संस्कृत की श्रेष्ठता और जाति
हमारे गांव में खड़ी हिंदी बोलने वालों से यह अक्सर कहा जाता है कि बहुत अंग्रेजी बतिया रहा है। बोली, हिंदी जा रही है लेकिन भाव अंग्रेजी का आ रहा है। तात्पर्य है कि भाषा के उस शहरी रूप का जो गांव की बोली को चुनौती देती नजर आती है। जिस वजह से खड़ी बोली,हिंदी के प्रति ऐसा रोष का नजर आता है। यह रोष हिंदी भाषा के खिलाफ नहीं है, अपितु अपनी बोली/भाषा के सम्मान का है। जैसे अंग्रेजी बोलकर जब किसी को अपनी श्रेष्ठा दिखाने का भाव प्रेषित किया जाता है तब मामला अंगरेजियत का बन जाता है। अंगरेजियत का यह भाव या मानसिकता अलग-अलग संदर्भ में विषयगत है।
संभवत कुछ इसी मानसिकता के खिलाफ कबीर कहते हैं:-“संसकिरत है कूप जल,भाखा बहता नीर”
कबीर भाषा के मायने को विस्तार देते हैं। जहाँ भाषा किसी जाति-धर्म की श्रेष्ठता के बंधन से मुक्त है। वह कुएं की पानी की तरह संकुचित नहीं है। भाषा का जातीय संकुचन ही है, जिसकी वजह से संस्कृत का विकास हजारों वर्षों में भी बहुत विविधता पूर्ण नहीं है। प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, हिंदी होते हुए उसकी कई बोलियों और भाषा के कई रूप आज मौजूद हैं। व्यापक जनमानस में फैली हुई भाषा, क्षेत्र और भूगोल के अनुसार अपने रूप को निर्मित करती है। भाषा नदी की तरह सबको समाहित करती हुई सबके लिए समान रूप से बह रही है। संस्कृत, भाषा के स्तर पर उसकी अपनी जगह है। लेकिन देववाणी और हिंदी की जननी कह देने की साजिश,श्रेष्ठता और थोपी गई राजनीति से संचालित है। संस्कृत में जाति का आग्रह उसे उच्च बनाता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि संस्कृत में बहुत सारे ग्रंथ लिखे गए हैं, लेकिन इससे देववाणी होने का क्या मायने? इसी ब्राह्मणवादी कुलीनता का प्रभाव संस्कृत पर है। जिसे हम प्रपंच के रूप में भी देख सकते हैं। भाषा के उपलब्ध ज्ञान को नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन यह मनवा देना कि संस्कृत देववाणी और जननी है। यह तो सरासर साजिश है।
सवाल यह है कि 1500 ईसवी पूर्व मौर्य से भी पहले जिसे पॉपुलर इतिहास में वैदिक काल कहा जाता है। उस समय आम जनता के रोजमर्रा की जिंदगी में संस्कृत का योगदान रहा होगा? शायद कुछ भी नहीं! जब संस्कृत आम जनता की भाषा नहीं थी, तब जनता गूंगी तो नहीं थी। निःसंदेह उनकी भाषा थी। जिसे हम प्राकृत के नाम से जानते हैं। यह संस्कृत से पूर्व रही है। भोलेनाथ तिवारी लिखते हैं कि:- “प्राकृत शब्द के संबंध में दो मत हैं: कुछ लोग इस की व्युत्पत्ति ‘प्राक्+कृत’ अर्थात (संस्कृत से) पहले की बनी हुई या ‘पहले की हुई’ मानते हैं। दूसरे शब्दों में प्राकृत ‘नैसर्गिक’ ‘प्रकृत या अकृत्रिम’ भाषा है, और इसके विपरीत संस्कृत कृत्रिम या संस्कार की हुई भाषा है। नमि साधु ने ‘काव्यालंकार’ की टीका में लिखा है:’प्रकृतेति,सकल-जगज्जन्तूनांव्याकरणादिभिरनाहतसंस्कारः सहजो वचन-व्यापारः प्राकृतिः