जस की तस धर दीनी चदरिया
वे शादियों के महीने थे। एक दफा एक साथ इतने ‘यजमान’ लोगों के यहाँ से बुलाहट आ गयी जितने पुरूष सदस्य कर्पूरी ठाकुर के परिवार में थे ही नहीं। तब कर्पूरी जी अपने पुश्तैनी गाँव में ही मौजूद थे। पूर्व मुख्यमन्त्री कर्पूरी ठाकुर खुद एक घड़े में जल और आम के पत्ते रखकर चल पड़े। वहाँ मौजूद गाँव के कुछ सम्भ्रान्त लोगों ने उन्हें ऐसा करने से रोका।
उसके बाद कर्पूरी जी के पुत्र ने वह भूमिका निभायी। शादी-ब्याह आदि में ब्राह्मण-हज्जाम की भूमिका से सब परिचित हैं। मुख्यमन्त्री रह चुकने के बाद भी कर्पूरी जी के परिवार ने अपना पुश्तैनी काम नहीं छोड़ा था। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कर्पूरी जी राजनीति में खाली हाथ आये और वे खाली हाथ ही चले गये। जस की तस धर दीनी चदरिया। इसीलिए कर्पूरी जी के निधन पर उनकी आखिरी यात्रा में जितनी बड़ी संख्या में पटना में बिहार भर के आम गरीब लोग जुटे थे,वह एक रिकार्ड ही था। आज भी अधिकतर नेताओं की जयन्तियाँ आम तौर पर उनके दल, बिरादरी, परिवार के लोग ही मनाते हैं। अपवादों की बात और है। पर कर्पूरी जी की जयन्ती और पुण्यतिथि मनाने के लिए समाज के विभिन्न तबके के लोगों में होड़ मची रहती है।
कर्पूरी ठाकुर के सन 1988 में निधन के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा उनके गाँव गये थे। कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर बहुगुणा जी की आँखों में आँसू आ गये थे। इतना बड़ा नेता और सम्पत्ति के नाम पर सिर्फ पुश्तैनी झोपड़ी! दरअसल बहुगुणा इस सोच में पड़ गये थे कि दो बार मुख्यमन्त्री और एक बार उप मुख्यमन्त्री रहे कर्पूरी ठाकुर में किस आले दर्जे का संयम था। कर्पूरी ठाकुर ने अपनी पुश्तैनी झोपड़ी में एक ईंट तक नहीं जोड़ी थी। स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर 1952 में ही विधायक बन गये थे। तब से वे मृत्युपर्यंत लगातार विधायक, सांसद, प्रतिपक्ष के नेता, उप मुख्यमन्त्री और मुख्यमन्त्री रहे। उन्होंने देश के किसी हिस्से में कहीं अपने लिए न तो कोई मकान खरीदा और न ही भूखंड।
उनके ही मुख्यमंत्रित्व काल में पटना में विधायक कालोनी यानी कौटिल्य नगर बसाने का सरकारी फैसला हुआ। विधायकों, सांसदों को सस्ती दर पर सरकारी जमीन दी गयी। उस समय कई विधायकों, सांसदों और मंत्रियों ने कर्पूरी जी से आग्रह किया कि वे भी एक भूखंड ले लें। पर कर्पूरी जी ने उनके सामने अपने हाथ जोड़ लिये। विधायक, सांसद, मुख्यमन्त्री तथा प्रतिपक्ष के नेता के रूप में उन्हें जितने पैसे मिलते थे, उनमें से बचाकर कोई मकान या फ्लैट खरीदना उनके लिए सम्भव नहीं था। वैसे भी समाजवादी कर्पूरी निजी सम्पत्ति एकत्र करने के खिलाफ थे।
दरअसल कर्पूरी जी गाँधी के ट्रस्टीशिप में विश्वास करते थे। वे कहते थे कि सरकार के पैसे जनता के ही पैसे हैं। उनकी रक्षा करना और उन पैसों को जनहित में ही खर्च करना हमारा कर्तव्य है। उनकी पोशाक पर भी इस बात का असर साफ-साफ देखा जा सकता था कि वे एक गरीब देश की गरीब जनता के वास्तविक प्रतिनिधि थे। सन 1977 में मुख्यमन्त्री बनने के बाद की कहानी है। जयप्रकाश नारायण के पटना स्थित आवास पर जेपी का जन्मदिन मनाया जा रहा था। उस अवसर पर देश भर के जनता पार्टी के बड़े-बड़े नेतागण जुटे थे। बिहार के तत्कालीन मुख्यमन्त्री कर्पूरी ठाकुर भी वहाँ पहुंचे। उनका कुर्ता थोड़ा फटा हुआ था। चप्पल की स्थिति भी ठीक नहीं थी। दाढ़ी बढ़ी हुई थी और बाल बिखरे हुए थे क्योंकि कंघी शायद ही वे फेरते थे। धोती थोड़ा ऊपर करके कर्पूरी जी पहनते थे। यानी देहाती दुनिया के सच्चे प्रतिनिधि।
