कर्पूरी ठाकुर

देशज समाजवाद के आर्किटेक्ट 

 

आज जब पूरा देश कर्पूरी जी की शत्-वार्षिकी मनाने को उत्सुक दिख रहा है तब मेरे मन में यह सवाल उठता है कि क्या जननायक कर्पूरी ठाकुर के योगदान को देश ने कभी गंभीरता से समीक्षा की है? क्या समाजवादी जमात के चिंतकों ने उनके द्वारा उठाए गए कदमों /विचारों का गहन अध्ययन किया है? हमें लगता है यह होना अभी बाकी है। यह अवसर जितना उत्सव मनाने का है उससे कहीं ज्यादा कर्पूरी जी के वैचारिक योगदान और समाजवादी चरित्र पर गहन विचार करने का है।

आइए, इसपर थोड़ा विचार करें। कर्पूरी जी बीसवीं सदी के जननायकों में से एक हैं। और समाजवादी नायकों में से प्रखर विचारवान और आचारवान नायक! उनके जीवनकाल को देखने और समझने की कोशिश से यह बात स्पष्ट हो जाती कि उन्होंने न सिर्फ समाजवाद के विचार को अंगीकृत किया बल्कि समाजवाद के मूल्यों को जीया, उसे बरता। समाजवाद की बातें करने वाले बीसवीं सदी में बहुत से विचारक दिखते हैं। लेकिन समाजवाद को बरतने वाले बहुत कम नजर आते हैं।

1974 के सितंबर महीने में मधुपुर में उनकी एक सभा थी। बिहार आंदोलन के दौरान उनका एक दौरा संताल परगना में हुआ था। इसी क्रम में मधुपुर के गांधी चौक पर उनकी एक सभा रखी गई थी। छात्र संघर्ष समिति (तिथि ठीक ठीक याद नहीं है। ) मधुपुर ने इसका आयोजन किया था। गांधी चौक खचाखच भरा था। सभा में युवाओं की संख्या बहुत ज्यादा थी। सभा की अध्यक्षता श्री मुरलीधर गुप्ता ने की थी। मुरली बाबू पुराने समाजवादी थे। कर्पूरी जी से उनका घनिष्ठ रिश्ता था।

उस दिन कर्पूरी जी ने सभा को संबोधित करते हुए अपने स्टाइल में यह कहा था- …जिस आंदोलन का संदेश देने हम यहां आये हैं, अगर युवाओं ने उसे जीवन में उतारने की 10 प्रतिशत भी कोशिश की तो बिहार (उस समय मधुपुर बिहार में ही था) ही नहीं देश की तस्वीर बदल जायेगी। यह आंदोलन महज गुब्बारे की तरह फूलकर फट जाने जैसा आंदोलन नहीं है। बल्कि यह सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था में आमूल चूल बदलाव लाने वाला आंदोलन है। यह जितना व्यवस्था को, ढांचे को बदलने का आंदोलन है उससे ज्यादा इंसान की, नागरिकों की मनोवृत्ति और आचार-व्यवहार में बदलाव लाने का आंदोलन है। अगर यह आंदोलन सफल हुआ तो इसके गर्भ से निकलेगा समाजवाद। लोकतांत्रिक समाजवाद। और बाद में देशज समाजवाद। मैं चौंका। बगल में साथी विश्वनाथ भी चौंका। हम एक-दूसरे को देखने लगे। समाजवाद, लोकतांत्रिक समाजवाद तक को तो हमसब तो पढ़कर जान गये थे-लेकिन “देशज समाजवाद”! यह नयी अवधारणा थी, नया शब्द था हम जैसे युवाओं के लिए। मेरे युवा मानस में धंस ही नहीं रहा था। हमने कहा-विश्वनाथ, इस शब्द की स्पष्टता होनी चाहिए। इसकी अवधारणा की परिभाषा जाननी चाहिए कर्पूरी जी से। हम दोनों ने तय किया कि कार्यकर्ता बैठक में उनसे जानने की इच्छा प्रकट करेंगे।

