सेहत

भारत में जन-स्वास्थ्य: दावे और हकीकत

 

देश की समग्र तरक्की और लोगों के विकास के सबसे अच्छे सूचकांकों में एक जन स्वास्थ्य का होता है। यह किसी देश के नागरिकों के अतीत, वर्तमान और भविष्य का आईना होता है। फिलहाल हमारी आबादी डेढ़ अरब के आसपास है और सालाना 1.8 करोड़ की दर से यह बढ़ रही है। दुनिया के भौगोलिक क्षेत्र का महज 2.4 फीसदी भारत दुनिया की आबादी के 16 फीसदी लोगों को अपने यहाँ रखे हुए है। इंटरनेशनल डायबेटिक फेडरेशन के अनुसार भारत में 5.08 करोड़ से ज्यादा लोग मधुमेह से ग्रस्त हैं और अनुमान के मुताबिक 2025 तक यह संख्या बढ़कर सात करोड़ हो जाएगी (इंडियन डायबिटीज़ रिसर्च फाउंडेशन)। इतना ही नहीं, इस वर्ष तक दुनिया के 65 फीसदी दिल के मरीज़ भारत से ही होंगे। कुछ रोगों की निरंतर जारी तीव्रता (एचआइवी/एड्स, मलेरिया, डेंगू, हेपटाइटिस), कुछ दूसरे संक्रामक रोगों का उभार (तपेदिक, प्लेग, विरुलेंट हैजा, मेनिंजायटिस) और नए रोगों का उभार (सार्स, एशियन बर्ड फ्लू, मैड काउ डिजीज़, फुट एंड माउथ डिजीज़) पहले ही कमजोर स्वास्थ्य प्रणालियों पर और ज्यादा दबाव डाल रहा है जिसकी जरूरत के मुताबिक प्रतिक्रिया नहीं दी जा रही है। असंचारी रोगों, दिमागी रोगों तथा हादसों और हिंसा से पैदा होने वाली अशक्तताएं इस समस्या को और गहरा कर रही हैं (डब्लूएचओ, 2022 और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, 2023)।

ग्रामीण भारत के लोगों और विशेष रूप से आदिवासी आबादी की स्वास्थ्य आदि को लेकर अपनी विशिष्ट आस्थाएं और आचार-व्यवहार हैं। कुछ जनजातीय समूह अब भी मानते हैं कि कोई रोग हमेशा बुरी रूहों या किसी वर्जना को तोड़ने के चलते होता है। इसीलिए वे रोगों का इलाज धार्मिक और जादुई तरीकों से करते हैं। दूसरी ओर ग्रामीण लोग आज भी ऐसे परंपरागत चिकित्सीय तरीके अपनाते आ रहे हैं जो कहीं लिखित नहीं हैं, साथ ही औषधि विज्ञान की स्वीकृत सांस्कृतिक प्रणालियों को भी वे मानते हैं जैसे आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, प्राकृतिक चिकित्सा और होमियोपैथी, जिससे सेहत दुरुस्त रखी जा सकती है और रोगों से बचा जा सकता है।

हुआ यह है कि मानवीय और भौतिक संसाधनों के जबरदस्त दोहन के लिए जिस तरह सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मोर्चों पर हमले बढ़े हैं, उन्होंने कुदरती तौर पर स्वस्थ वातावरण के सामने खतरे पैदा कर दिए हैं। इसके अलावा गांवों में स्वास्थ्यगत समस्याओं की बुनियादी प्रकृति का लेनादेना स्वास्थ्य सम्बन्धी जागरूकता के अभाव, खराब मातृ-शिशु स्वास्थ्य सेवाओं और पेशागत जोखिमों से भी है। अधिकतर मौतें जो रोकी जा सकती थीं, वे संक्रमण और संचारी, परजीवी व श्वास सम्बन्धी रोगों से होती हैं। गांवों में संक्रामक रोगों के चलते लोग जल्दी अशक्त हो जाते हैं। जलजनित संक्रमण भारत में 80 फीसदी बीमारियों की जड़ में है जिसके चलते दुनिया में मरने वाला हर चौथा व्यक्ति भारतीय होता है।