प्रकृति तत्र भवः सेव वा प्राकृतम्’। इस रूप में प्राकृत पुरानी भाषा है, और संस्कृत उसका संस्कार करके बनाई हुई बाद की भाषा है”*1इसके बावजूद लोकप्रिय समाज में संस्कृत को जननी माना जाता है। अक्सर स्कूलों में भी यही पढ़ाया जाता है। जबकि ज्यादातर विद्वान इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं कि संस्कृत से पूर्व प्राकृत जन भाषा थी और संस्कृत कहीं न कहीं अपने रूप को प्राकृत से ग्रहण करती है। पंडित किशोरी दास वाजपेई लिखते हैं की “हिंदी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मीकि या कालिदास आदि के काव्य-ग्रंथों में हमें उपलब्ध है।… यही स्थिति संस्कृत और हिंदी की है। दोनों का पृथक और स्वतंत्र पद्धति पर विकास हुआ है; परंतु हैं दोनों एक ही मूल भाषा की शाखाएँ”*2
किसी भाषा को देसी-विदेशी मानकर उसका विरोध नहीं करना है बल्कि उसके व्यवहारिक उपयोगिता, विस्तार और सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं को देखा जाना चाहिए। वरना इस बहस में संस्कृत का जितना सामंजस्य ‘अवेस्ता’ के साथ है और जिस प्रकार से ऋग्वेद में ‘अवेस्ता’ जो कि ईरान की भाषा है, मौजूद है। उससे संस्कृत का मूल हिंदुस्तानी प्रतीत नहीं होता है। भोलानाथ तिवारी अपनी पुस्तक हिंदी भाषा में बताते हैं कि जब आर्य भारत आए थे तो उस समय उनकी भाषा ईरानी भाषा से काफी अलग नहीं थी। लेकिन जैसे-जैसे वे यहाँ के लोगों के साथ मिश्रित होने लगे, उनकी भाषा में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ने लगा और भाषा में बदलाव होने लगा और उनका मानना है कि वैदिक संहिताओं का काल मोटे रूप से 1200 ई०पूर्व से 900 ई० पूर्व के लगभग हैं। यूँ तो वैदिक संहिताओं की भाषा में भी एकरूपता नहीं है। कुछ भाषाएं बहुत पूर्वर्ती है तो कुछ परवर्ती। उदाहरण के लिए वह बताते हैं कि अकेले ऋग्वेद में ही प्रथम और दसवें मंडल की भाषा तो बाद की है और शेष की पुरानी। यही पुरानी भाषा अवेस्ता के अपेक्षाकृत निकट है। अन्य संहिताएँ (यजु:,साम,अथर्व) और बाद की हैं। वैदिक संहिताओं की भाषा उस समय के सामान्य बोलचाल की भाषा से भिन्न थी क्योंकि वह काव्य भाषा है। उन्होंने यह भी बताया पांचवी सदी में पाणिनि ने अपने व्याकरण से संस्कृत भाषा को अनुशासित, नियमबद्ध और परिनिष्ठित बनाया। एक प्रकार से मानक रूप प्रदान किया जो लौकिक संस्कृत का एक आदर्श बन गया। पाणिनि की रचना के बाद भी पाली, प्राकृत, अपभ्रंश और अन्य आधुनिक भाषाएं अपनी दिशा में लगातार विकसित होती आई और संस्कृत साहित्य भी इसके समानांतर आगे बढ़ता रहा। कई विद्वानों ने माना है कि संस्कृत ने इसी देश में यहां की मूल भाषा प्राकृत से मिलकर अपना रूप धारण किया है। जैसे उर्दू यहाँ की भाषा के साथ मिलकर अपने स्वरूप को धारण करती है। पंडित कामता प्रसाद गुरु का मानना है कि “वैदिक काल के विद्वानों ने देववाणी को प्राकृत भाषा की भ्रष्टता से बचाने के लिए उसका संस्कार करके व्याकरण के नियमों से उसे नियंत्रित कर दिया। इस परिमार्जित भाषा का नाम ‘संस्कृत’, हुआ जिसका अर्थ “सुधारा हुआ” अथवा “बनावटी” है। यह संस्कृत भी पहली प्राकृत की किसी शाखा से शुद्ध होकर उत्पन्न हुई है।”*3
