हिन्दी वालों की हिन्दी वालों से हिन्दी के लिए लड़ाई
“पूजनीय बड़े पिता जी और माता जी, आप लोग मुझे माफ कर देना। मैं आपका अच्छा बेटा नहीं बन पाया….. मैं जा रहा हूँ। मैं जिन्दगी से परेशान हो गया हूँ। आपलोग मुझे माफ करना।” राजीव के सुसाइट नोट का यह एक अंश है। 11 सितम्बर 2020 को यूपीपीसीएस का रिजल्ट आया। मेधावी छात्र राजीव पटेल को इसबार पूरी उम्मीद थी किन्तु चयन नहीं हुआ। वह दिनभर परेशान था और 12 की रात को उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
कहा जा सकता है कि असफल होने पर विद्यार्थियों द्वारा इस तरह की आत्महत्याएँ अब आम हो चुकी हैं। किन्तु राजीव की आत्महत्या इससे अलग थी। वह प्रतिभाशाली भी था और परिश्रमी भी। उसकी आत्महत्या के पीछे का कारण यह था कि उसने हिन्दी माध्यम से परीक्षा दी थी और आयोग द्वारा परीक्षा प्रणाली में किए गए बदलाव के कारण हिन्दी माध्यम इस वर्ष यूपीपीएससी के परीक्षार्थियों पर आफत का पहाड़ बनकर टूट पड़ा।
यूपीपीएससी में जहाँ पहले अँग्रेजी माध्यम से परीक्षा देने वाले दस से पंद्रह प्रतिशत प्रतिभागी सफल होते थे वहाँ इस वर्ष नियमों में ऐसा परिवर्तन कर दिया गया कि चयनित अभ्यर्थियों में अँग्रेजी माध्यम वालों की संख्या लगभग दो तिहाई हो गयी। ग्रामीण परिवेश के हिन्दी माध्यम वाले अभ्यर्थी औंधे मुंह गिर पड़े। कभी आईएएस-पीसीएस का हब कहे जाने वाले इलाहाबाद से अब इन सेवाओ में सफल होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या नगण्य होती है। हिन्दी माध्यम वालों को दिए जाने वाले प्रश्न-पत्र भी आमतौर पर अस्पष्टतथा विवादों के घेरे में रहते हैं क्योंकि वे मूलत: अँग्रेजी में तैयार किए गए प्रश्नों के अनुवाद होते हैं।
राजीव की आत्महत्या के बाद से हिन्दी माध्यम से परीक्षा देने वाले अभ्यर्थी प्रयागराज की सड़कों पर हैं। वे अहिंसात्मक तरीके से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, कैंडिल मार्च और जुलूस निकाल रहे हैं। ताकि यूपीपीएससी के चेयरमैन के दिल में हिन्दी के प्रति थोड़ी हमदर्दी पैदा हो सके। किन्तु डेढ़ महीने से ज्यादा बीत जाने के बाद भी चेयरमैन महोदय पीड़ित छात्रों के दुख दर्द को सुनने के लिए समय नहीं निकाल सके। हाँ, उ.प्र. प्रतियोगी छात्र मंच के अध्यक्ष संदीप सिंह के अनुसार कोरोना काल में इकट्ठा होने के नाम पर आन्दोलन में शामिल छात्रों पर मुकदमा करके उनकी आवाज दबाने का प्रयास मुस्तैदी से किया जा रहा हैं।
दरअसल आज अँग्रेजी का जो वर्चस्व कायम है उसके लिए रास्ता साफ किया कांग्रेस सरकार ने। वैश्वीकरण के बाद 1995 में होने वाले गैट समझौते से अँग्रेजी का तेजी से बढ़ता हुआ दबाव महसूस किया गया। यह उदारीकरण की स्वाभाविक परिणति थी। जब पश्चिम का माल आने लगा, पश्चिम की संस्कृति आने लगी तो पश्चिम की भाषा को भला कैसे रोका जा सकता था? इसके बाद 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा गठित ज्ञान आयोग ने जो संस्तुति की उससे अँग्रेजी के मार्ग का बचा खुचा अवरोध भी हट गया। ज्ञान आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने 40 लाख नए अँग्रेजी शिक्षकों को नियुक्त करने और तत्कालीन मौजूद शिक्षकों को अँग्रेजी में प्रशिक्षित करने की सलाह दे डाली। ऐसा तो गुलामी के दौर में मैकाले भी नहीं कर सका था।
