आज होते तो क्या चाहते गुरु रविन्द्र?
गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर की पुण्यतिथि पर उनकी रचनाएँ याद आना लाजिमी है आपको भी आ रही होंगी। एक कविता जो बहुत प्रसिद्ध है, इन पंक्तियों की लेखिका को भी याद आई। बेहद पसन्द है और तीसरी कक्षा में पढ़ रहे अपने बेटे को किसी कम्पटीशन के लिए तैयार करवाई थी। पर वह उस कम्पटीशन में जीत ना सका। क्योंकि उसे उस कविता के शब्द वैसे ही मुश्किल लगे, जैसे किसी सामान्य पाठक के लिए उसका अर्थ और उसकी प्रासंगिकता।
विभिन्न विमर्शों में, गोष्ठियों में हम लेखकों की कृतियों की प्रासंगिकता खोजते रहते हैं, लेकिन आज फिर इस कविता को पढ़कर लगा कि गुरुवर छटपटा रहे हैं। काश! इस कविता की प्रासंगिकता खत्म हो जाए! यह कृति अमर ना हो पाए! मेरे दुख, मेरी चिन्ता यूँ ही बने ना रहे! मैं इस कविता को स्वयं फाड़ कर फेंक सकूं कि अब इसकी जरूरत नहीं!
यह कविता गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर के सपनों के भारत पर आधारित है। उन्होंने एक स्वप्न देखा था कि ब्रिटिश शासन से जब हम स्वतन्त्र होंगे तो किस प्रकार का भारत हमारे सामने होगा। इसकी परिकल्पना कर उन्होंने सन् 1913 में जब यह कविता उन्होंने लिखी होगी तब यह कामना भी की होगी कि वह स्वयं ऐसे भारत को देखें जिसका सपना देख रहे हैं।
पर क्या यह सम्भव है क्या सोते हुए भारत का भाग्य जगेगा? हालाँकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति से कुछ उम्मीद तो बनी है नीति में कुछ अच्छे बदलाव तो किए गये हैं। पर अपनी सोच को बदले बिना उन बदलावों का इस्तकबाल क्या हम लोग कर पाएँगे? समाज को भय मुक्त बनाने के लिए आवश्यक है बदलावों को अंगीकार कर पाएँगे?
भारत युवा देश है। युवा शक्ति वाला देश है। देश की उन्नति और प्रगति युवाओं के ही हाथ में है। आत्मविश्वास से भरी युवाओं की आवाज ही है जो बड़े बदलाव ला सकती है। इसका असर हमारे समाज पर हमेशा रहेगा। अगर वाकई भारत गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर के सपनों को साकार करना चाहता है तो युवाओं का विकास ही सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी।
मूल बंगला में लिखी गयी यह कविता जिसका अनुवाद शिवमंगल सिंह सुमन जी ने किया आप भी पढ़िये और उनके सपने को समझिये।
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