मौर्यों के बाद, ब्राह्मणत्व में देवत्व का भाव इस प्रकार शामिल किया गया, जिसकी वजह से भाषा, समाज, संस्कृति और इतिहास में इनकी श्रेष्ठा दर्ज करवा दी गई। चाणक्य नाम का व्यक्ति जिसका पूरे मौर्य इतिहास में कहीं जिक्र नहीं होता है। फिर विशाखदत्त का नाटक ‘मुद्राराक्षस’ ने उस संदिग्ध चरित्र को प्रसिद्ध कर दिया। इस प्रसिद्धि ने चाणक्य के चरित्र को मिथकीय ढंग से स्थापित कर दिया। जिसमें इतिहास और मिथक का घालमेल कर दिया गया। ‘के दामोदरन’ अपनी पुस्तक भारतीय चिंतन परंपरा में लिखते हैं “किन्तु कौटिल्य के अर्थशास्त्र में, जो मनुस्मृति और नारदस्मृति दोनों के बाद की रचना है, न केवल शूद्रों और वैश्यों को ही वरन् अत्यंत संकट काल के काल में ब्राह्मणों को भी दास बनाने की व्यवस्था है।”*4 इसके अलावा कुलदीप कुमार जी के अनुसार:- “एच.सी. रायचौधुरी का मानना है कि मौर्यकाल में पाली, प्राकृत अथवा मागधी भाषाएं ही प्रचलित भाषाएं थी। सम्राट अशोक ने भी प्राकृत भाषा में अपने शिलालेख लिखवाए थे। अतः अर्थशास्त्र की भाषा संस्कृत दर्शाती है कि यह उस समय की कृति है, जब संस्कृत भाषा में ग्रंथ लिखे जाने लगे थे। ऐसा दूसरी सदी के बाद ही होना शुरू हुआ था। अतः अर्थशास्त्र सम्राट सन्दरकोत्स से कम से कम 500 साल बाद लिखा गया।…प्रसिद्ध विद्वान डॉ. जौली ने अर्थशास्त्र की भाषा-शैली का गहन अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि यह ग्रंथ तीसरी सदी की कृति है।… डॉक्टर कल्यानोव के अनुसार आज के समय जो अर्थशास्त्र उपलब्ध है। वह तीसरी सदी से पहले की कृति नहीं है, क्योंकि इसमें उत्पादन के जिन साधनों का उल्लेख किया गया है, वह तीसरी सदी में ही प्रयोग किए जाने लगे थे।”*5
हमारे समाज में विशेष तौर से प्राचीन लोक समाज में ज्ञान-विज्ञान के अभाव में मिथकों का निर्माण बहुत है। लेकिन,ब्राह्मणवाद के सांस्कृतिक प्रभुत्व में अपने अनुकूल, मिथकों में भी काट- छांट और निर्माण किया गया। लोक नाट्य परंपरा पर नजर डालें, तो हमें इसकी लोकप्रियता दिख सकती है। प्रत्येक क्षेत्र के लोक नाटकों(सांग,ख्याल,माच, पंडवानी) में इस प्रकार की कथाएं प्रसिद्ध हैं। इन सभी लोकनाटकों के प्रसिद्धि की वजह से,जो गांव-गांव और घर-घर तक पहुंची। गीतात्मक होने के कारण बहुत आसानी से लोकमन में रच बस गया। निःसंदेह भिखारी ठाकुर ने लोकनाट्य परंपरा को मिथकीकरण से अलग पहचान दी है। नाट्य शैली की दृश्यात्मक और गीतात्मक अभिव्यक्ति, धर्म के अनुष्ठात्मक और आध्यात्मिक रूप से इतर था। जो मिथकों को प्रसिद्धि दिलाने में मदद कर रहा था। जिसने आज के समय में मिथकों को स्थापित कर दिया है। उदाहरण स्वरूप चाणक्य का किरदार, बुद्ध का दसवां अवतार, कबीर