इन्ही परिस्थितियों में भाजपा की राष्ट्रवादी सरकार, स्वदेशी का नारा देती हुई सत्ता में आई। इसने कांग्रेस विहीन भारत का भी नारा दिया। इस सरकार से उम्मीद थी कि वह अँग्रेजी की आँधी को रोकेगी और भारतीय संस्कृति की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को सम्मानजनक स्थान बहाल करने के लिए प्रभावी कदम उठाएगी। किन्तु इस सरकार ने जो किया वह सबसे बढ़कर था। इसने शिक्षा को पूरी तरह व्यापारियों के हवाले कर दिया और पिछली सरकारों ने जहाँ एक विषय के रूप में अँग्रेजी पढ़ाने पर जोर दिया था, इस सरकार ने अँग्रेजी को शिक्षा का माध्यम ही बना दिया।
मुख्यमन्त्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ जी ने 2017 में सबसे पहला काम यह किया कि प्रदेश के पाँच हजार प्राथमिक विद्यालयों को अँग्रेजी माध्यम में बदल दिया। निजी क्षेत्र के विद्यालय तो अँग्रेजी माध्यम के होते ही हैं, जो बचे-खुचे सरकारी विद्यालय हैं उनको भी अँग्रेजी माध्यम में बदल देने के पीछे का तर्क मेरी समझ में आजतक नहीं आया। जनता ने इसकी माँग की हो, इसके लिए कोई आन्दोलन किया हो, ऐसा भी सुनने में नहीं आया था। इतना बड़ा निर्णय लेने के पहले योगी आदित्यनाथ जी ने विशेषज्ञों की समिति बनाकर उनसे कोई सुझाव लेना या पूर्व में गठित आयोगों की सिफारिशों को देखना भी जरूरी नहीं समझा। अखबारों से जो सूचनाएँ मिलीं उनसे पता चला कि अभिभावकों की व्यापक माँग को ध्यान में रखते हुए योगी जी ने यह निर्णय लिया था।
मुझे मुंशी प्रेमचंद द्वारा कहा गया एक प्रसंग याद आ रहा है। उन्होंने एकबार जौनपुर के एक मुस्लिम परिवार के बच्चों को थोड़ी अँग्रेजी पढ़ लेने की सलाह दी थी तो उस परिवार के मुखिया ने अँग्रेजी को “टर्र टर्र की भाषा” कहकर उसकी खिल्ली उड़ाई थी और कहा था कि फारसी पढ़कर उनके घर के तीन लोग मुंसिफ हैं और आराम से बैठे-बैठे फैसले सुनाते हैं, फिर वेटर्र टर्र की भाषा (अँग्रेजी के बहुत से शब्दों के साथ ‘टर’ जुड़ा है जैसे कलक्टर, बैरिस्टर, इंस्पेक्टर आदि) पढ़ने की जहमत क्यों उठाएँ? मैंने बचपन में भोजपुरी की एक कहावत भी सुनी थी- “पढ़ें फारसी बेचें तेल / यह देखों किस्मत का खेल।” यानी, उस जमाने में फारसी पढ़ने वाले को तेल बेचने की नौबत नहीं आ सकती थी।फारसी उन दिनोंकचहरियों तथा सरकारी काम- काज की भाषा थी और उसका बहुत सम्मान था।यह सही है कि फारसी हमारे देश के किसी प्रान्त का भाषा नहीं थी किन्तु हुकूमत करने वालों की भाषा वही थी। उन दिनों जनतन्त्र तो था नहीं। जनता के ऊपर फारसी लाद दी गयी और पूरे छह सौ साल तक फारसी हमारे देश पर शासन करती रही। ठीक वही स्थिति आज अँग्रेजी की है। यद्यपि आज हम एक जनतन्त्र में रह रहे हैं।
आज यदि अभिभावक अँग्रेजी माध्यम की माँग कर भी रहे हैं तो उसका कारण स्पष्ट है। अँग्रेजी पढ़ने से नौकरियाँ मिलती हैं। जब चपरासी तक की नौकरियों में भी सरकार अँग्रेजी अनिवार्य करेगी तो अँग्रेजी की माँग बढ़ेगी ही। यह एक ऐसा मुल्क बन चुका है जहाँ का नागरिक चाहे देश की सभी भाषाओं में निष्णात हो किन्तु एक विदेशी भाषा अँग्रेजी न जानता हो तो उसे इस देश में कोई नौकरी नहीं मिल सकती और चाहे वह इस देश की कोई भी भाषा न जानता हो और सिर्फ एक विदेशी भाषा अँग्रेजी जानता हो तो उसे इस देश की छोटी से लेकर बड़ी तक सभी नौकरियाँ मिल जाएँगी। छोटे से छोटे पदों