छत्तीसगढ़ के अमर जन-नायक: शहीद वीर नारायण सिंह
शहादत दिवस 10 दिसम्बर पर विशेष
छत्तीसगढ़ के इतिहास पर नजर डालें तो अलग-अलग समय में यहाँ अनेक महान देशभक्त – सपूतों का जन्म हुआ जिन्होंने देश और समाज की भलाई के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया। उन्हीं महान सपूतों में एक थे सोनाखान के अमर शहीद वीर नारायण सिंह। उन्होंने सन 1857 में तत्कालीन अंग्रेज हुकूमत के ख़िलाफ़ जनता को संगठित कर संघर्ष का शंखनाद किया और 10 दिसम्बर 1857 को राजधानी रायपुर में अंग्रेज सरकार ने उन्हें मौत की सजा दे दी। नारायण सिंह सोनाखान के प्रजा हितैषी जमींदार थे। उन्होंने अपनी जनता को अकाल की पीड़ा से बचाने के लिए अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ युद्ध करते हुए उनके द्वारा दिए गए मृत्युदंड को स्वीकार कर लिया और देश के लिए शहीद हो गए।
उन दिनों भारत में स्वतन्त्रता संग्राम की आवाज बुलन्द हो रही थी। अंग्रेज सरकार की दमन नीति से राजे रजवाड़ों उनके ख़िलाफ़ रोष पनप रहा था और वे लामबंद हो रहे थे भारत में स्वतन्त्रता आन्दोलन की आग धधक रही थी। छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं था वीर नारायण सिंह छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष के नायक बनकर उभरे। वर्तमान बलौदाबाजार जिले के सोनाखान में उनका जन्म 1795 में रामसाय जी के यहाँ हुआ था। उन्हें 35 वर्ष की उम्र मे विरासत में जमीदारी की जिम्मेदारी मिली। इतिहासकारों की मानें तो सोनाखान का प्राचीन नाम सिंघगढ़ था। कालांतर में वहाँ सोने की खदान होने की जानकारी हुई और नाम सोनाखान पड़ गया।
वीर नारायण सिंह अपनी निडरता, न्यायप्रियता, परोपकारिता और देशभक्ति के कारण लोगों के नायक बन गए। वर्ष 1856 में जब भयानक अकाल पड़ा, तब अंग्रेजी हुकूमत ने जनता की मदद ना कर तरह -तरह की दमनकारी नीतियों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। इससे आक्रोशित होकर वीर नारायण सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी और अपनी प्रजा की रक्षा के लिए हजारों किसानों को साथ लेकर कसडोल के एक जमाखोर अनाज व्यापारी के गोदाम पर धावा बोलकर सारे अनाज को अकाल पीड़ित किसानों और मज़दूरों में बँटवा दिया। व्यापारी ने इस घटना की शिकायत उस समय के डिप्टी कमिश्नर इलियट से की।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि वीर नारायण सिंह ने स्वयं इसकी जानकारी ब्रिटिश प्रशासन को भेजी थी। उनका यह कार्य अंग्रेजों को ठीक नहीं लगा। विदेशी हुकूमत ने इसे विद्रोह माना और वीर नारायण सिंह को 24 अक्टूबर 1856 में संबलपुर से बन्दी बना लिया। उन्हें रायपुर लाया गया और जेल में डाल दिया गया। उन दिनों पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग भड़क रही थी। छत्तीसगढ़ में भी अंग्रेजों के प्रशासनिक मुख्यालय रायपुर में स्थानीय भारतीय सैनिक मौका ढूंढ रहे थे। उन्होंने जेल में बंद वीर नारायण सिंह को अपना नेता चुन लिया और गुप्त रूप से उनकी हर संभव सहायता की।