ब्राह्मणी का बेटा, वामन अवतार, असुरों की नकारात्मक छवि इत्यादि। इन उदाहरणों से तो यह समझ आता है कि, लोकप्रिय इतिहास के यथार्थ और कबीलाई/जन-जातियों के मिथकों में घालमेल करके एक जाति विशेष के वर्चस्व को स्थापित किया गया। इस राजनीति में देवता, महापुरुष और असुर इन सब के कहानियों और इतिहास को शामिल किया गया। इस संदर्भ को एक उदाहरण से समझ सकते हैं जो ‘के. दामोदरन’ अपनी पुस्तक में लिखते हैं “मूल निवासियों को आर्य म्लेच्छ अथवा दस्यु अथवा दास कहकर पुकारते थे।… ऋग्वेद से पता चलता है कि दस्युओं की संस्कृति आर्य संस्कृति से ऊंचे किस्म की थी। दस्युओं के किले बहुत मजबूत बताये गये हैं। उनके धार्मिक विश्वास अत्यंत उन्नत प्रतीत होते हैं क्योंकि उनके देवता आर्यों के देवताओं के समान मुख्य रूप से प्राकृतिक शक्तियों के ही प्रतिनिधि नहीं थे। वे शिव, देवी माता, लिंग और पवित्र ऋषभ (बैल) की पूजा करते थे। वेद दस्युओं का विशेष रूप से यह कहकर उल्लेख करते हैं कि वह आर्यों के देवों को नहीं मानते थे, उनकी आराधना नहीं करते थे, पुरोहितों को दक्षिणा नहीं देते थे या यज्ञ नहीं करते थे।”*6 “आदिम मनुष्य यह विश्वास करते थे कि फसलों को पैदा करनेवाली भूमि तथा बच्चों को पैदा करनेवाली स्त्री में अवश्य कोई अदृश्य सम्बंध है और यह दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। आदिकालीन आर्य लोग आर्येतर लोगों में प्रचलित लिंग पूजा का प्रायः बड़ी घृणा के साथ उल्लेख करते थे। “वे जिनका देवता लिंग है हमारे घर में न घुसने पायें”-यह उनकी प्रार्थना थी (ऋग्वेद-8.21.50)।”*7 इन उदाहरणों से यह समझ आता है कि कैसे समय के साथ चीजें एक दूसरे की संस्कृति में घुलमिल गई। लेकिन समय के साथ धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थाओं पर काबिज़ ब्राह्मणवादी शक्तियों ने चीजों को हाईजैक करके अपने अनुकूल बना लिया। इससे समन्वयात्मक और समतामूलक मिथक की संभावना धीरे-धीरे क्षरित होते चली गई। वास्तव में मिथक से ज्यादा इतिहास केंद्रित चेतना, देश-समाज को वैज्ञानिक समझ के साथ आगे बढ़ाएगा। मिथक के अपने विषयगत खतरे भी हैं। जिसे हम अपने देश के संदर्भ में मंदिर – मस्जिद विवाद, सांस्कृतिक व जातीय प्रभुत्व इत्यादि में देख सकते हैं। हमारे ज्यादातर मिथकों में ब्राह्मणत्व हावी रहा है। जिसकी वजह से उसकी गढ़ी गई मिथकीय कहानी लोकमन में प्रभावी ढंग से निरंतर संचालित हो रही है। यद्यपि यही भावना संस्कृत भाषा से भी जुड़ी हुई है, जो सामान्य जनता से दूर एक श्रेष्ठ ब्राह्मणवादी संस्कृति को प्रकट करता है। प्रोफेसर राजेंद्र प्रसाद सिंह लिखते हैं “… वैदिक भाषा एक कृत्रिम और सामान्य जनों के लिए उलझाऊ भाषा है जिसे जान-बूझकर एक विशेष वर्ग ने अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए गढ़ा था। ऐसी हालात में इस भाषा के माध्यम से जनवादी साहित्य का सृजन असंभव है। वैदिक साहित्य का आम जनता के सुख-दुख, आशा – निराशा और मेहनत- मजदूरी से कोई सरोकार नहीं है। यह तो एक मनगढ़ंत भाषा में यज्ञ संस्कृति का वर्णन करने वाला काव्य है।”*8