से लेकर यूपीएससी तक की सभी भर्ती परीक्षाओं में अँग्रेजी का दबदबा है। वन सेवा, चिकित्सा सेवा, इंजीनियरिंग सेवा, रक्षा सेवा आदि में तो केवल अँग्रेजी में ही लिखने की अनिवार्यता है। पता चला है कि इस वर्ष यूपीएससी में 97 प्रतिशत अँग्रेजी माध्यम वाले अभ्यर्थीही सफल हुए हैं। उच्चतम न्यायालय से लेकर देश के पच्चीस में से इक्कीस उच्च न्यायालयों में किसी भी भारतीय भाषा का प्रयोग नहीं होता है। यह ऐसा तथाकथित आजाद मुल्क है जहाँ के नागरिक को अपने बारे में मिले फैसले को समझने के लिए भी वकील के पास जाना पड़ता है और उसके लिए भी वकील को पैसे देने पड़ते हैं। मुकदमों के दौरान उसे पता ही नही चलता कि वकील और जज उसके बारे में क्या सवाल-जबाब कर रहे हैं। ऐसे माहौल में कोई अपने बच्चे को अँग्रेजी न पढ़ाने की भूल कैसे कर सकता है?
दरअसल, अँग्रेजी इस देश के विकास में सबसे बड़ीबाधा है। सुदूर गांवों में दबी प्रतिभाओं, जिनमें ज्यादातर दलित और आदिवासी हैं, को मुख्य धारा में शामिल होने से रोकने में अँग्रेजी सबसे बड़ा अवरोध बनकर खड़ी है। हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक “द इंग्लिश मीडियम मिथ” में संक्रान्त सानु ने प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद के आधार पर दुनिया के सबसे अमीर और सबसे गरीब, बीस -बीस देशों की सूची दी है। बीस सबसे अमीर देशों के नाम हैं, क्रमश: स्विट्जरलैंड, डेनमार्क, जापान, अमेरिका, स्वीडेन, जर्मनी, आस्ट्रिया, नीदरलैंड, फिनलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा, इजराइल, स्पेन, ग्रीस, पुर्तगाल और साउथ कोरिया। इन सभी देशों में उन देशों की जनभाषा ही सरकारी कामकाज की भी भाषा है और शिक्षा के माध्यम की भी।
इसके साथ ही उन्होंने दुनिया के सबसे गरीब बीस देशों की भी सूची दी है। इस सूची मेंशामिल हैं क्रमश: कांगो, इथियोपिया, बुरुंडी, सीरा लियोन, मालावी, निगेर,चाड,मोजाम्बीक,नेपाल, माली, बुरुकिना फैसो, रवान्डा, मेडागास्कर, कंबोडिया, तंजानिया, नाइजीरिया, अंगोला, लाओस, टोगो और उगान्डा। इनमें से सिर्फ एक देश नेपाल है जहाँ जनभाषा, शिक्षा के माध्यम की भाषा और सरकारी कामकाज की भाषा एक ही है नेपाली। बाकी उन्नीस देशों में राजकाज की भाषा और शिक्षा के माध्यम की भाषा भारत की तरह जनता की भाषा से भिन्न कोई न कोई विदेशी भाषा है। (द्रष्टव्य, द इंग्लिश मीडियम मिथ, पृष्ठ-12-13) इस उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि अँग्रेजी माध्यम हमारे देश के विकास में कितनी बड़ी बाधा है।
वास्तव में व्यक्ति चाहे जितनी भी भाषाएँ सीख ले किन्तु वह सोचता अपनी भाषा में ही है। हमारे बच्चे दूसरे की भाषा में पढ़ते हैं फिर उसे अपनी भाषा में सोचने के लिए अनूदित करते हैं और लिखने के लिए फिर उन्हें दूसरे की भाषा में ट्रांसलेट करना पड़ता है। इस तरह हमारे बच्चों के जीवन का एक बड़ा हिस्सा दूसरे की भाषा सीखने में चला जाता है। इसीलिए मौलिक चिन्तन नहीं हो पाता। मौलिक चिन्तन सिर्फ अपनी भाषा में ही हो सकता है। पराई भाषा में हम सिर्फ नकलची पैदा कर सकते हैं। अँग्रेजी माध्यम वाली शिक्षा सिर्फ नकलची पैदा कर रही है।