नारायण सिंह 28 अगस्त 1857 को रायपुर जेल से भागने में सफल हो गए। उस वक्त संबलपुर के क्रांतिकारी सुरेंद्र साय हजारीबाग जेल में थे। सुरेंद्र साय 30 जुलाई 1857 को जेल से भाग निकले थे। वीर नारायण सिंह रायपुर जेल से भागकर सोनाखान पहुंचे।उन्हें अपने बीच पाकर जनता का मनोबल लौट आया। लोग खुशी से झूम उठे थे। जनता अंग्रेजी सत्ता से मुक्ति पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थी।
नारायण सिंह के नेतृत्व में 500 जवानों की एक सेना बनाई गई और विद्रोह के संचालन के लिए कुरुपाठ डोंगरी (पहाड़ी) को अपना केन्द्र बना लिया। यह खबर जब रायपुर के डिप्टी कमिश्नर स्मिथ के पास पहुंची तो डर के मारे उसकी हालत खराब हो गई। उसने वीर नारायण सिंह के खिलाफ कार्यवाही करने की तैयारी शुरू कर दी। उसके नेतृत्व में अंग्रेजों की फौज 20 नवम्बर 1857 को सुबह सोनाखान के लिए चल पड़ी और खरौद पहुंची।
इतिहास पर गौर करें तो 29 नवम्बर की सुबह कमिश्नर स्मिथ की फौज सोनाखान के लिए रवाना हो गयी। स्मिथ डरा हुआ था। रायपुर से जो सैनिक बुलवाए थे, वह केवल अंग्रेज घुड़सवार थे। बिलासपुर से जो सैनिक बुलाए गए थे, उनमें 50 अंग्रेज थे। स्मिथ की सेना में 80 बेलदार थे जो भारतीय थे। जब बेलदारों को पता चला कि सोनाखान में आक्रमण करना है, तब 30 बेलदारों ने मना कर दिया। स्मिथ के दिमाग में कुछ और भी था। वह अपनी सेना के साथ जब सोनाखान पहुंचा तो पूरा गाँव खाली पड़ा था। उसने खाली घरों पर ही फायरिंग करवा दी और आग लगवा दी।
सोनाखान राख में तब्दील हो गया। स्मिथ अपने डेरे की ओर वापस जा रहा था। तब एक पहाड़ी के पीछे से वीर नारायण सिंह ने उस पर गोलियां चलाई, पर स्मिथ बच निकला। नारायण सिंह ने युद्ध क्षेत्र में स्मिथ से मुकाबले की सारी तैयारियां कर रखी थी, लेकिन उसे सोनाखान में अंग्रेज फौज द्वारा की गयी आगजनी की कल्पना नहीं की थी। उन्होंने अपने प्रिय सोनाखान को राख के ढेर में बदलते देखा। सोनाखान जंगल के अंदर चारों ओर से घिरा गाँव था।
बताया जाता है कि देवरी के जमींदार ने नारायण सिंह का साथ नहीं दिया। अंग्रेज फौज ने वीर नारायण सिंह और उनकी सेना की घेराबन्दी कर दी। उनके लगभग सभी सैनिक युद्ध में शहीद हो गए। वीर नारायण सिंह को 01 दिसम्बर को बन्दी बना लिया गया और रायपुर जेल लाया गया। उनके ख़िलाफ़ राजद्रोह का मुकदमा चला और रायपुर के वर्तमान जयस्तम्भ चौक में 10 दिसम्बर 1857 को उन्हें मौत की सजा दे दी गयी।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार उन्हें पहले फाँसी दी गयी और बाद में उनके शव को तोप से उड़ा दिया गया। भारत के एक सच्चे देशभक्त और छत्तीसगढ़ के जन -नायक की जीवन लीला समाप्त हो गई। भारत सरकार ने शहीद वीर नारायण सिंह के सम्मान में वर्ष 1987 में डाक टिकट जारी किया। वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2008 में नवा रायपुर के ग्राम परसदा में निर्मित अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का नामकरण उनके नाम पर किया। महासमुंद जिले के कोडार सिंचाई बांध का नामकरण भी शहीद वीर नारायण सिंह के नाम पर किया गया है।
उनकी स्मृति में छत्तीसगढ़ शासन द्वारा तथा आदिम पुरस्कार की भी स्थापना की गयी है। इसके तहत राज्य में अनुसूचित जन- जातियों में सामाजिक चेतना जागृत करने तथा उनके उत्थान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों अथवा स्वैच्छिक संस्थाओं को 2 लाख रुपए की नगद राशि के साथ प्रशस्ति पत्र भेंटकर सम्मानित किया जाता है।