देखा जाए तो आज भी संस्कृत मंत्रों का वह पूरा का पूरा संस्कार है जो प्रत्येक समाज और जाति में देखने को मिलता है। समाज के वंचित वर्ग की वैचारिकी उसके खिलाफ है, लेकिन पंडित पूजा के परम्परागत संस्कार और जातीय श्रेष्ठता में बराबरी के चाह जो हीन मानसिकता से ग्रसित है, वह उस परंपरा को नहीं छोड़ पाते हैं। जिसके लिए ज्योतिबा फूले, आम्बेडकर, सावित्रीबाई फुले, संत गाडगे, कबीर, पेरियार और ना जाने कितने ही लोगों ने इस सांस्कृतिक गुलामी को तोड़ने का प्रयास किया जिसमें कुछ हद तक सफल भी रहे हैं। इस दोहरे मानदंडों के साथ एक तरफ दलित या पिछड़ा खुद को आम्बेडकरवादी कहता है और दूसरी ओर ब्राह्मणवादी व्यवस्था का पोषण भी करता है। दिक्कत संस्कृत भाषा की नहीं है बल्कि उसकी विशेषता और भूमिका निर्धारित है, जिसमें वह सबसे ऊंचे पायदान पर है। जिसकी जगह कोई और नहीं ले सकता है। जहाँ संस्कृत भाषा की वैधता के बगैर पवित्रता का भाव नहीं आ पाता है। इस पवित्रता की वैधता में अन्य बोलियां मानो अवैध मालूम पड़ती है। मसला तो समानता का है। लोक बनाम शास्त्र की लड़ाई में भक्तिकाल लोक को स्थापित करता है। जहाँ पर सारे प्रसिद्ध कवि विशेष तौर से सगुण काव्य के, जिसमें तुलसी का नाम प्रमुख है। जो संस्कृत जानते हुए भी अवधि में अपनी रचना को लिखते हैं। इसलिए भक्तिकाल में जन-भाषा, उत्तर भारत की संस्कृति को अभिव्यक्त करती है। इसी वजह से कबीर,सूर,नानक जिन्होंने लोक-भाषा को अपनी रचना का आधार बनाया। तब जाकर उस समय उत्तर भारत की जनमानस का साहित्य बन गया। जहाँ राम भी कई रुपों में मौजूद है। यह अलग बात है कि लोक समाज के साहित्य के ऊपर पॉपुलर वैष्णव विचार ज्यादा हावी रहा है। लोक बनाम शास्त्र की लड़ाई में लोक तो रहा लेकिन सगुण साहित्य ,निर्गुण साहित्य की तुलना में पॉपुलर मिथकों को स्थापित करने में कामयाब हो गया। बौद्ध और जैन साहित्य में भी राम की कहानी मौजूद रही है। जैन कवि स्वयंभू रचित पउमचरिउ एक प्रसिद्ध रचना है। महाभारत और रामायण की कथा, साहित्य में विशिष्ट स्थान रखते हैं। तभी तो वह लोकप्रिय है। हजारों वर्षों में जैसे जाति, भारतीय जनमानस की मानसिकता में रूढ़ हो गई है, वैसे ही मिथक कथाएं भी रूढ़ हो गई हैं। तुलसी के राम, वाल्मीकि के राम, स्वयंभू के राम और न जाने कितने राम हैं। मसला तो यही है कि राम के एक विशेष संस्करण को ही मानने के लिए मजबूर या उसे प्रसिद्ध किया जाता है। भाषा और मिथकों की केंद्रीय श्रेष्ठता को तोड़कर उसका विकेंद्रीकरण महत्वपूर्ण है। जिसमें सभी को स्पेस मिल सके। जिसमें सिर्फ रामानंद सागर के ‘रामायण’ को ही केंद्र ना माना जाए। भाषा संस्कृति की संवाहिका कही जाती है। ऐसे में एक बड़ा तथ्य तो भाषा विद्वानों के बीच जाहिर है की रामायण-महाभारत पाणिनि के बाद के हैं। यह बात कहीं विलीन सी हो गई है। भोलेनाथ तिवारी लिखते हैं कि “भाषा के जानकारों से यह बात छिपी नहीं है कि रामायण-महाभारत की भाषा पाणिनि के बाद की है। पुराने पुराणों की भाषा और भी परवर्ती है। फिर कालिदास से होते क्लैसिकल संस्कृत, हितोपदेश तक तथा और आगे तक आई है। हमें प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के वैदिक और लौकिक संस्कृत दो रूप मिलते हैं।*9
