“अभिमान” आखिर होता है क्या? इसे समझने का कोई पैमाना है या हम फिजूल में सोचते रहते हैं? जब फिल्मकार इन सवालों के जवाब में उलझते हैं तो जवाब “अभिमान” के रूप में हमारे सामने आता है। और जब मानवीय रिश्तों के रास्ते भावनाओं की पड़ताल की जाती है, तब “अभिमान” के वास्तविक मायने हमारे सामने आ जाते हैं, जो एक संदेश भी है और एक मोहलत भी कि औरत के लिए पति वाकई परमेश्वर होता है, भले ही सामने वाला इत्तेफाक रखता हो या नहीं।
साल 1973 की फिल्म “अभिमान” भी इन्हीं सवालों का जवाब खोजना शुरू करती है और पहुंच जाती है पति-पत्नी के “बेडरूम में बोरडम” को महसूसने। और जब निर्देशक रिषिकेश मुखर्जी हों तो तय मानिए कि रिश्तों के अनसुलझे धागों को वे आसानी से सुलझा लेंगे। अगर ना भी सुलझा सकें तो मंजिल का पता तो जरूर बता देंगे जो धागों को सुलझाने में आपकी मदद करेगा।
“अभिमान” की कहानी लगती फिल्मी है, लेकिन इसमें आज के समय में प्रचलित रिश्तों के द्वंद को आसानी से देखा जा सकता है। यहीं यह फिल्म “रील और रीयल” लाइफ के अंतर को पाट भी देती है। फिल्म का नायक सफल गायक है और लड़कियां उसे बेइंतहा चाहती है। यह ऐसा चाहत है, जो एक मोहब्बत से भरे दिल का सिरा रौशनी से लकदक उस दिल की दीवार पर लगी सफलता की खूंटी में खुद ब खुद बंधना चाहता है, जो नंगी आंखों से नजर नहीं आता, पर बंध जाता है।
फिल्म का नायक पसंद करता है अपनी जीवनसंगिनी के रूप में एक गायिका को, जो संस्कारी भी और सुरीली भी। हैरत ये कि शास्त्रीय संगीत में उसकी निपुणता ही उसके पति के अंदर बैठे परमेश्वर को दानव में बदलने लगता है। उसका “अभिमान” पति की सफलता और संपन्नता है जबकि पति की सोच ठीक उलट। वो सबकुछ समझते हुए भी खामोश रहती है, पति के डगमगाते कदमों को सहारा देना भी चाहती है वो, लेकिन जाहिर नहीं करती।
पति-पत्नी के इसी बिखरते और डूबते रिश्तों को संभालने का नाम है “अभिमान”। और जब पत्नी हताशा जाहिर करती है तो उसमें भी प्यार ही झलकता है। यही प्यार गाने की शक्ल में सामने आता है और स्टूडियो में होते हुए भी आपसी “असहयोग की व्याख्या” करने लगता है। इसी अंर्तद्वंद की परिणीति होती है, “लूटे कोई मन का नगर बनके मेरा साथी” गाने के रूप में। और नासमझ पति की मनोदशा देखिए की, वो उस साथी का नाम पूछने लगता है, जो ठीक बगल में पत्नी के सामने खड़ा रहता है।
यहां उस महिला का संस्कार सामने आता है और वो सीधे मुकर जाती है। कह देती है कि वो है तो यहीं, लेकिन बहुत प्यारा है, उसके जीने का सहारा भी तो है। और जब पति ज्यादा कुरेदने लगता है शब्दों से, तो पत्नी वही रास्ता चुनती है, जिसे चुनना एक पुरुष के लिए मुश्किल और कभी-कभी नामुमकिन भी होता है। वो साफ-साफ कह देती है कि वो उसके बिना नहीं जी सकती है।
शब्दों के जरिए बिखरते रिश्तों से साक्षात्कार करना और फिर प्यार से हिदायत देना एक पत्नी ही कर सकती है। “अभिमान” का ये अलगाव नया नहीं है और पुराना भी नहीं। ये तो सिर्फ एक जरिया भर है, “पति, पत्नी और वो” से “वो” को निकालकर “पति-पत्नी” बनाने का। साफ है जब तक एक पत्नी भारतीय संस्कृति की दूरबीन से “अभिमान” को देखती रहेगी, उसका फोकस सिर्फ पति पर ही रहेगा। वो तो सिर्फ “धर्मपत्नी” बनना चाहती है, “मार्गदर्शक पत्नी।”
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
अभिषेक मिश्रा
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