जब से प्रधानमन्त्री ने संसद में आन्दोलनकारी, आन्दोलनजीवी और परजीवी का गूढ़ वर्गीकरण किया है तब से इस स्तम्भकार के लिए यह समझ पाना कठिन हो रहा है कि स्वतन्त्रता सेनानी और समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया को आन्दोलनकारी कहें या आन्दोलनजीवी या परजीवी? चूँकि प्रधानमन्त्री और भाजपा के कई नेता डॉ. राममनोहर लोहिया का नाम लेते रहते हैं और कई लोहियावादियों को उम्मीद भी है कि वे उन्हें भारत रत्न देंगे ऐसे में यह सवाल जरूरी हो जाता है कि आखिर वे उन्हें किस श्रेणी में रखते हैं।
डॉ. राममनोहर लोहिया दो बार लोकसभा में चुनकर गये। एक बार मध्यावधि चुनाव में और दूसरी बार आम चुनाव में। लेकिन दूसरी बार वे सिर्फ सात महीने ही संसद में रह पाए और इस बीच उनका निधन हो गया। बाद में उनका चुनाव भी अवैध घोषित करवा दिया गया। खास बात यह है कि सांसद बनने से पहले डॉ. लोहिया के पास आय का कोई नियमित जरिया नहीं था। उनके मित्र ही उनके रहने खाने और यात्रा वगैरह का ध्यान रखते थे। निधन के बाद उनके पास कोई संपत्ति भी नहीं थी। न तो बैंक बैलेंस और न ही कोई मकान या जमीन।
डॉ. लोहिया को याद करते हुए और उनकी आन्दोलनधर्मिता से थोड़ा दुखी रहने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए एक प्रोफेसर कहते हैं कि वे जब दिल्ली आते थे तो युवाओं से कहते भी थे कि क्या हुआ भाई तुम लोग बहुत दिनों से शांत बैठे हो किसी मामले पर आन्दोलित नहीं हुए। कुछ नारे नहीं लगे कहीं हड़ताल नहीं हुई।
लोहिया ने इलाहाबाद छात्र संघ के अध्यक्ष और समाजवादी युवजन सभा के नेता व बाद में सांसद बने बृजभूषण तिवारी को एक पत्र लिखते हुए देश के छात्रों युवाओं को सम्बोधित किया था। तब उन्होंने छात्रों से अपील की थी कि वे उन्हें एक शर्त पर अनुशासनहीनता की छूट देते हैं और वो यह कि वह स्वार्थप्रेरित नहीं होनी चाहिए। यानी परमार्थिक अनुशासनहीनता होनी चाहिए। इसी के साथ वे आन्दोलन को शांतिपूर्ण ही रहने की सलाह देते थे। वे कहते भी थे कि कई बार मन में हाथ उठाने का विचार आता है लेकिन गाँधी आगे आकर खड़े हो जाते हैं और अपने शपथ की याद दिला देते हैं। लोहिया को आन्दोलन का विचार और कर्म दोनों इतने प्रिय थे कि उसके लिए सदैव तैयार रहते थे। भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रियता के कारण जब 1944 में उन्हें बंबई से गिरफ्तार करके लाहौर जेल ले जाया गया तो भयंकर यातनाएं दी गयीं। वे उसी कोठरी में रखे गये जिसमें भगत सिंह को रखा गया था। उनका स्वास्थ्य बुरी तरह टूट गया, उनकी आँखें कमजोर हो गयीं लेकिन मनोबल नहीं टूटा। इसी साल उनके पिता का भी निधन हुआ था। दो साल बाद उनकी रिहाई हुई तो गोवा आराम करने गये लेकिन वहाँ भी उन्होंने दमनकारी पुर्तगाली सरकार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया। उन्हें पकड़ कर गोवा से निष्कासित किया गया और मुआवजा मांगा गया।
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आजाद भारत में लोहिया की पहली गिरफ्तारी नेपाल के मुद्दे पर हुई। राणा सरकार की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध नेपाल कांग्रेस के नेता बीपी कोइराला ने मई 1949 में आमरण अनशन शुरू कर दिया। चूँकि नेपाली कांग्रेस के पीछे डॉ. लोहिया की प्रेरणा थी इसलिए उन्होंने राणा सरकार के विरुद्ध दिल्ली में विरोध कार्यक्रम अपनाया। कांस्टीट्यूशन क्लब में मीटिंग रखी गयी। लोहिया के नेतृत्व में एक जुलूस निकला जिसे नेपाली दूतावास से 500 फुट की दूरी पर रोक लिया गया। आन्दोलनकारी वहीं बैठ गये और नारा लगाने लगे। एक घंटे बाद आंसू गैस के गोले छोड़े गये और लाठी चार्ज किया गया। लोग तब भी नहीं हटे तो लोहिया समेत कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।आजाद भारत में हुई इस पहली गिरफ्तारी पर टिप्पणी करते हुए लोहिया ने कहा, ‘सही है कि अंग्रेजों ने मेरे साथ जेल में बहुत बुरा बर्ताव किया लेकिन आंसू गैस के गोले छोड़े जाने का सम्मान तो स्वतन्त्र भारत की सरकार को ही मिलना चाहिए।’