भाषा और व्याकरण का सामंजस्य, इतिहास और मिथक के भेदों को सुलझाते हैं। बीसवीं सदी से चले भाषाई झगड़े में, क्षेत्र और अस्मिता से ज्यादा राजनीतिक पहलू शामिल है। किसी दक्षिण भारतीय समाज को हिंदी थोपी गई भाषा के रूप में और अपनी अस्मिता के लुप्त होने का भय मालूम होता है। हमारा संविधान सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार करता है ना कि उसे थोपता है। लेकिन कई बार तार्किक रूप से संवैधानिक, समतामूलक और अभिव्यक्ति परक विचार कई लोगों के लिए थोपी गई होती है। संविधान अपने ढांचे में तार्किक ,समतामूलक और मनुष्यपरक है। तथापि लोकतांत्रिक ढांचे से बाहर सोचने वाले लोगों के लिए दिक्कत है। लेकिन राष्ट्रभाषा के सवाल में जब तर्क दिया जाता है कि हिंदी लोकप्रिय, ज्यादा आबादी,व्यापक साहित्य और ग़ैर हिंदी भाषा क्षेत्रों/देशों में ही बोली जाती है, तो इसे राष्ट्रभाषा माना जाना चाहिए। एक झंडे के नीचे एक भाषा की स्थापना की बात करता है लेकिन उससे किसी अन्य भाषा और बोली को समाप्त कर अपनी जगह बनाने का उद्देश्य शामिल नहीं है। इसी तरीके से तर्क के धरातल पर संस्कृत ना तो जनव्यापी है और ना ही लोकप्रिय, तो फिर उसकी सांस्कृतिक और सामाजिक संस्था किस बात की? भोलानाथ तिवारी के अनुसार “भाषा के अर्थ में ‘संस्कृत'(संस्कार की गई,शिष्ट या अप्रकृत) शब्द का प्रथम प्रयोग वाल्मीकि रामायण में मिलता है।…. इस प्रकार मध्यदेशी तथा पूर्वी का भी संस्कृत पर कुछ प्रभाव है। लौकिक या क्लैसिकल संस्कृत साहित्य की भाषा है। अतः जिस प्रकार हिंदी में जयशंकर प्रसाद की गद्य या पद्य भाषा को बोलचाल की भाषा नहीं कह सकते, उसी प्रकार संस्कृत को भी बोलचाल की भाषा नहीं कह सकते।”*10
इतिहासकार डॉक्टर ‘प्रेम कुमार’ अपने शोध कार्य में बताते हैं कि “प्राचीन भारत में शहरी भाषाई परिदृश्य में संस्कृत का प्रभुत्व बहुत कम था। मुद्राराक्षस में, दोनों जल्लाद मागधी बोली बोलते हैं। अधिकांश महिलाओं और निम्न पात्रों को हीन दिखाने के लिए प्राकृत बोलियों का उपयोग करते हुए दिखाया गया है। मृच्छकटिकम् में केवल पांच पात्र (चारुदत्त, विदूषक, आर्यक, सर्विलक और न्यायाधीश) संस्कृत में बात करते हैं। आर्यक को छोड़कर यह सभी ब्राह्मण जाति के हैं। इसके विपरीत, बांकी पात्र (अट्ठाईस) शौरसेनी, मागधी, पावनी, साकारी इत्यादि स्थानीय भाषाओं में बात करते हैं। जातीय आधारित भाषाई विभाजन शूद्रक,भास,कालिदास और विशाखादत्त के नाटकों में देखे जा सकते हैं। जहाँ उच्च वर्ग के चरित्र संस्कृत में संवाद करते हैं वहीं निम्न वर्ग के चरित्र प्राकृत में।”