भारत में स्वास्थ्य पर कुल व्यय अनुमानतः जीडीपी का 5.2 फीसदी है जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय पर निवेश केवल 0.9 फीसदी है, जो गरीबों और जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से काफी कम है जिनकी संख्या कुल आबादी का करीब तीन-चौथाई है। सार्वजनिक स्वास्थ्य बजट का बड़ा हिस्सा परिवार कल्याण पर खर्च होता है। भारत की 75 फीसदी आबादी गांवों में रहती है फिर भी कुल स्वास्थ्य बजट का केवल 10 फीसदी इस क्षेत्र को आवंटित है। एक अध्ययन के अनुसार पीएचसी का 85 फीसदी बजट कर्मचारियों के वेतन में खर्च हो जाता है। नागरिकों को स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में प्रतिबद्धता का अभाव स्वास्थ्य अधिरचना की अपर्याप्तता और वित्तीय नियोजन की कम दर में परिलक्षित होता है, साथ ही स्वास्थ्य सम्बन्धी जनता की विभिन्न मांगों के प्रति गिरते हुए सहयोग में यह दिखता है। यह प्रक्रिया खासकर अस्सी के दशक से बाद शुरू हुई जब उदारीकरण और वैश्विक बाजारों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था खुल गयी।

चिकित्सा सेवा और संचारी रोगों का नियंत्रण जनता की प्राथमिक मांगों और मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात दोनों के ही मद्देनजर चिंता का अहम विषय है। कुल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय के साथ इन दोनों उपक्षेत्रों में भी आवंटन 2010 और 2020 के दशकों में घटता हुआ दिखा। चिकित्सीय शोध के क्षेत्र में भी ऐसा ही रुझान दिखता है। कुल शोध अनुदानों का 20 फीसदी कैंसर पर अध्ययनों को आवंटित किया जाता है जो कि 1 फीसदी से भी कम मौतों के लिए जिम्मेदार है जबकि 20 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार श्वास सम्बन्धी रोगों पर शोध के लिए एक फीसदी से भी कम राशि आवंटित की जाती है।

सरकारी क्षेत्र की बढ़ती प्रभावहीनता के चलते गरीबों में बढ़ता मोहभंग और हताशा उन्हें निजी क्षेत्र की ओर धकेल रही है जिसके कारण वे कर्ज लेकर भारी राशि व्यय करने को मजबूर हैं या फिर वे ‘झोलाछाप’’ लोगों के रहमो करम पर छोड़ दिए जाते हैं। अनुमान भिन्न हो सकते हैं, लेकिन सरकार 20-30 फीसदी से ज्यादा व्यय स्वास्थ्य पर नहीं करती है। निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य क्षेत्र पर व्यय में हिस्सेदारी 1976 में 14 फीसदी थी तो 2020 में बढ़कर 72 फीसदी हो गई। भारत के करीब 67 फीसदी अस्पताल, 63 फीसदी दवाखाने और 78 फीसदी डॉक्टर निजी/कॉरपोरेट क्षेत्र में हैं।

चिकित्सीय आचारों के बढ़ते निजीकरण और व्यावसायीकरण तथा औषधि व उपकरण निर्माताओं के साथ उनके रिश्तों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन करीब 130 अनिवार्य औषधियों की सिफारिश करता है लेकिन भारतीय बाजार में 4000 से ज्यादा औषधियाँ उपलब्ध हैं। इसके चलते स्वास्थ्य सेवाओं को खरीद पाना ग्रामीण गरीबों की क्षमता के दायरे से बाहर चला गया है। हाल के दो अखिल भारतीय सर्वेक्षणों (एनएसएसओ का 46वां चरण और एनसीएईआर, नई दिल्ली) ने दिखाया है कि दहेज प्रथा के बाद चिकित्सीय उपचार ग्रामीण कर्जदारी का दूसरा सबसे अहम कारण है।