जब अँग्रेज नहीं आए थे और हम अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण करते थे तब हमने दुनिया को बुद्ध और महावीर दिए, वेद और उपनिषद दिए, दुनिया का सबसे पहला गणतन्त्र दिए, चरक जैसे शरीर विज्ञानी और शूश्रुत जैसे शल्य-चिकित्सक दिए, पाणिनि जैसा वैयाकरण और आर्य भट्ट जैसे खगोलविज्ञानी दिए, पतंजलि जैसा योगाचार्य और कौटिल्य जैसा अर्थशास्त्री दिए। तानसेन जैसा संगीतज्ञ, तुलसीदास जैसा कवि और ताजमहल जैसी अजूबा इमारत दिए। हमारे देश में तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे जहाँ दुनिया भर के विद्यार्थी अध्ययन करने आते थे। इस देश को ‘सोने की चिड़िया’ कहा जाता था जिसके आकर्षण में ही दुनिया भर के लुटेरे यहाँ आते रहे। प्रस्तावित नयीशिक्षा नीति में भी भारत के अतीत का गौरव-गान किया गया है और विश्व गुरु बनने का सपना देखा गया है (द्रष्टव्य, राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020, पृष्ठ-4)। किन्तु इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया गया है कि भारत की उक्त समस्त उपलब्धियाँ अपनी भाषाओं में अध्ययन का परिणाम थीं।
इसी तरह नयी शिक्षा नीति मेंप्राचीन समृद्ध सभ्यताओं में भारत, मेसोपोटामिया, मिस्र, चीन और ग्रीस तथा आधुनिक सभ्यताओं में संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, इजराइल, दक्षिण कोरिया और जापान को आदर्श के रूप में रेखांकित किया गया है (द्रष्टव्य, राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020, पृष्ठ 72)। नीति निर्माताओं से पूछा जाना चाहिए कि क्या उपर्युक्त में से कोई भी देश पराई भाषा को अपने विद्यार्थियों की शिक्षा का माध्यम बनाया है? या राज काज का काम पराई भाषा में करता है?
हमारे प्रधान मन्त्री जी ने जापान की तकनीक और कर्ज के बलपर जिस बुलेट ट्रेन की नींव रखी है उस जापान की कुल आबादी सिर्फ 12 करोड़ है। वह छोटे छोटे द्वीपों का समूह है। वहाँ का तीन चौथाई से अधिक भाग पहाड़ है और सिर्फ 13 प्रतिशत हिस्से में ही खेती हो सकती है। फिर भी वहाँ सिर्फ भौतिकी में 13 नोबेल पुरस्कार पाने वाले वैज्ञानिक हैं। ऐसा इसलिए है कि वहाँ शत प्रतिशत जनता अपनी भाषा ‘जापानी’ में ही शिक्षा ग्रहण करती है। इसी तरह जिस इजराइल के विकास पर वे मुग्ध हैं उस इजराइल की कुल आबादी मात्र 83 लाख है और वहाँ 11 नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक हैं क्योंकि वहाँ भी उनकी अपनी भाषा ‘हिब्रू’ में शिक्षा दी जाती है।
हमारा पड़ोसी चीन उसी तरह का बहुभाषी विशाल देश है जिस तरह का भारत। किन्तु उसने भी अपनी एक भाषा चीनी (मंदारिन) को प्रतिष्ठित किया और उसे वहाँ पढ़ाई का माध्यम बनाया। चीनी बहुत कठिन भाषा है। चीनी लिपि दुनिया की संभवत: सबसे कठिन लिपियों में से एक है। वह चित्र-लिपि से विकसित हुई है। आज चीन जिस ऊंचाई पर पहुँचा है उसका सबसे प्रमुख कारण यही है कि उसने अपने देश में शिक्षा का माध्यम और राजकाज की भाषा अपने देश की चीनी भाषा को बनाया।
जिस अमेरिका और इंग्लैंड की अँग्रेजी हमारे बच्चों पर लादी जा रही हैं उसी अमेरिका और इंग्लैण्ड में पढ़ाई के लिए दूसरे देश से जाने वाले हर सख्स को आइइएलटीएस (इंटरनेशनल इंग्लिश लैंग्वेज टेस्टिंग सिस्टम) अथवा टॉफेल (टेस्ट आफ इंग्लिश एज फॉरेन लैंग्वेज) जैसी परीक्षाएँ पास करनी अनिवार्य हैं। दूसरी ओर, हमारे देश के अधिकाँश अँग्रेजी माध्यम वाले स्कूलों में बच्चों को अपने देश की राजभाषा हिन्दी या मातृभाषा बोलने पर दंडित किया जाता है और हमारी सरकारें कुछ नहीं बोलतीं। यह गुलामी नहीं तो क्या है? बेशक गोरों की नहीं, काले अँग्रेजों की गुलामी।