नानाजी देशमुख ने कहा कि भई किसी मुख्यमन्त्री के गुजारे के लिए न्यूनत्तम कितनी तनख्वाह मिलनी चाहिए? वह तनख्वाह कर्पूरी जी को मिल रही है या नहीं? इस टिप्पणी के बाद जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चंद्रशेखर उठ खडे़ हुए। वे नाटकीय ढंग से अपने कुर्ते के अगले हिस्से के दो छोरों को दोनों हाथों से पकड़कर खड़े हो गये। वे वहाँ उपस्थित नेताओं के सामने बारी-बारी से जा-जाकर कहने लगे, ‘आपलोग कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में चंदा दीजिए। चंदा मिलने लगा। कुछ सौ रुपये तुरंत एकत्र हो गये। उन रुपयों को चंद्रशेखर जी ने कर्पूरी जी के पास जाकर उन्हें समर्पित कर दिया और उनसे आग्रह किया कि आप इन पैसों से कुर्ता ही बनवाइएगा। कोई और काम मत कीजिएगा। कर्पूरी जी ने मुस्कराते हुए उसे स्वीकार कर लिया और कहा कि इसे मैं मुख्यमन्त्री रिलीफ फंड में जमा करा दूंगा।
कर्पूरी ठाकुर का आम जनता से हमेशा तादात्म्य बना रहा। गरीब जनता उन्हें अपना नेता मानती थी। चाहे वे सत्ता में रहें या नहीं, गरीबों की भीड़ उनके पास जुटी रहती थी। सिर्फ सन् 1984 की कांग्रेस लहर में समस्तीपुर से लोकसभा चुनाव वे हार गये, अन्यथा इसके अलावा कर्पूरी जी ने कोई चुनाव नहीं हारा। जबकि उनकी अपनी जाति हज्जाम की आबादी हर क्षेत्र में नाममात्र की ही होती है।
सन् 1972-73 में इन पंक्तियों के लेखक को कर्पूरी ठाकुर के निजी सचिव के रूप में काम करने का मौका मिला था। तब मैं समाजवादी कार्यकर्ता था। तब उनकी सादगी करीब से देखने का मौका मिला था। उनका पटना स्थित सरकारी आवास उनसे मिलने वाले ग्रामीणों से अक्सर भरा रहता था। कभी-कभी खुद और अपने परिवार के सदस्यों को भी असुविधा में डालकर अति विनम्र कर्पूरी जी अतिथियों का स्वागत करते थे। वे नौकर और अपने पुत्रों को छोड़कर किसी अन्य को तुम नहीं कहते थे। वे ‘आप’ से ही सम्बोधित करते थे। एक बार समस्तीपुर से उनके स्कूल के दिनों के गुरू उनसे मिलने पटना आये थे और अपने ‘छात्र कर्पूरी ठाकुर’ के आवास में टिके थे।
कर्पूरी जी ने अपने परिवार के एक सदस्य से कहा कि मास्टर साहब के लिए अपनी बिछावन आज रात के लिए खाली कर दीजिए। बेचारा परिजन भी आगंतुकों से परेशान ही रहा करता था। स्वाभाविक था कि वह झल्ला जाये। उनकी झल्लाहट की खबर कर्पूरी जी को भी मिल गयी। बिछावन तो खाली हो गयी, पर दूसरे दिन कर्पूरी जी ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा कि आप सरकारी अफसर को फोन करके बुलाइए और हमारे आवास में जितनी चौकी और चारपाई सरकार की हैं, सब वे ले जाएँ। हम लोग अब से फर्श पर ही बिछावन लगा कर सोयेंगे। यही हुआ। चारपाइयां वापस चली गईं। सबकी बिछावन फर्श पर ही लग गयी। इन पंक्तियों का लेखक मात्र डेढ़ साल तक कर्पूरी जी के साथ था। जब तक रहा, उन्हें फर्श पर ही सोते देखा। बाद में क्या हुआ, यह नहीं मालूम। यह थी कर्पूरी ठाकुर की सादगी।
कर्पूरी ठाकुर नहीं चाहते थे कि उनके परिजन उनके साथ पटना में रहें। उनकी आय सीमित थी। महीने में बीस दिन वे बिहार के दौरे पर ही रहते थे। एक बार उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से भी कहा कि आप उनलोगों से कह दीजिए कि वे पितौझियां चले जाएँ। उत्तर बिहार के समस्तीपुर जिले में यह गाँव स्थित है। उनके परिजन से इन पंक्तियों के लेखक के लिए यह कहना एक कठिन काम था। पर कहना पड़ा। उसके बाद वे लोग पटना कम ही रहने लगे थे।
गाँव में उनके परिवार के पास आय का पारंपरिक जरिया ही था। खेती-बारी नाममात्र की थी। शादी-व्याह में हज्जाम-ब्राहमण को बुलाया जाता है। यजमानों से दक्षिणा-उपहार मिलते हैं। कर्पूरी जी के मुख्यमन्त्री बन जाने के बाद भी उनके पिता जी गोकुल ठाकुर यह पुश्तैनी काम करते थे। कर्पूरी जी ने उन्हें कभी रोका नहीं बल्कि बढ़ावा दिया।