लोहिया पर पंजाब सुरक्षा कानून लगा दिया गया और जमानत नहीं दी गयी। उनकी सुनवाई एक महाने तक चली। इसके विरोध में पूरे देश में 20 जून को लोहिया दिवस मनाया गया। इस दिन नागरिक अधिकारों का दमन करने का विरोध किया गया। लोहिया ने कहा भी कि सरकार लोगों के असंतोष का दमन करने के लिए आपातकाल का सहारा ले सकती है। इसीलिए उन्होंने स्वीडन की तरह से लोगों के मौलिक अधिकारों की हिफाजत के लिए जन अदालत बनाने का सुझाव दिया जहाँ सरकार के अन्याय के विरोध में सुनवाई हो सके। उन्होंने कहा कि पंजाब सुरक्षा कानून आपातकाल की स्थिति में प्रयोग किया जाने वाला कानून है और इसका प्रयोग दिल्ली और कनाट प्लेस की सामान्य स्थिति में नहीं किया जाना चाहिए। इस मामले में उन्हें दो माह की सजा और 100 रुपए जुर्माना हुआ।
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लोहिया को 1951 में बंगलूर में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें जुलाई में विदेश जाना था। इस बीच मैसूर सोशलिस्ट पार्टी की कार्यकारिणी को गिरफ्तार कर लिया गया था। वे उनकी पैरवी में वहाँ गये तो उन्हें निशीथ विश्राम गृह में ही बन्दी बना लिया गया। इस मामले पर भी विरोध दिवस मनाया गया और सरकार ने उन्हें छोड़ दिया। एक जुलाई 1954 को उत्तर प्रदेश में नहर, पानी और लगान सत्याग्रह के सिलसिले में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के विरुद्ध इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर किया और अपने मामले में खुद ही बहस की। सितम्बर के महीने में उनकी रिहाई हुई।
एक बार फिर 2 नवम्बर 1957 को उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ में डॉ. लोहिया को गिरफ्तार कर लिया। वे बिक्री कर का विरोध कर रहे थे। उन्हें डॉ.किए के काम में बाधा डालने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। उधर समाजवादी लोग अंग्रेजी शासकों का पुतला हटाओ आन्दोलन चला रहे थे। वे भी जेल में बंद थे। लोहिया को जेल में यातनाएं दी गयीं। उस समय संपूर्णानंद मुख्यमन्त्री थे। लोहिया न्यायिक प्रक्रिया की अनैतिकता पर सवाल उठा रहे थे और उससे सहयोग करने को तैयार नहीं थे। जेल में मजिस्ट्रेट ने अदालत लगाई और उन्हें कुर्सी से बांध कर मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया और उनका अंगूठा लगवाया गया। इस दौरान कैदियों से आन्दोलनकारियों पर हमले भी करवाए गये। लोहिया का कहना था कि किसी भी शांतिपूर्ण सत्याग्रह के लिए छह माह से ज्यादा सजा नहीं होनी चाहिए। बाद में उनका मामला हाई कोर्ट गया और फिर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। लोहिया निर्दोष पाए गये और छूटे।
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नवम्बर 1958 और नवम्बर 1959 में नेफा में प्रवेश और सत्याग्रह करने के सिलसिले में डॉ. लोहिया को दो बार गिरफ्तार किया गया। उन्होंने 1965 में 9 अगस्त के दिन पटना में भुखमरी विरोधी आन्दोलन किया। वहाँ भी उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लोहिया की रिहाई सुप्रीम कोर्ट से सुनिश्चित हो पाई।
असल में डॉ. लोहिया अन्याय के विरुद्ध भारतीय धरती पर ही नहीं विदेशी धरती पर भी संघर्ष करने से नहीं चूकते थे। अमेरिका में रंगभेद के विरोध में सभा करने गये डॉ. लोहिया को वहाँ के जैक्सन रेस्तरां में पकड़ लिया गया। बाद में पुलिस ने उन्हें शहर के किनारे ले जाकर छोड़ा।
अब सवाल उठता है कि मोदी जी ऐसे डॉ. लोहिया के लिए क्या कहेंगे ? आन्दोलनकारी या आन्दोलनजीवी? क्या यह कहा जाएगा कि डॉ. लोहिया का खर्च आन्दोलन से चलता था? या यह कहा जाएगा कि डॉ. लोहिया एक परजीवी थे।हर आन्दोलन का नेतृत्व स्थानीय भी हो सकता है और बाहरी भी। सवाल यह है कि आन्दोलन करने वाले उस व्यक्ति से विचार और आचरण के स्तर पर प्रेरणा पा रहे हैं या नहीं। आज देश में जो लोग भी आन्दोलन चलाते हैं या देश भर के आन्दोलनों का समन्वय करते हैं उन्हें आन्दोलनजीवी कहना परिवर्तन और बेहतरी के लिए चल रही इंसानी बेचैनी का अपमान है। हो सकता है कुछ लोगों का मानना हो कि जो रास्ता सरकार तय कर रही है और चलाना चाहती है वही एक रास्ता है जिस पर सबको चलना चाहिए। वह उनका अधिकार और कर्तव्य है और वे उस पर चलें। लेकिन जो लोग वैसा नहीं मानते और सोचते हैं कि इसका कोई विकल्प और बेहतर रास्ता भी बन सकता है उन्हें उसे साबित करने का हक है। इसी बात को पिछली सदी में कई आन्दोलनकारियों ने यह कह कर रखा है कि दूसरी दुनिया सम्भव है। इसी बात को किशन पटनायक कहते थे कि विकल्पहीन नहीं है दुनिया। यह टीना यानी कोई विकल्प नहीं है का जवाब है।