इससे ज्यादा आश्चर्य की बात क्या हो सकती है कि जिस राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 की भूरि-भूरि प्रशंसा की जा रही है, हिन्दी-हितैषी सरकार की उस शिक्षा नीति में हिन्दी का कहीं जिक्र तक नहीं है। यदि यह शिक्षा नीति लागू हो गयी तो हिन्दी सिर्फ जनता के बोलचाल, गीत-गवनयी और मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी।
आज जरूरत है सबके लिए समान, पूरी तरह मुफ्त और सबको अपनी मातृभाषाओं में गुणवत्ता युक्त शिक्षा की। संविधान का मूल संकल्प हमें ‘अवसर की समानता’ का अधिकार देता है। संविधान का अनुच्छेद 51ए भी देश के प्रत्येक नागरिक और बच्चों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाली समान शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देता है।
प्रश्न यह है कि आजादी की तीन चौथाई सदी बीत जाने के बाद भी सबको समान, मुफ्त और उनकी मातृभाषाओं में शिक्षा क्यों उपलब्ध नहीं कराई जा रही है? यदि सरकार चाहे तो यह सिर्फ चार -पाँच वर्षों में संभव है। केन्द्रीय विद्यालयों जैसे विद्यालय देश के सभी हिस्सों में आवश्यकतानुसार क्यों नहीं बन सकते? नयी शिक्षा नीति में भी शिक्षा के लिए जी।डी।पी। का छह प्रतिशत तय किया गया है। पहले की सरकारें भी शिक्षा के मद में लगभग इतना ही निर्धारित करती थीं किन्तु खर्च मात्र ढाई-तीन प्रतिशत ही करती थीं। शिक्षा का बजट कम से कम नौ से दस प्रतिशत तक होना चाहिए। आज देश का हर नागरिक अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करता है। यदि सरकार खुद बेहतर और सस्ती शिक्षा उपलब्ध कराती है तो जनता उसके लिए कुछ अधिक टैक्स देकर भी बहुत अधिक लाभ में रहेगी क्योंकि शिक्षा के नाम पर निजी शिक्षण संस्थाओं की लूट से वह मुक्त हो जाएगी।
18 अगस्त 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस फैसले में माननीय हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि राजकीय कोष से वेतन पाने वाले सभी नौकरशाहों, सरकारी कर्मचारियों, जन प्रतिनिधियों आदि के बच्चों कों सरकारी विद्यालयों में ही शिक्षा दी जाय। यदि ऐसा हो सके तो देश की शिक्षा व्यवस्था का काया कल्प होने में समय नहीं लगेगा। कल्पना करें कि जिस प्राथमिक विद्यालय में जिले के जिलाधिकारी का बच्चा पढ़ेगा उसमें क्या संसाधनों का अभाव रह पाएगा? किन्तु इलाहाबाद हाई कोर्ट का उक्त फैसला जहाँ देशभर में लागू होना चाहिए था, वहाँ अपने प्रदेश में ही उसे रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया। हमारे पड़ोस के देश भूटान में राज-परिवार के बच्चे भी सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ते हैं। वहाँ भी निजी विद्यालय हैं किन्तु जिन बच्चों का प्रवेश सरकारी विद्यालयों में नहीं हो पाता वे ही निजी विद्यालयों में प्रवेश लेते है। हमारे दूसरे पड़ोसी चीन से लौटकर आने वाले लोग बताते हैं कि वहाँ गाँव का सबसे सुन्दर भवन उस गाँव का विद्यालय होता है।
