर्ड्स हंगर फ्री इंडिया : फ्रॉम विजन टू एक्शन’, ‘टूवर्ड्स ए हंगर फ्री वर्ड : एथिकल डाइमेन्सन’, ‘फ्रॉम रियो डे जेनेरियो टू जॉन्सबर्ग : ऐक्शन टूडे’, ‘बॉयोएनर्जी रिसोर्सेज : प्लॉनिंग, प्रोडक्शन ऐँड यूटीलाइजेशन’, ‘साईंस एँड इनटीग्रेटेड रूरल डवलपमेंट’, ‘इस्टेब्लिशमेंट ऑफ फर्स्ट जेने सैंन्चुअरी इन इंडिया फॉर साइट्रस इन गारो हिल्स’, ‘इन सर्च ऑफ बायोहैपीनेस : बायोडाइवर्सिटी एँड फूड, हेल्थ एँड लीवलीहुड सेक्योरिटी’ आदि प्रमुख हैं।

हम डॉ. एम.एस.स्वामीनाथन के जन्मदिन पर उनके द्वारा कृषि क्षेत्र की प्रगति में किए गये अपूर्व योगदान का स्मरण करते हैं और उनके सुस्वास्थ्य व सक्रियता की कामना करते हैं।

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अमरनाथ

लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं। +919433009898, amarnath.cu@gmail.com
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