जस की तस धर दीनी चदरिया

सभा के समाप्त होने के पहले उन्होंने के कहा- हमने युवाओं के लिए कुछ साहित्य लाया है। आपसब हमारे कार्यकर्ता,जो इस में उपस्थित हैं,सभा के समापन के बाद इसे बेचेंगे। आपसब अपनी क्षमता के अनुसार इसे खरीदें और मनोयोग से पढ़ें। यह पहला अवसर था हमारे लिए जब कोई नेता अपने भाषण के क्रम में किताबें खरीदने की अपील भीड़ से कर रहा था।

समाप्त हुई और कर्पूरी ठाकुर जिंदाबाद के नारे लगने लगे। उन्होंने तुरंत फिर माईक संभाली और कहा कर्पूरी ठाकुर जिंदाबाद लगाने का यह समय नहीं है। लोकनायक जयप्रकाश जिंदाबाद का नारा लगाइए। सम्पूर्ण क्रान्ति जिंदाबाद का नारा लगाइए। और उनकी बातों को सुनते ही उक्त नारों से मधुपुर का आकाश गूंज उठा।

सभा समाप्त होने के बाद उनकी एक बैठक छात्र संघर्ष समिति के कार्यकारिणी के सदस्यों के साथ होनी थी। बैठक आठ बजे शुरू हुई और देर रात तक चली। यहीं हमारे एक जागरूक साथी विश्वनाथ ने पूछ लिया – कर्पूरी जी, हमसबों ने समाजवाद, लोकतांत्रिक समाजवाद का नाम सुना है, लेकिन यह देशज समाजवाद क्या है? यह शब्द पहली बार हमसब सुन रहे हैं आपसे!

कर्पूरी जी मुस्कुराए। फिर गंभीर हो गये। उन्होंने गंभीर मुद्रा में कहा-इसका अर्थ जानने की इच्छा है तो आपलोंगों को थोड़ी गंभीरता से मेरी बात सुननी होगी। सबों ने हामी भरी। कर्पूरी जी ने कहना शुरू किया- देशज समाजवाद- देश, काल और देश के भीतर की चुनौतियों को ध्यान में रखकर देश के सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक ढांचों, मूल्यों और मनोवृत्तियों में आमूल चूल परिवर्तन का वाद है। यह समाजवाद, लोकतंत्र समाजवाद के आगे का चिंतन है। यह विचार बदलने के साथ साथ व्यवहार बदलने की भी मांग करता है। हम बात समाजवाद की करें और व्यवहार सामंत जैसा ही रहे तो हम समाजवादी समाज की स्थापना नहीं कर सकते। नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं को सदाचार, सहजता और सादगीपूर्ण जीवन जीने की आदत डालनी होगी। नेताओं को व्यक्तिगत संपत्ति और अहंकार से मुक्त होना होगा। गांधी तो सभी नहीं बन सकते लेकिन हमें आम नागरिकों की तरह तो जिंदगी जीनी ही पड़ेगी। इस अवधारणा और आचरण को गांधी से जोड़ा जा सकता है।

मैंने पूछा ऐसा करना क्यों जरूरी है? और रही गांधी की बात तो हमें तो लगता है कि आज की समस्याओं की जड़ में गांधी के विचार ही तो हैं। क्षणभर के लिए कर्पूरी जी रुके, उन्होंने हमें गौर से देखा और बोलने लगे- इसमें दो बातें हैं। पहली बात देशज समाजवाद की अवधारणा की और दूसरी गांधी के विचार की। दोनों को गहराई से समझने की जरूरत है। देशज समाजवाद हमें एक ऐसी दृष्टि देता है जिसमें देश की माटी सुगंध है। इसमें देश के भूगोल और उस भौगोलिक परिवेश और परिस्थितियों में विकसित रीति-रिवाज, प्रकृति उपादान, पर्यावरण और संस्कृति का समायोजन है। इसकी महत्ता को समझने की सीख देता है। इसके आधार पर जीवन जीने और आचरण करने मार्ग बतलाता है। प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन की राह दिखलाता है। प्रकृति की मर्यादा को समझते हुए उससे बरतने की शिक्षा और दीक्षा देता है।

हमने कहा-प्रकृति ने हमें अकूत संपदा दी है। फिर अपने जीवन को हम शानदार ढंग से क्यों न जिएं? सभी इंसान शानदार ढंग से जी सकें ऐसी समाजवादी व्यवस्था हमें क्यों नहीं गढ़नी चाहिए?