नयी शिक्षी नीति में विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित किया गया है और देश में आने के लिए उन्हें सरकारी विश्वविद्यालयों जितनी सुविधाएँ देने की बात कही गयी है। यदि ऐसा हुआ तो ज्ञान, सत्ता और प्रतिष्ठित नौकरी चंद संपन्न लोगों के हाथ में सिमट कर रह जाएगी। आखिर विदेशी विश्वविद्यालय हमारे देश में ज्ञान-दान करने तो आएँगे नहीं। वे यहाँ शिक्षा का व्यापार करने औरउससे अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए आएँगे। ऐसी दशा में शिक्षा इतनी मंहगीं हो जाएगी कि वह देश की बहुसंख्यक आबादी की पहुँच से बाहर हो जाएगी। पश्चिमी देशों की तरह उच्च शिक्षा की अभिलाषा रखने वालों को शिक्षा के लिए कर्ज लेना होगा और उसके बाद जीवन का बड़ा हिस्सा उस कर्ज को चुकाने मेंगंवा देना पड़ेगा।
अंगेजी के महत्व को भला कैसे अस्वीकार किया जा सकता है? किन्तु हमें कितनी अँग्रेजी चाहिए? क्या हमारे दैनिक जीवन का अँग्रेजी में चलना हमारे और हमारे देश के हित में है? एक विषय के रूप में अँग्रेजी भाषा की शिक्षा देना बुरा नहीं है, किन्तु बचपन में ही शिक्षा के माध्यम के रूप में बच्चों पर अँग्रेजी थोप देना और उनकी अपनी भाषाएँ छीन लेना भीषण क्रूरता और अपराध है। इसके लिए भविष्य हमें कभी माफ नहीं करेगा।
जहाँ तक एक भाषा के रूप में अँग्रेजी सीखने का सवाल है, यूनेस्को का सुझाव है कि, “यह स्वत:सिद्ध है कि बच्चे के लिए शिक्षा का सबसे बढ़िया माध्यम उसकी मातृभाषा है… शैक्षिक आधार पर वह मातृभाषा के माध्यम से एक अनजाने माध्यम की अपेक्षा तेजी से सीखता है।” (भाषानीति के बारे में अंतर्राष्ट्रीय खोज, जोगा सिंह विर्क, पृष्ठ-4) इतना ही नहीं ब्रिटिश कौंसिल भी, जिसका काम ही अँग्रेजी सिखाना है, ठीक इसी तरह का सुझाव देता है।
दरअसल स्वदेशी, स्वभाषा, भारतीयता, राष्ट्रवाद आदिअपने सिद्धांतों के विरुद्ध सरकार, हमारे बच्चों परपराई भाषा अँग्रेजी इसलिए थोप रही है क्योंकि आज सरकार ही नहीं, किसी भी बड़े राजनीतिक दल के सामने मुख्य प्रश्न देश के विकास का नहीं है, संस्कृति का भी नहीं है। उनके सामने मुख्य प्रश्न कुर्सी का है और कुर्सी के लिए होने वाले चुनाव में खर्च, चंदा, कमीशन, रिश्वत आदि सब कुछ तो उद्योगपति ही देते हैं और इसमें सहयोग मिलता है ब्यूरोक्रेसी का। आज उद्योगपति ही नौकरशाहों की मिली-भगत से देश चला रहे हैं। सरकार अब उनकी दलाल की भूमिका में है। इसीलिए उद्योगपतियों और नौकरशाहों के हित को ध्यान में रखकर ही कायदे-कानून बन रहे हैं। 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार हमारे देश में अँग्रेजी भाषियों की संख्या ।02 प्रतिशत है। यानी, इस देश पर .02 प्रतिशत अँग्रेजी बोलने वाले लोग 99.08 प्रतिशत भारतीय भाषाएँ बोलने वालों पर अँग्रेजी रूपी विलायती हथियार के बल पर शासन कर रहे हैं।
वैसे भी आज देश के बड़े औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को निरक्षर लेबर की जरूरत नहीं है। उन्हें और थोड़ी अँग्रेजी जानने वाले ‘स्किल्ड लेबर’ चाहिए। उन्हें ऐसे लेबर चाहिए जो जरूरत होने पर कंप्यूटर पर भी हाथ फेर सकें। सुसंस्कृत मनुष्य अथवा मौलिक चिन्तन करने वाले विद्वान या वैज्ञानिक तैयार करना अब नेताओं को अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा लग रहा है। अकारण नहीं है कि आज बुद्धिजीवी ही सर्वाधिक निशाने पर हैं।
फिलहाल, अभी तो प्रयागराज में संघर्षरत अभ्यर्थियों को आपकी मदद की गुहार है।
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