*11 जाति या वर्ण की व्यवस्था के आधार पर संस्कृत भाषा का संरक्षण होता रहा है। जिसका प्रमाण संस्कृत के नाटकों से भी मालूम पड़ता है। भाषा संरक्षण की प्रेरणा का आधार, मूलतः पवित्रता और देववाणी के भाव में निहित था, जिसका जातीय संस्कार वेदों से प्राप्त होता है। “वेद, समग्र रूप से, हिंदू धर्म के मूल पाठ्य घटक का निर्माण करते हैं, और उन्नीसवीं शताब्दी से पहले सौ से अधिक पीढ़ियों तक, उनकी अंतर्निहित पवित्रता के कारण, हिंदू धर्म की सर्वोच्च जाति, ब्राह्मणों का एकमात्र संरक्षण रहा था।”*12
जो भाषा एक बड़े समाज का हिस्सा नहीं रही है। उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक श्रेष्ठता अन्य भाषाओं की तुलना में ज्यादा क्यों है? भाषा का इतिहास मनुष्य के इतिहास से भी जुड़ा है। जिसे भावुकता और श्रेष्ठता के भाव से नहीं अपितु इतिहास और मानवता के विकास से देखना चाहिए। “साइंस पत्रिका”*13 ने अपने एक लेख में बताया कि,523 लोगों के डीएनए की जांच हुई जो 8000 साल पहले से उत्तरी दक्षिणी और मध्य एशिया में बसे थे। तीसरी शताब्दी बी.सी. के शुरुआत में काफी जनसंख्या यूरेशिया से यूरोप में गई और इसी वजह से इंडो-यूरोपियन भाषा भी फैली। इसी तरह का पलायन साउथ एशिया की ओर भी देखा गया। लोगों के इस पलायन से ही इंडो-यूरोपियन भाषा भी फैली। लेख में यह भी बताया गया कि, आधुनिक दक्षिण एशियाई लोगों में स्टेपी वंश मुख्य रूप से पुरुषों के है। ब्राह्मण और भूमिहार समूहों में अनुपात रूप से अधिक है। इससे भी पहले लाखों वर्ष पूर्व अफ्रीका में मानव की कई प्रजातियों की उत्पत्ति हुई थी। आज उनमें से होमो सेपियंस प्रजाति दुनिया भर में फैली हुई है। जिस वजह से मूल और आदि का सवाल बनता ही नहीं है। श्रेष्ठताबोध की मानसिकता संस्कृति,नस्ल,जाति,क्षेत्र इत्यादि को प्रभावित करती है। इसकी आवश्यकता नहीं है। मानव समाज समन्वय के साथ जीता आया है। इस नजरिए से भक्तिकाल भाषा,संस्कृति,जाति इत्यादि के श्रेष्ठता में हलचल पैदा करता है। सोशल मीडिया के युग में भाषा की श्रेष्ठता को फेक न्यूज़ के बहाने स्थापित करने की कोशिश की जा रही है। जो कभी देववाणी के नाम पर हुई थी। बीबीसी की एक रिपोर्ट है “1985 में नासा के एक रिसर्चर रिक ब्रिग्स ने एआई मैग्ज़ीन में एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया था। इस रिसर्च पेपर का शीर्षक था, “नॉलेज रिप्रेजेंटेशन इन संस्कृत एंड आर्टिफिशियल लैंग्वेज” यानी संस्कृत और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में ज्ञान का प्रतिनिधित्व। ये रिसर्च पेपर कंप्यूटर से बात करने के लिए प्राकृतिक भाषाओं के इस्तेमाल पर केंद्रित था। उन्होंने इस रिसर्च पेपर में जो जानकारी दी थी उसके ग़लत मायने निकालकर इस फ़ेक न्यूज़ की शुरुआत की गई कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है…” “कंप्यूटर