कर्पूरी जी ने कहा-पहले यह स्पष्ट होना जरूरी है कि प्रकृति के पास अकूत संपदा नहीं है। दूसरी बात यह है कि प्राकृतिक संपदा पर सिर्फ मानव का ही हक नहीं है। इस पर मानवेत्तर प्राणियों की निर्भरता है इसलिए उसका भी अधिकार है। समाजवादी व्यवस्था इस बात की सीख देती है कि हमें सिर्फ अपने सुख सुविधा के लिए नहीं सोचना है बल्कि अन्य प्राणियों के बारे में भी सोचना है। और सभी प्राणियों में उन्नत प्राणी होने के नाते मानव की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। इसके साथ हमें यह भी सोचना है कि मनुष्य का अस्तित्व दूसरे प्राणियों के अस्तित्व से अनुगुंफित है। हम परस्परावलंबी हैं। इसीलिए देशज समाजवाद इसकी समझदारी पूर्वक दोहन की वकालत करता है।

रही बात गांधी की तो यह समझना जरूरी है कि गांधी एक शोधार्थी थे। वे एक ऐसे राह के राही थे जिसने विचारों को आचार में ढाला। अपने देश के चिंतकों में बुद्ध के बाद वे पहले इंसान हुए जिन्होंने विचार, आचार और व्यवहार को संतुलित करने का अभ्यास किया। विचार को जीवन में बरता। हमें लगता है कि गांधी को अभी अपने को देश ने नहीं समझा है। और यह इसलिए हो रहा है कि विलासिता और भोग के भौतिकवादी सिद्धांत ने हमें अपनी गिरफ्त में ले लिया है। सामाजिक न्याय का सिद्धांत पिछड़ गया है। डॉक्टर लोहिया ने जिस सामाजिक न्याय के सिद्धांत को प्रतिपादित किया वह सिद्धांत गांधी के विचारों को अमली जामा पहनाने का सिद्धांत है। और सामाजिक न्याय को गतिमान किए बिना समाज में समता और न्याय स्थापित नहीं किया जा सकता। यह बात गांठ बांध लीजिए। सामाजिक न्याय का सिद्धांत महज आरक्षण को जमीन पर उतारना नहीं है बल्कि सामाजिक न्याय का सिद्धांत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गैरबराबरी को समाप्त कर एक समतामूलक समाज का निर्माण करना है। डॉक्टर लोहिया की सप्त क्रान्ति इसकी स्पष्ट राह दिखाती है।

इसलिए भले कुछ लोगों को लगे कि देशज समाजवाद नयी अवधारणा है। लेकिन यह गांधी, डॉक्टर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिवर्तन की मिलीजुली अवधारणा है। इसमें मार्क्स के राज्य-विलोपीकरण का सिद्धांत भी है और गांधी के स्वराज का भी।

कर्पूरी जी बातें सुन हमसब स्तभ थे। धोती-कुर्ता में लिपटा साधारण सा यह व्यक्ति साक्षात सुकरात की तस्वीर की याद दिला रहा था। मोटे चश्मे में चमकता यह चेहरा देशज इंसान का एक प्रतिरूप-सा दिख था। ऐसे थे हमारे कर्पूरी जी! देशज समाजवाद का शिल्पकार- एक साधारण-सा मानव!!

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घनश्याम

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘जुड़ाव’ के प्रमुख हैं। सम्पर्क +919431101974, judav_jharkhand@yahoo.com
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