कोरोनावायरस संक्रमण ने ‘वैश्विक स्वास्थ्य मिथक’ की पोल खोल कर रख दी है। पूरी दुनिया ने देख लिया कि कहीं भी ‘मुकम्मल सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था’ नहीं हैं। इस वैश्विक महामारी ने बहुराष्ट्रीय दवा कम्पनियों और वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था का दावा करने वाले चिकित्सा तन्त्र के मुखौटे को भी उतार कर नंगा कर दिया है। ऐसे में अब दुनिया भर में इन्सानों और इन्सानियत की फिक्र करने वालों को लगने लगा है कि उनकी तरफ से एक ‘जीवन के लिये जनघोषणा पत्र’ तैयार हो जो वैश्विक महामारी के दौर में पीड़ित मानवता की रक्षा के लिये एक उचित वातावरण बना सके।

कोविड-19 जैसे विश्वव्यापी स्वास्थ्य संकट ने पूरी दुनिया में ‘विकास’ के भ्रम को जाहिर कर दिया है। लोग समझ चुके हैं कि तकनीक और भौतिक संसाधनों की प्रचुरता मात्र ही विकास नहीं कहलाते। मानव जीवन, जीव जन्तु और प्रकृति को सुरक्षित किये बगैर सारे कर्म छलावा एवं धोखा है। विकास का तर्क जीवन और पर्यावरण को बेहतर बनाने से जुड़ा है लेकिन कोरोना काल में दुनिया ने देख लिया कि चन्द मुनाफाखोर कम्पनियाँ जीवन रक्षा के नाम पर अपना प्रोडक्ट बेचने के लिये डर पैदा करती हैं और फिर बड़ी कीमत पर उस डर से बचाने का स्वांग करती है। कथित विकास के इस भ्रम से निकलकर अब दुनियाभर में अमन और जीवन पसन्द लोगों में यह चिंतन जारी है कि जीवन का सौदा करने वाले व्यापार को आम लोग खारिज कहें और एक बेहतर मानवीय समाज रचना के लिये प्रयास करें। इसके लिये निम्नलिखित कुछ बिन्दु मैं यह सुझाव के तौर पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।

1.​विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) को वास्तविक रूप से वैश्विक स्वास्थ्य संगठन के रूप में दुनियाभर की सरकारें स्वीकार करे और इसके लिये सर्वमान्य मानवीय जीवन रक्षा के दिशा निर्देश सार्वजनिक किये जाएं।

2.​मानव, जीवन एवं प्रकृति की रक्षा को दुनिया भर की सरकारें और सार्वजनिक संस्थाएं सर्वोपरि जिम्मेवारी के रूप में स्वीकार करे।

3.​स्वास्थ्य रक्षा एवं उपचार को सेवा का दर्जा दिया जाए तथा इसके मुनाफे को गैर संवैधानिक आपराधिक घोषित किया जाए। यह घोषणा की जाए कि स्वास्थ्य रक्षा एवं उपचार का व्यवसाय नहीं किया जा सकता और इसे जनधन व हर जीवजन्तु को उपलब्ध कराना सबकी जिम्मेदारी है।

4.​चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के कार्य में लगे सभी लोगों को यह बताया जाए कि चिकित्सा सेवा है व्यापार नहीं। इसके लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन एक दिशा निर्देश जारी करे और दुनिया के चिकित्सक उसे स्वीकार करें।

5.​दुनिया में कहीं भी कभी भी किसी व्यक्ति की चिकित्सा के अभाव में हुई मृत्यु को सांस्थानिक हत्या माना जाए और उसकी जवाबदेही तय की जाए।

6.​मानव जीवन, जीवजन्तु व वनस्पति के रक्षा के लिये दुनिया में उपलब्ध सभी संसाधन, ज्ञान व प्रणाली को समान मानकर उसका उपयोग किया जाए। चिकित्सा या उपचार की सभी वैज्ञानिक प्रणाली को समान अवसर देकर यह सुनिश्चित किया जाए कि अभाव व नकारात्मकता की वजह से किसी का जीवन समाप्त न हो पाए

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ए. के. अरुण

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं। सम्पर्क +919868809602, docarun2@gmail.com
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