कमांड पूरी करने से पहले कोडिंग को मशीन की भाषा में बदलता है। अब अंग्रेजी के अलावा कई दूसरी कंप्यूटर भाषाएं भी विकसित कर ली गई हैं। उदाहरण के लिए तमिल में ‘येलिल’ एक प्रोग्रामिंग लैंग्वेज है जिसके सभी कीवर्ड्स तमिल में ही होंगे, जैसे अंग्रेजी में C,C++ हैं। कई भारतीय और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं की अपनी ऐसी प्रोग्रामिंग लैंग्वेज है लेकिन ये बहुत ज्यादा इस्तेमाल नहीं होती। इसी तरह संस्कृत में कीवर्ड्स के ज़रिए भी एक प्रोग्रामिंग लैंग्वेज बनाई जा सकती है। हालांकि, संस्कृत या कोई और विशेष भाषा कंप्यूटर या कोडिंग के लिए सबसे उपयुक्त साबित नहीं हुई है।”*14 कंप्यूटर की पूरी तकनीक अंग्रेजी भाषा में विकसित हुई। भारतीय भाषाओं में उसे उपलब्ध होने में काफी वक्त लगा। इसके बाद भी यह भाव की संस्कृत कंप्यूटर की सबसे उपयुक्त भाषा है। यह पूरी तरह से श्रेष्ठता बोध से ग्रसित, हजारों साल की फेक न्यूज़ परंपरा को आज भी स्थापित करने की कोशिश है। इन स्थितियों में भारतीय लोक व जनजातीय भाषाओं की क्या स्थिति है और उसके विकास के लिए कितना प्रयत्न किया गया है? यह सवाल पॉपुलर मीडिया और राजनीति का विषय नहीं बन पाता है। भारतीय संस्कृति की सारी ठेकेदारी संस्कृत के इर्द-गिर्द केंद्रित कर दी गई है। यह भाषा की गलती नहीं, मानसिकता की है।
संदर्भ:-
1)Pg13,हिंदी भाषा,डॉ.भोलानाथ तिवारी, किताब महल,नई दिल्ली
2) Pg1,हिंदी शब्दानुशासन, पं.किशोरीदास वाजपेयी, शास्त्री,नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
3) Pg14,हिंदी व्याकरण, पं.कामताप्रसाद गुरु,इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग
4)Pg73, भारतीय चिन्तन परम्परा, के. दामोदरन,पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस(प्रा.)लि.,नई दिल्ली
5)Pg 120-121,इण्डिका, प्राचीन भारतीय इतिहास:कुछ रहस्योद् घाटन,कुलदीप कुमार, सम्यक प्रकाशन,नई दिल्ली
6)Pg 19,भारतीय चिन्तन परम्परा, के. दामोदरन,पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस(प्रा.)लि.,नई दिल्ली
7)Pg32,वही
8) Pg25,भाषा का समाजशास्त्र, राजेंद्रप्रसाद सिंह,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
9)Pg9,हिंदी भाषा,डॉ.भोलानाथ तिवारी, किताब महल,नई दिल्ली
10)Pg11,वही
11) डॉ. प्रेम कुमार ,अप्रकाशित पीएचडी शोध, Aspect of urban Landscape and urbanism: A study of Natya Literature (2023), History Department, University of Delhi.
12)By Michael S. Dodson,Edited by Shruti Kapila,Contesting Translations: Orientalism and the Interpretation of the Vedas,Published online by Cambridge University Press: 05 April 2012.
13)The formation of human populations in South and Central Asia,https://www.science.org/doi/10.1126/science.aat7487
14)www.bbc.com, विग्नेश ए, बीबीसी तमिल,29 अक्टूबर 2020.